सोमवार, 12 जुलाई 2010

पत्थर

हम पत्थर नहीं पूजते,
हम पूजते हैं उसकी जिजीविषा को,
उसकी सहनशक्ति को,
उसके अदम्य साहस को,
उसकी इच्छाशक्ति को,
हर मौसम में जो एक सा बना रहता है,
न पिघलता है, न जलता है, न जमता है,
न जाने कितनी बार इसको तोड़ा गया है,
घिसा गया है,
पर इसके मुँह से आह तक नहीं निकली,
सब कुछ सहा है इसने,
इसको कितना भी कोस लो,
बुरा नहीं मानता,
पलटकर वार नहीं करता,
पत्थर ही धरती पर,
ईश्वर के सबसे ज्यादा गुण रखता है,
इसीलिए तो हम इसे पूजते हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2010

कृष्ण विवर

धर्मान्धता वह कृष्ण विवर है,
जिसमें बहुत सारा अन्धविश्वास का द्रव्य,
मस्तिष्क की थोड़ी सी जगह में इकट्ठा हो जाता है,
और परिणाम यह होता है,
कि प्रेम, दया, ममता की प्रकाश-किरणें भी,
इस कृष्ण विवर से बाहर नहीं निकल पातीं,
और जो भी इस कृष्ण विवर के सम्पर्क में आता है,
वह भी इसके भीतर खिंचकर,
कृष्ण विवर का एक हिस्सा बन जाता है,
इससे बचने का एक ही रास्ता है,
न तो इसके पास जाइये,
और न ही इसे अपने पास आने दीजिए।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है,
क्योंकि जो बेईमानी सब करने लगते हैं,
करने वाले भी और पकड़ने वाले भी,
वो सिस्टम में आ जाती है,
उसमें पकड़े जाने का डर नहीं होता,
और धीरे धीरे हमारी आत्मा भी,
मानने लगती है,
कि वो बेईमानी नहीं है;
और अंतरात्मा की आवाज़ गलत नहीं होती,
ऐसा ज्ञानी लोग कह गये हैं;
तो भाइयों आजकल,
ईमानदारी का दायरा बड़ा होता जा रहा है,
क्योंकि ईमानदारी की नई परिभाषाएँ बन रही हैं,
और बेईमानी का घटता जा रहा है,
तो जल्दी ही,
वह घड़ी आएगी,
जब बेईमानी,
दुनिया से पूरी तरह,
समाप्त हो जाएगी।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

समय

काश! मैं तुम्हारे साथ प्रकाश की गति से चल सकता,
तो वह एक पल,
जब तुमने मेरी आँखों में झाँका था,
आज भी वहीं थमा होता।

काश! मेरे प्यार में,
कृष्ण विवर जैसा आकर्षण होता,
तो बहता समय आज भी वहीं ठहरा होता,
मैं तुम्हारी आँखों में खुद को देखता रहता,
और जब तक मेरी पलकें झपकतीं,
समय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता,
और हमारा अस्तित्व मिलकर,
आदि ऊर्जा में बदल जाता,
फिर से सृष्टि का निर्माण करने के लिए।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

सड़कें

पहाड़ों की सड़कें,
आगे बढ़ती हैं,
बलखा बलखा कर;
पहाड़ों की खूबसूरती का आनन्द लेती हैं,
मुड़ मुड़ कर;
रास्ते में खड़े पेड़ उन्हें सलाम करते हैं,
झुक झुक कर;
बीच बीच में कुछेक गड्ढे जरूर होते हैं उनमें;
पर वो जाकर खत्म होती हैं देश के उन कोनों में,
जहाँ के लोगों की वो जीवन रेखा हैं।

शहरों की सड़कें चमकदार होती हैं,
एक दम सपाट,
मगर पेड़ तो कहीं कहीं ही दिखते हैं उन्हें,
वो भी गर्व से सीना ताने,
सड़कों की तरफ तो देखते भी नहीं वो,
शहर की सड़कें मुड़ कर पीछे नहीं देखतीं,
बस आगे ही बढ़ती जाती हैं,
किसी बड़ी सड़क में मिलकर,
अपना अस्तित्व खो देने के लिए।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

