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रविवार, 7 जनवरी 2024

ग़ज़ल: चोर का मित्र जब से बना बादशाह

बह्र: 212 212 212 212

चोर का मित्र जब से बना बादशाह
चोर को चोर कहना हुआ है गुनाह

वो जो संख्या में कम थे वो मारे गए
कुछ गुनहगार थे शेष थे बेगुनाह

आज मुंशिफ के कातिल ने हँसकर कहा
अब मेरा क्या करेंगे सुबूत-ओ-गवाह

खून में उसके सदियों से व्यापार है
बेच देगा वतन वो हटी गर निगाह

एक बंदर से उम्मीद है और क्या
मारता है गुलाटी करो वाह वाह

एक मौका सुनो फिर से दे दो उसे
जो बचा है उसे भी करे वो तबाह

शनिवार, 16 सितंबर 2023

ग़ज़ल: होता है इंक़िलाब सदा इंतिहा के बाद

ज़ालिम बढ़ा दे ज़ुल्म ज़रा हर ख़ता के बाद
होता है इंक़िलाब सदा इंतिहा के बाद

किसने बदल दिया है ये कानून देश का
होने लगी है जाँच यहाँ अब सज़ा के बाद

बीमारियों से देश बचा लोगे जान लो
करती असर है ख़ूब दुआ पर दवा के बाद

जिसने भी तप किया उसे देवत्व मिल गया
इंसान कौन-कौन बना देवता के बाद?

ऐसा विकास भी न हमें आप दीजिए
मिलता सभी को जैसे ख़ुदा पर कज़ा के बाद

रविवार, 26 मार्च 2023

ग़ज़ल: कौन बताए बेचारी को पगली तू ख़तरे में है


22 22 22 22 22 22 22 2

जनता समझ रही बस पूँजी का जादू ख़तरे में है
कौन बताए बेचारी को पगली तू ख़तरे में है

मालिक निकला चोर उचक्का दुनिया ने मुँह पर थूका
नौकर बोल रहा मेरा सोना बाबू ख़तरे में है

बेच दिया उपवन माली ने कब का अब तो ये लगता
बंधन में हैं फूल और उनकी ख़ुश्बू ख़तरे में है

झेल रहे इस कदर प्रदूषण मिट्टी, पानी और हवा
खतरे में हैं सारे मुस्लिम हर हिन्दू खतरे में है

इनके बिन सारी दुनिया सचमुच नीरस हो जाएगी
भाईचारा, प्यार, वफ़ा इनका जादू ख़तरे में है

बोझ उठाकर पूंजी सत्ता का बेचारा वृद्ध हुआ
मारा जाएगा `सज्जन’ अब तो टट्टू ख़तरे में है

सोमवार, 14 नवंबर 2022

ग़ज़ल: या बिन लादेन होता है या आसाराम होता है

बह्र : 1222 1222 1222 1222


या बिन लादेन होता है या आसाराम होता है
सभी धर्मों का आख़िर में यही अंजाम होता है


बचा लो संस्कृति अपनी बचा लो सभ्यता अपनी
सदा आतंकवादी का यही पैगाम होता है


है ये दुनिया उसी की झूट जो बोले सलीके से
यहाँ सच बोलने वाला सदा नाकाम होता है


जहाँ जो धर्म बहुसंख्यक वहीं क्यों है वो ख़तरे में
यहूदी, बौद्ध, हिन्दू तो कहीं इस्लाम होता है


जिसे पकड़ा गया हो बस वही बदनाम है ‘सज्जन’
वगरना कौन धर्मात्मा यहाँ निष्काम होता है

शनिवार, 3 सितंबर 2022

ग़ज़ल: कब तक झुट्टे को पूजोगे

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जब तक पैसे को पूजोगे
चोर लुटेरे को पूजोगे

जल्दी सोकर सुबह उठोगे
तभी सवेरे को पूजोगे

खोलो अपनी आँखें वरना
सदा अँधेरे को पूजोगे

नहीं पढ़ोगे वीर भगत को
तुम बस पुतले को पूजोगे

ईश्वर जाने कब से मृत है
कब तक मुर्दे को पूजोगे

अब तो जान चुके हो सच तुम
कब तक झुट्टे को पूजोगे

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

ग़ज़ल: एक दिन आ‍ँसू पीने पर भी टैक्स लगेगा


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घुटकर मरने जीने पर भी टैक्स लगेगा
एक दिन आ‍ँसू पीने पर भी टैक्स लगेगा

