शनिवार, 26 जून 2010

जय गणेश - प्रथम सर्ग - उपसर्ग एक

’सज्जन’ इस संसार के, ग्यारह हैं आयाम;
तीन दिशाएँ, एक समय है, बाकी जानें राम।

सब रहस्य ब्रह्मांड के, अब तक हैं अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।

अब है ऐसा लग रहा, अपना यह संसार;
स्वयं समेटे आप में, बहुतेरे संसार।

जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान;
अन्तर बस आयाम का, अब होता है भान।

ऐसे इक संसार में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।

जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।

कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।

करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।

विजया, जया करें कदा, माता के संग वास;
प्रिय सखियों के संग उमा, किया करें परिहास।

हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।

कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।

सुन्दर छबि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।

सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?

आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।

कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।

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