भूकम्प

कौन कहता है जिन्दगी में भूकम्प कभी कभी आते हैं,
हर रात मैं सामना करता हूँ,
एक भूकम्प का,
हर रात तुम्हारी यादों के भूकम्प से,
मेरे तन-मन का कोना कोना हिल जाता है,
मेरा कोई न कोई हिस्सा रोज टूट जाता है,
विज्ञान कहता है,
भूकम्प में जो जितना अधिक दृढ़ होता है,
उतनी ही जल्दी टूट जाता है,
काश! कि मैंने भी थोड़ी सी हिम्मत,
थोड़ी सी दृढ़ता दिखाई होती,
तो अगर तुम न भी मिलतीं तो भी,
एक ही बार में टूटकर बिखर गया होता,
कम से कम ये रोज रोज का दर्द तो न झेलता,
शायद ये मेरे समझौतों की,
मेरे झुकने की सजा है,
कि मैं थोड़ा थोड़ा करके रोज टूट रहा हूँ,
और जाने कब तक मैं यूँ ही,
तिल तिल करके टूटता रहूँगा।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

पहाड़ों से लिपटी बर्फ

पहाड़ों से लिपटी बर्फ,
जब पिघल कर पानी बन जाती है,
तो मैदानों की ओर भागने लगती है,
और सागर में जाकर खो जाती है,
फिर धीरे धीरे जलती है,
जुदाई की आग में,
भाप बनकर उठती है,
बादल बनकर वापस दौड़ती है,
और भागकर लिपट जाती है,
पहाड़ों से,
दुबारा बर्फ बनकर।
और बेचारा पहाड़,
वो बार बार इस बर्फ को अपने गले से लेता है,
इसे माफ कर देता है, ये जानते हुए भी,
कि जैसे जैसे सूरज की चमकती धूप इसे मिलेगी,
यह पिघलेगी,
और फिर से मुझे छोड़कर चली जाएगी,
क्या यही प्रेम है,
जिससे प्रेम हो उसके सारे गुनाह माफ कर देना,
उसे बार बार फिर से अपना लेना, यह जानते हुए भी,
कि कुछ दिन बाद वह फिर छोड़ कर चला जायेगा।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

बड़ा मुश्किल है

बड़ा मुश्किल है,
तुम पर कविता लिखना,
विज्ञान की प्रयोगशालाओं में,
कविता कहाँ बनती है?

परखनलियों में,
अम्लों में,
क्षारों में,
रासायनिक अभिक्रियाओं में,
कविता कहाँ बनती है?

तरह तरह की गैसों की दुर्गन्ध में,
भावनाहीन प्रयोगों में,
कविता कहाँ बनती है?

पर क्या करूँ मैं,
उन्हीं निर्जीव प्रयोगशालाओं में,
तो बिखरी पड़ी हैं तुम्हारी यादें,
तुम्हारे हाथ की छुवन,
जैसे अम्ल छू गया हो शरीर से,
आज भी सिहर उठता है मेरे हाथ का वह भाग,
तुम्हारी खनकती हँसी,
जैसे बीकर गिरकर टूट गया हो मेरे हाथ से,
तुम्हारी साँसों की आवृत्ति से,
मेरी साँसों का बढ़ता आयाम,
हमारे प्राणों का अनुनाद,
हमारी आँखों की क्रिया प्रतिक्रिया,
आँखों की अभिक्रियाओं से बढ़ता तापमान,
कहाँ से लाऊँ मैं उपमान,
वैज्ञानिक उपमानों से कहाँ बनती है कविता?

