गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मैं एक कवि हूँ

मैं एक कवि हूँ,

हल्का सा झोंका मुझे बिखेर देता है,
हल्का सा झटका मुझे तोड़ देता है,
टूटकर-बिखरकर मिट्टी में मिल जाता हूँ,
पर न जाने कौन सी शक्ति है,
जो मुझे फिर जोड़ देती है,
और इस तरह हर बार मैं धरती से,
कुछ और जुड़ जाता हूँ,
अपने भीतर अपनी मिट्टी के कुछ और कण पाता हूँ,
यही मेरी नियति है,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

भीड़ में मेरे आस पास बहुत सारे लोग होते हैं,
पर उनमें से कुछेक से ही मैं परिचित होता हूँ,
पर जब मैं अकेला होता हूँ,
तो मेरे साथ पूरी एक दुनिया होती है,
मेरी कल्पना की दुनिया,
जिस दुनिया के पशु पक्षियों को भी मैं जानता हूँ,
जिस दुनिया के पत्थर भी मुझसे बातें करते हैं,
जिस दुनिया के कण कण की मैं सृष्टि करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

जिन्हें मैं जानता भी नहीं,
उनका भी दुःख अक्सर मुझे रुला देता है,
मेरे अन्तरतम को हिला देता है,
मैं अक्सर खुद को भूल जाया करता हूँ,
खरीदी हुई सब्जी बाजार में ही छोड़ आया करता हूँ,
अक्सर दोस्तों से अलग अकेले में बैठा करता हूँ,
भीड़ से दूर अकेले में खाया करता हूँ,
अकेले रहना अच्छा लगता है मुझे,
क्योंकि मुझे अपने आप से डर नहीं लगता,
अक्सर अपनी आँखों में आँखें ड़ालकर,
मैं खुद से बातें करता हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि हूँ।

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