नदी साफ तो कभी न होगी लेकिन एक दिन
दर्या, घाट, सफ़ीने पर भी टैक्स लगेगा

दंगा, नफ़रत, हत्या कर से मुक्त रहेंगे
लेकिन इश्क़ कमीने पर भी टैक्स लगेगा

पानी, धूप, हवा, मिट्टी, अम्बर तो छोड़ो
एक दिन चौड़े सीने पर भी टैक्स लगेगा

भारी हो जायेगा खाना रोटी-चटनी
धनिया और पुदीने पर भी टैक्स लगेगा

छोड़ो खाद, बीज की बातें एक दिन ‘सज्जन’
बहते लहू, पसीने पर भी टैक्स लगेगा

रविवार, 17 अप्रैल 2022

गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ : एक गद्यात्मक महाकाव्य

 गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ असल में मिथकों और प्रतीकों के माध्यम से कही गयी इस देश की कहानी है। उपन्यास में वजाल और सिमर्गल नाम के दो साधू दरअसल दो विचारधाराओंं के रूपक हैं। समझने के लिये इन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की विचारधारा भी समझ सकते हैं। यह सिमर्गल और वजाल के चरित्र चित्रण से भी स्पष्ट है। ये दो प्रकार की विचारधाराएँ इस देश में हजारों वर्षों से संघर्षरत किन्तु सहजीवी हैं। इनका जन्म एक ही विचारधारा से हुआ है। ये दो आत्माएँ एक ही मूल आत्मा के दो टुकड़े हैं जिसे हम भारत की संस्कृति कह सकते हैं। 


इस देश के हजारों वर्षों के इतिहास में वजाल हमेशा सिमर्गल पर भारी रहा है इसलिये अंतिम प्रतियोगिता (जिसे हम आजादी के संघर्ष का रूपक मानें) में सभी को यकीन था कि वजाल ही विजयी होकर अंततः वज्रगुरु का उत्तराधिकारी बनेगा। यहाँ वज्रगुरू को सत्य एवं अहिंसा की विचारधारा का रूपक माना जा सकता है। यहाँ लेखक ने शिवरस का जिक्र किया है। शिवरस देवों और दैत्यों की रस्साकसी से निकले हलाहल को सहन करने के बाद शिवकंठ से निकला अमृत है। विचारधारा भी तो यही होती है। अपने अंदर मौजूद देव और दानव के बीच हुई रस्साकसी से निकले विष को सहन कर लेने के बाद निकली अमृत धारा ही तो विचारधारा होती है। वज्रगुरु ने शिवरस पिया हुआ था जिसके कारण वो परमसिद्ध और दीर्घजीवी थे। उनकी आत्मा हजारों हजार वर्ष तक अपनी स्मृतियाँ अक्षुण्ण रख सकती थी। शरीर खत्म हो जाता है पर विचारधारा खत्म होने में हजारों हजार वर्ष लगते हैं। इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि वजाल, सिमर्गल और वज्रगुरु व्यक्ति न होकर प्रतीक मात्र हैं।


पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। अंतिम प्रतियोगिता के बाद वज्रगुरु ने सिमर्गल को विजेता घोषित कर दिया। वो अपने ज्ञान और विद्या के बावजूद वजाल के साथ हुई बेईमानी को नहीं भाँप सके या फिर शायद सिमर्गल के स्वभाव के कारण भीतर ही भीतर वो सिमर्गल को अपना उत्तराधिकारी चुनना चाहते थे इसलिये उनके अवचेतन ने उन्हें सच देखने से रोक दिया।


इसके बाद वज्रगुरु की हत्या और उसके बाद वजाल और सिमर्गल के संघर्ष से तो सभी परिचित ही हैं। न वजाल सिमर्गल को समाप्त कर सकता है न सिमर्गल वजाल को क्योंकि दोनों एक ही आत्मा के दो टुकड़े हैं। पर उनके संघर्ष में वजाल की आत्मा का एक टुकड़ा कटकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लेता है। ये टुकड़ा अर्थात मंदिरा इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब यानी प्रेम सहिष्णुता और भाईचारे का प्रतीक है। इस कथा का नायक अर्थात मंदिरा का प्रेमी मनोहर इस देश के आम आदमी का प्रतीक है। वजाल और सिमर्गल के संघर्ष में पिस रही मंदिरा की आत्मा को मनोहर का प्रेम और मनोहर की स्मृतियाँ ही बचा सकती हैं। 


वर्तमान में वजाल ने मंदिरा की आत्मा का अपहरण कर लिया है और उसे एक केसरिया झंडे में कैद कर दिया है।  यहाँ आकर रूपक बहुत स्पष्ट हो जाता है। वजाल या सिमर्गल जिसके साथ भी मंदिरा की आत्मा जायेगी वही विजयी होगा परन्तु मंदिरा की आत्मा मनोहर के साथ अर्थात इस देश के आम आदमी के साथ ही रहना चाहती है। उपन्यास में मंदिरा की आत्मा को छुड़ाने के लिये मनोहर आधुनिक तकनीक, संगीत, कला, ज्योतिषि, योग, तंत्र इन सबके विशेषज्ञों के की सहायता से एक तोड़ू दस्ता बनाता है। 


