बुधवार, 11 नवंबर 2009

विद्रोहों को स्वर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जब-जब तुम बने शांतिप्रिय जन,

तब-तब लूटें तुमको दुर्जन,

हो बहुत सह चुके बन सज्जन, तुम क्रांति आज कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

हम सबकी ही मेहनत का धन,

स्विस बैंकों में धर, कर निर्धन

हमको, करते जो ऐश सखे, टुकड़े हजार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जनता है जिनसे ऊब चुकी,

सेना भी है सह खूब चुकी,

उन भारत के गद्दारों में, सब मिल कर भुस भर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जो लड़ते हैं जा संसद में,

जूतों लातों से, घूँसों से,

उन सारे लंठ गँवारों को, तुम तार तार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मैं नहीं मानता हूँ भगवन

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

तू नहीं मिला मुझको ईश्वर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में,

मालाओं में, शिवलिंगों में, लोगों के ठाकुरद्वारों में,

मैंने देखा तुझको हँसते, नन्हें बच्चों के तन-मन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

मठ के सब सन्त-महन्तों से, हर धर्म-ग्रन्थ के खण्डों से,

मैं पूछ थका तेरा ऐड्रेस,  मौलवी-पुजारी-पण्डों से,

तब मिला नाचते इक अंधे के मंजीरे की झन-झन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

पाँच सरकारी हाइकु

पूछते नहीं,

राज्य की फाइलों से;

उम्र उनकी।

 

मक्खी गयी थी,

दफ्तर सरकारी;

मरी बेचारी।

 

खून चूस के,

जोंकें ये सरकारी;

माँस भी खातीं।

 

वादों का हार,

पहना के नेताजी;

हैं तड़ीपार।

 

घोंघे की गति,

सरकारी कामों से,

ज्यादा है तेज।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

इक भूखे को दुत्कार कर,

तू पूण्य बहु अर्जित करेगा,

मूर्ति पर पय ड़ालकर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

तू चाहे जितने पाप कर,

धुल जायेंगे सब पाप पर,

गंगा में डुबकी मार कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ।

 

धर्म कहता है अगर,

लाखों धरों को तोड़कर,

मन्दिर बना दे एक तो,

तुझको मिलेगा स्वर्ग, गर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

जो धर्म के तेरे नहीं,

जन्नत मिलेगी यदि,

तू उनको मारेगा जेहाद कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

जिसको मैंने समझ देवता,

बचपन से था निसिदिन पूजा,

यूँ ही अगर अचानक निकले,

वो राक्षस से भी बदतर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,

पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,

जब एक समय की ठोकर से,

जायें सारे विश्वास बिखर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

सारे जीवन का श्रम देकर,

जो एक बनाया मैंने घर,

वह तनिक हवा के झोंके से,

हो जाता है गर तितर-बितर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

प्रथम बार चाहा दिल की,

भीतरी तहों से जिसे टूटकर,

वह निकले मूर्ति सजीव,

वासना की हे मेरे देव अगर,

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जीवन में पहली बार किया, जब उससे मैंने प्यार किया,

जग बोला है ये प्यार नहीं, है नासमझी ये बचपन की,

मेरे उन कोमल भावों को, उन भोली-मीठी आहों को,

यूँ बेदर्दी से कुचल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

उसका दिल तोड़ बना निदर्यी, जग बोला यार है यही सही,

जिसमें हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर यार वही,

मेरे पापों को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर,

जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जग कहता अब इससे प्यार करो, इस पर जीवन न्यौछार करो,

मेरे भीतर का प्रेम कुचल, और वहीं चला नफरत का हल,

हैं बीज घृणा के जब बोये, किस तरह प्रेम पैदा होये?

अब कहता सारा जग मुझसे,

तू कभी न यार समझ पाया,

तू कभी न प्यार समझ पाया।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

स्वर्ग-नर्क

स्वर्ग-नर्क की बात सोचकर

बाल न अपने नोंच,

दोनों में कुछ अन्तर है

तो वो है अपनी सोंच;

 

स्वर्ग सुखी है बड़ा

वहाँ परियाँ हैं आतीं,

यही सोचकर नर्क

दुखी है मेरे साथी;

 

नर्क में बड़ा कष्ट

वहाँ राक्षस तड़पाते,

यही सोचकर स्वर्ग

में सभी हँसते-गाते;

 

इतनी सी है बात

न दोनों में अन्तर है,

बाकी सब विद्वानों का

जन्तर-मन्तर है।

नहीं चाहता

नहीं चाहता बन पग पैजनिं, मैं उसके चरणों को चूमूँ,

न चाहत बन पदत्राण, यारों मैं उसके संग-संग घूमूँ;

 

ये कभी नहीं चाहा मैंने, बन नथ उसकी सांसों का रस लूँ,

ना ये अभिलाषा है मेरी, बन वस्त्र उसे बाहों में कस लूँ;

 

नहीं चाहता बन कंगन, उसके कोमल हाथों को छूलूँ,

नही अभीप्सित बन बिंदिया, सजकर मस्तक पर खुद को भूलूँ;

 

मेरी अभिलाषा यही प्रिये, जब शून्य-चेतना हो तेरा तन,

वरण तुझे कर चुकी मृत्यु हो, दें तुझको दुत्कार सभी जन;

 

तब मैं बन चन्दन की लकड़ी, तुझको निज बाँहों में भर लूँ;

यदि तुझे जलायें लोग प्रिये, तो मैं भी तेरे साथ जलूँ;

 

बन राख,, लगाकर गले, अस्थियों को तेरी समझूँगा मैं,

मेरा धरती पर आना हुआ सफल, विस्वास करूँगा मैं।

सहयात्री मिल जाते

सहयात्री मिल जाते!

 

इस जीवन यात्रा के क्षण दो-

क्षण तो मधुरिम हो जाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

कुछ समीप की कुछ सुदूर-

की हो जातीं कुछ बातें;

सहयात्री मिल जाते!

 

वो कुछ कहते, हम कुछ-

कहते, हँसते और हँसाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

क्षण भर के ही पर कुछ-

बन्धन औरों से बँध जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

कुछ पल उड़ते पंख

लगाकर यूँ ही आते-जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

इस लम्बी यात्रा के कुछ-

क्षण स्मृतियों में बस जाते;

सहयात्री मिल जाते।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

देवी तुम जाओ मन्दिर में

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे घर में क्यों आओगी?

मुझ गरीब से क्या पाओगी?

धूप, द्वीप, नैवेद्य, फूल, फल,

स्वर्ण-मुकुट, पावन-गंगाजल,

पीताम्बर औ’ वस्त्र रेशमी,

मेरे पास नहीं ये कुछ भी,

कैसे रह पाओगी सोंचो, तुम मेरे छोटे से घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे श्रद्धा सुमनों में देवि,
है रंग नहीं,
है गंध नहीं,

है गागर प्रेम भरी उर में,

पर बुझा सकेगी प्यास नहीं,

हैं पूजा के स्वर आँखों में,

पर है उनमें आवाज नहीं,

कैसे पढ़ पाओगी भावों को, उठते जो मेरे उर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

तुमको भाती है उपासना,

लोगों का कातर हो कहना,

"देवी ये मुझको दे देना,

देवी उससे वो ले लेना,

देवी इसको अच्छा करना,

उससे मेरी रक्षा करना,"

कैसे मांगोगी तुम मुझसे, छोटी छोटी चीजें घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।