लगता था जैसे हमारे शरीरों के बीच का गुरुत्वाकर्षण,
किसी दूसरे ही नियम का पालन करता है,
कोई और ही सूत्र लगता है,
इस गुरुत्वाकर्षण की गणना करने हेतु,
जो शायद अभी खोजा ही नहीं गया है,
और शायद कभी खोजा जाएगा भी नहीं।

कुछ चीजें ना ही खोजी जाएँ तो अच्छा है,
कुछ कविताएँ ना ही लिखी जाएँ तो अच्छा है,
और कुछ कहानियाँ,
अधूरी ही रह जाएँ तो अच्छा है।

रविवार, 4 जुलाई 2010

ईश्वर

ईश्वर की शक्तियाँ;
अर्न्तधान होना,
रूप बदल लेना,
दुनिया को नष्ट कर देना,
मुर्दे को जीवित कर देना,
अंधे को आँखे दे देना,
लँगड़े को टाँगे लौटा देना,
बीमारों को ठीक कर देना,
आदि आदि,
इनमें से कुछ को,
विज्ञान मानव के हाथों में सौंप चुका है,
और कुछ को आने वाले समय मे सौंप देगा,
क्योंकि ये सारी शक्तियाँ,
द्रव्य और ऊर्जा की अवस्थाओं में परिवर्तन मात्र हैं,
और आने वाले कुछ सौ सालों में,
हम इनपर पूरी तरह विजय प्राप्त कर लेंगे।

क्या होगा तब?
मानव ईश्वर बन जायेगा?
या शायद ईश्वर मर जायेगा?
अब वक्त आ गया है,
कि हम ईश्वर की,
हजारों वर्ष पुरानी परिभाषा को बदल दें,
और एक नई परिभाषा लिखें,
जो शक्तियों के आधार पर ना बनाई गई हो,
जो डर के आधार पर न बनाई गई हो,
एक ऐसे ईश्वर की कल्पना करें,
जो अपनी खुशामद करने पर वरदान ना देता हो,
और अपनी बुराई करने पर दण्ड भी ना देता हो,
जो अपनी बनाई हुई सबसे महान कृति,
यानि मानव,
की बार बार सहायता करने के लिए,
धरती पर ना आता हो,
जो एक जाति विशेष,
को दान देने पर खुश न होता हो,

जिसे यकीन हो अपनी महानतम कृति पर,
कि ब्रह्मांण में फैली अनिश्चिता के बावजूद,
उसकी यह कृति अपना अस्तित्व बनाये रहेगी,
विकसित होती रहेगी,

ईश्वर को पुनः परिभाषित तो करना ही होगा,
अगर ईश्वर को जिन्दा रखना है,
तो हमें ऐसा करना ही होगा।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

बर्फ

बर्फ गिरती है तो कितना अच्छा लगता है,
उन लोगों को,
जो वातानुकूलित गाड़ियों से आते हैं,
और गर्म कमरों में घुस जाते हैं,
फिर निकलते हैं गर्म कपड़े पहनकर,
खेलने के लिए बर्फ के गोले बना बनाकर,
गर्म धूप में,

कोई ये नहीं जानता,
कि उस पर क्या बीतती है,
जो एक छोटी सी पत्थरों से बनी कोठरी में,
जिसकी छत लोहे की पुरानी चद्दरों से ढकी होती है,
गलती हुई बर्फ के कारण,
गिरते हुए तापमान में,
एक कम्बल के अन्दर,
रात भर ठण्ड से काँपता रहता है,
दिन भर के काम से थका होने के कारण,
नींद तो आती है,
पर अचानक कम्बल के एक तरफ से,
थोड़ा उठ जाने से,
लगने वाली ठण्ड की वजह से,
नींद खुल जाती है,
सारे अंगों को कम्बल से ढककर,
वह फिर सोने की कोशिश करने लगता है,
उस बर्फ को कोसते हुए,
जिसे सड़कों पर से हटाते हटाते,
दिन में उसके हाथ पाँव सुन्न हो गये थे,
ताकि वातानुकूलित गाड़ियों को आने जाने का,
रास्ता मिल सके।