मनोहर को रोकने के लिए वजाल तरह-तरह के भ्रम फैलाता है। भाँति-भाँति के झूठ बोलकर मनोहर को मंदिरा के विरुद्ध कर देता है। अब देखना ये है कि आम आदमी अपने तोड़ू दस्ते की मदद से इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब यानी प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारे को वजाल की कैद से मुक्त करा पायेगा या नहीं और मंदिरा की आत्मा के साथ रहने के लिए अपना शरीर अर्थात झूठा अभिमान और श्रेष्ठताबोध त्याग पायेगा या नहीं। बाकी वजाल और सिमर्गल का संघर्ष तो संभवतः सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा।


इस तरह देखा जाय तो ‘उस पार’ प्रतीकों के माध्यम से कही गई एक ख़ूबसूरत कहानी है जिसमें मिथकों और प्रतीकों के माध्यम से कविता के तत्वों का भी समावेश है इसलिये इसे एक गद्यात्मक महाकाव्य भी कहा जा सकता है। 


इस उपन्यास के अंत तक आते-आते मुझे मार्केज याद आ गये। जादुई यथार्थ, मिथक और विज्ञान इन सबके संगम से रचा उनका उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ याद आ गया। मार्केज ने अपने उपन्यास में जादुई यथार्थ, मिथक और विज्ञान के संगम से लैटिन अमेरिका के उपनिवेशीकरण, विनिवेशीकरण और नव-उपनिवेशीकरण के चक्रों पर एक समानांतर इतिहास लिखा है। गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ लगभग उसी शैली में स्वतंत्रता पूर्व के भारत और स्वातंत्र्योत्तर भारत का समानांतर इतिहास प्रस्तुत करता है।


आप इस कहानी के प्रतीकों का कोई दूसरा अर्थ निकालने के लिए भी स्वतंत्र हैं। मेरे पास केवल अपनी समझ के पक्ष में तर्क हैं। आपकी समझ के प्रतिपक्ष में मैं कोई तर्क नहीं दे पाऊँगा क्योंकि गीत चतुर्वेदी के ही शब्दों में कहूँ तो।


“मेरे पास प्रेम से बड़ा कोई तर्क नहीं।”  


शनिवार, 1 जनवरी 2022

ग़ज़ल: हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम

ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम

कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम

शनिवार, 6 नवंबर 2021

ग़ज़ल: उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक

1222 1222 1222 1222

उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक

हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक

दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक

अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक

इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक

अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक

जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक

सोमवार, 17 मई 2021

ग़ज़ल: किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र

बह्र : ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर

तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर

मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर

कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर

मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर

रविवार, 18 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं

दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं

जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं

आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं

ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं

बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं

हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं

जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं

जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं

मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं

लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं

लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं

हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं

हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं

रविवार, 7 अप्रैल 2019

ग़ज़ल: अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको
कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को
अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?
‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

सोमवार, 1 जनवरी 2018

ग़ज़ल: कब तक ऐसे राज करेगा तेरी ऐसी की तैसी

कब तक ऐसे राज करेगा तेरी ऐसी की तैसी
तू केवल पूँजी का चमचा तेरी ऐसी की तैसी

पाँच साल होने को हैं अब घर घर जाकर देखेगा
करती है कैसे ये जनता तेरी ऐसी की तैसी

खाता भर भर देने का वादा करने वाले तूने
खा डाला जो खाते में था तेरी ऐसी की तैसी

बापू का नाखून नहीं तू गप्पू भी सबसे घटिया
बनता है बापू के जैसा तेरी ऐसी की तैसी

कई पीढ़ियों तक ये सबको नफ़रत के फल बाँटेगा
तूने रोपा है जो पौधा तेरी ऐसी की तैसी

रविवार, 18 जून 2017

ग़ज़ल : जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

बह्र : फायलातुन फायलातुन फायलातुन फायलुन
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।

ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।

कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।

शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।

शनिवार, 10 जून 2017

ग़ज़ल : मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।

मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।

लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।

कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।

रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।

करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।

रविवार, 22 जनवरी 2017

ग़ज़ल : है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

बह्र : मफऊलु फायलातुन मफऊलु फायलुन (221 2122 221 212)

है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

देखा है तुझको जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

अलफ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

नागिन समझ के जुल्फें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

ग़ज़ल : जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है

अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है

न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है

इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है

यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है

चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

बह्र : 2122 1122 1122 22

दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए

अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए

आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए

दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला जाए

दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाये

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे

बह्र : 1212 1122 1212 22

प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे

गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे

वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे

न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे

जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे

वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे