शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

ग़ज़ल : हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

जिंदगी हो गई हाजिरी की तरह
हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

काम देता नहीं मेरे मन का मुझे
और कहता है कर बंदगी की तरह

प्यार करने का पहले हुनर सीख लो
फिर इबादत करो आशिकी की तरह

था वो कर्पूर रोया नहीं मोम सा
रोज जलता गया आरती की तरह

काम दफ़्तर का करते बड़े प्यार से
इश्क करते हैं वो अफ़सरी की तरह

फिर से छलिया के होंठों पे जुंबिश हुई
मीडिया बज उठी बाँसुरी की तरह

1 टिप्पणी:

  1. वाह! नए नए बिम्बों से ग़ज़ल जानदार बन पड़ी है। कर्पूर की तरह आरती में जलना और अफ़सरी की तरह इश्क करना.. बहुत खूब..

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