मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

साहबगीरी के दोहे

साहब बोलें आम को, अगर भूल से नीम।
फर्ज तुम्हारा आम को, काट उगाओ नीम॥

साहब बोलें गर सखे, सोलह दूनी आठ।
सदा याद रखना उसे, बने रहेंगे ठाठ॥

साहब जब जब हँस पड़ैं, तुम भी हँस दो साथ।
बात हँसी की हो सखे, या हो दुख की बात॥

साहब को उर में धरो, जपो साब का नाम।
साहब खुश गर हो गए, बनैं बीगड़े काम॥

जय हो साहब बोलि के, सदा नवाओ माथ।
जो फल साहब दे सकें, नहीं देत रघुनाथ॥

साहब के गुण-गान से, धुलैं आप के पाप।
बाल न बाँका कर सकै, ‘विजीलेन्स’ का बाप॥

साहब को सूचित करो, हर छोटी सी बात।
काम करो या ना करो, कौन पूछने जात॥

आगे बढ़ते जाओगे, कभी न छोड़ो हाथ।
बाथरूम में भी सखे, जाओ साब के साथ॥

कितना भी तुम कर मरो, हो जाओगे फेल।
सुबह-शाम गर साब को, नहीं लगाया तेल॥

रविवार, 20 दिसंबर 2009

बाँस

एक दिन मैंने पूछा,
भाई बाँस,
तुम हो विश्व की सबसे लम्बी घास,
कैसा लगता है तुम्हें?
वो बोला क्या बताऊँ,
नीचे सारे पेड़ आपस में बातें करते हैं,
एक दूसरे के साथ खेलते हैं,
हवायें चलती हैं तो एक दूसरे को चूमते हैं,
और मैं यहाँ अकेले खड़ा-खड़ा,
जिन्दगी से तंग आ जाता हूँ,
जब मैं बड़ा होकर झुकता हूँ,
यह सोचकर कि मैं भी औरों के साथ रहूँ,
तो भरी जवानी में लोग मुझे काट ले जाते हैं,
और मैं फिर से बढ़ते लगता हूँ,
तन्हा जीने-मरने के लिये।

प्याज

प्याज! क्यों रुलाता है मुझे तू आज भी।

अब तक तो मुझे आदत पड़ जानी चाहिए थी;
बिना रोये,
तुझे बर्दाश्त करने की हिम्मत आ जानी चाहिए थी;

पर तुझमें कुछ ऐसी बात है,
कि जब जब भी तुझे काटा जाता है,
काटने वाले की आँखों में आँसू,
तू ले ही आता है;

तुझे देखकर यही लगता है,
कि सारे घाव नहीं भर पाता समय भी,
प्याज! तू रुला देता है मुझको आज भी।

एक पगली

एक पगली घूमती है।

रास्ते में, चौराहे पर, पूरे कस्बे में,
मैले कुचैले वस्त्र, धूल भरे बाल,
काली काली चमड़ी,
महीनों से बिना नहाए,
तन-मन पर कई जगह बड़े बड़े घाव लिए,
हाथ में एक सूखी टहनी है,
जिसे वो बार-बार चूमती है,
एक पगली घूमती है।

फिर अचानक कस्बे के पुजारी को दया आई,
वो उसे कस्बे के सबसे धनवान,
पुजारी के प्रमुख जजमान,
के पास ले गया,
नहलाया, धुलाया, इत्र दिया लगाने को,
अच्छे कपड़े पहनाए, खाना दिया खाने को,
और फिर दोनों ने मिलकर,
सब वसूल किया सूद समेत,
अब जब रातों को बाग में पेड़ों की डालियाँ झूमतीं हैं,
तो लोग कहते हैं,
पेड़ों पर पगली की आत्मा घूमती है।

एक नाव

एक नाव....
डगमगाती रही, डूबती रही,
नदी शान्त खड़ी थी,
चाँद चुपचाप देख रहा था,
किनारों ने मुँह फेर लिया था,
हवायें पेड़ों के पीछे छुप गयीं थीं,
थोड़ी ही देर में,
पानी नाव में पूरी तरह भर गया,
और निश्चल हो गये नाव के हाथ-पाँव,
बेचारी नाव....

फिर सबकुछ पहले जैसा हो गया,
हवा फिर बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा,
नदी हँसने लगी,
किनारे नदी को बाँहों में भरने की कोशिश करने लगे,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
और नाव बेचारी कराहती हुई,
गहरे और गहरे डूबती चली गई,
पानी अपनी शक्ति पर इतराता रहा।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

यूँ ही

यूँ ही बेध्यानी में,
गुलाब की पंखुड़ी होठों में दबा ली थी,
तब पता लगा,
लोग कितनी गलत उपमा देते हैं,
कहाँ वो ठंढी, नीरस, पंखुड़ी,
कहाँ तुम्हारे वो गर्म, रसभरे होंठ,

यूँ ही एक दिन,
चाँद को ध्यान से देख लिया था,
तब जाकर पता लगा,
कि मैं कितना गलत कहता था,
कहाँ वो दागदार, निर्जन चाँद,
कहाँ तुम्हारा वो बेदाग, जीवंत चेहरा,

यूँ ही एक दिन,
चंदन का पेड़ दिख गया था,
तब पता चला, मैं कितना गलत सोचता था,
कहाँ तुम्हारा वो रेशमी, बलखाता बदन,
कहाँ ये साँपों से लिपटा, जड़, चन्दन।

तेरा रूप

फूल सा भी, शूल सा भी, मधु सा भी, दूध सा भी,
जल सा, अनल सा भी प्रिये तेरा रूप है;
आग ये लगाता भी है, आग ये बुझाता भी है,,
चैन लेके चैन देता, अजब-अनूप है।
युद्ध शान्ति दोनों को ही, जन्म ये दे सकता है,
कभी घनी छाँव है, तो कभी तीखी धूप है;
भागकर इससे न कोई पार पा सका है,
पार वही होता है, जो इसमें जाता डूब है।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं

ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

मैं जाग रहा हूँ, नभ को ताक रहा हूँ,
है बेशर्म चाँद ये, जाता हि नहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

करवट बदल बदल, है पीठ रही जल,
हैं तारे मुझपे हँसते, मुँह छिपा कहीं,
ये रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

कल आ वो जाएगी, संग नींद लायेगी,
फिर कभी चाँद-तारों को देखूँगा नहीं,
पर रात निगोड़ी, बीतती हि नहीं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

महुवा

महुवा सारी रात रोता रहा,
उसके आँसू गिरते रहे,
और पेड़ के नीचे उसके आँसुओं का गद्दा बिछ गया,
सुबह लोग आये,
और उन्होंने सारे आँसू बीन लिये,
फिर उन आँसुओं का हलवा बनाया,
और सबने खूब चटखारे लेकर खाया,
किसी ने कभी महुवे से,
उसका हाल चाल जानने की कोशिश नहीं की,
उसके रोने का कारण नहीं पूछा,
उसका दुख नहीं बाँटा,
महुवा आज भी रोता है,
और लोग उसके आँसुओं का हलवा खाते हैं,
बिना उसके दुख दर्द का कारण जानने की कोशिश किये।

स्मृति

पल में टूटेंगे,
ये जानते लोग सभी हैं;
रेत के घरौंदे,
बनाते वो फिर भी हैं।

माना प्रकृति मिटा सकती है,
नर की निर्मिति;
पर मिटा नहीं सकती,
उस नन्हें घर की स्मृति।