मंगलवार, 27 जुलाई 2010

रिक्शा

एक रिक्शा था,
जो मुझे बचपन में स्कूल ले जाया करता था,
रोज सुबह वक्तपर आता था,
सीटी बजाता था,
और मैं दौड़कर उसपर चढ़ जाया करता था,
अच्छा लगता था, दोस्तों के साथ,
उस रिक्शे पर बैठकर स्कूल जाना,
कभी कभी जब वो खराब हो जाता था,
तो पापा छोड़ने जाते थे,
पर पापा के साथ जाने में वो मजा नहीं आता था,
एक अजीब सा रिश्ता बन गया था उस रिक्शे से;

वो रिक्शा अब भी आता है कभी कभी मेरे घर,
पर मैं तो अक्सर परदेश में रहता हूँ,
जब मैं घर जाता हूँ,
तो उसको पता नहीं होता कि मैं आया हूँ,
और जब वो आता है तो मैं परदेश में होता हूँ,
लोग कहते हैं वो कुछ माँगने आता होगा,
लोग नहीं समझ सकते,
एक बच्चे और उसके रिक्शे का रिश्ता,
इस बार मैं कुछ नये कपड़े,
घर पर रख आया हूँ,
घरवालों से कहकर,
वो आये तो दे देना,
क्या करूँ,
जिन्दगी की भागदौड़ में,
मैं इतना ही कर सकता हूँ,
तुम्हारे लिये,
कभी अगर किस्मत ने साथ दिया,
तो मुलाकात होगी।

धर्म और जाति

धर्म और जाति अब हमे कुछ नहीं दे सकते,
सिवाय धार्मिक दंगों,
आतंकवाद और प्रेमियों की हत्या के,
धर्म ने जो कुछ देना था दे चुका,
जाति ने जो कुछ देना थी दे चुकी,
अब कुछ नहीं बचा इनके पास देने को,
ये अब समय के अनुसार नहीं चल पाते,
अब इनमें परिवर्तन नहीं होता,
ये तेजी से बदलते युग के साथ नहीं बदल पाते,
ये सड़ने लगे हैं अब,
अब इनसे छुटकारा पाने का वक्त आ गया है,
आओ कुछ को जला दिया जाये,
कुछ को दफना दिया जाय,
इनकी चिता पर फूल रखकर,
इन्हें अन्तिम प्रणाम किया जाये,
इनकी कब्र पर माला रखकर अन्तिम विदा दी जाये,
अब हमें ईश्वर से जुड़ने के लिए,
ना धर्म की आवश्यकता है,
ना ही समाज को चलाने के लिए जाति की।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

चट्टान का टुकड़ा

पहाड़ से टूटकर चट्टान का एक बड़ा टुकड़ा,
नदी में जा गिरा,
नदी की धारा उसे तब तक पटकती रही,
जब तक कि उसके टुकड़े टुकड़े नहीं हो गये,
वो छोटे छोटे टुकड़े धारा में बहते रहे,
चट्टानों से टकराते रहे,
दर्द से चीखते रहे,
पानी को कोसते रहे और गोल गोल हो गये,
फिर नदी ने उन्हें एक किनारे डाल दिया,
दूसरे दिन नदी किनारे से एक बच्चा गुजरा,
उसे वो चिकने, रंग बिरंगे टुकड़े अच्छे लगे,
उन्हें उठा कर घर ले गया,
उसकी माँ ने उन पत्थरों को देखा,
और उन्हें उठाकर पूजाघर में रख दिया,
अब वो पत्थर रोज पूजे जाते हैं,
क्योंकि जो उन्होंने सहा है,
वह सहकर बहुत कम पत्थर,
पूजाघर तक पहुँच पाते हैं,
ज्यादातर तो चूर चूर होकर,
मिट्टी में मिल जाते हैं।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

एक बदली

एक बदली,
पानी से लबालब भरी हुई,
समुन्दर के घर से भागकर,
पहाड़ों के पास पहुँच गई,
हरे भरे पहाड़ों को देखकर,
उसका मन ललचा उठा,
वो उन पर चढ़ती ही गई,
आगे बढ़ती ही गई,
फिर अचानक उसने सोचा,
अरे मैं तो बहुत दूर आ गई,
अब लौटना चाहिए,
उसने पलट कर देखा तो,
हर तरफ उसे पहाड़ ही पहाड़ नजर आये,
वह भटकती रही, भटकती रही,
और पहाड़ कसते रहे अपना शिकंजा,
कब तक लड़ती वो शक्तिशाली पहाड़ों से,
आखिरकार वो बरस ही पड़ी,
और मिट गई,
पर बाकी की बदलियों ने इससे कोई सबक नहीं लिया,
वो अब भी ललचाकर पहाड़ों में आती हैं,
और अपना अस्तित्व मिटाकर खो जाती हैं।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आँवले का पेड़

एक आँवले का पेड़ था,
फलों से लदा हुआ,
ड़ालियाँ झुकी हुईं,
लोग आये, पेड़ की बहुत तारीफ की,
और प्यार से हाथ बढ़ाकर,
बड़े बड़े आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

अगले साल मौसम की मार पड़ी,
और उस पेड़ पर दो-चार आँवले ही लग पाये,
वो भी एकदम ऊपर की डालों पर,
लोग आये, पेड़ को गालियाँ दीं,
पत्थर मार कर आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

मैंने पूछा, पेड़ तुम्हें बुरा नहीं लगा,
लोगों की बातों का;
पेड़ बोला, लोगों का क्या है,
लोग तो मौसम के साथ बदलते हैं।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

मधुमक्खी

वो मधुमक्खी,
जिसके छत्ते में पत्थर मारकर,
एक दिन मैंने उकसाया था,
बदले में उसने मुझे,
अपने डंकों से नहलाया था,
बचने की कोशिश तो बहुत की थी मैंने,
पर कौन बचा है आज तक ऐसे डंकों से,

फिर एक दिन अचानक,
छत्ते में कोई नहीं मिला मुझे,
सारा शहद सूख गया था,
छत्ता उजाड़ हो गया था,
वो छत्ता तो आज भी वहीं है,
पर जब कभी मैं उस राह से गुजरता हूँ,
तो मुझे आज भी महसूस होता है,
उसके डंकों का दर्द,
और याद आ जाती है मुझे,
वो मधुमक्खी।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

हेडमास्टर की कुर्सी

मेरे हेडमास्टर की कुर्सी,
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दादी

एक गाय है,
वो जब तक बछड़े पैदा करती थी,
दूध देती थी,
तब तक उसकी पूजा होती थी,
उसके गोबर से आँगन लीपा जाता था,
उसके दूध से भगवान को भोग लगाया जाता था,
लोग उसके चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे,

पर अब वह बूढ़ी हो गयी है,
उसे गोशाला के छोटे से,
गंदे से, कमरे में भेज दिया गया है,
कभी बछड़ों पर प्यार उमड़ता है,
और जोर से उन्हें पुकारती है,
तो डाँट दी जाती है,
बचा खुचा खाना उसके आगे डाल दिया जाता है,
वो खाकर चुपचाप पड़ी रहती है,
जवानी के दिन याद करते हुए,
मौत के इंतजार में।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

दर्द क्या है

दर्द क्या है?

शारीरिक दर्द क्या है?
शरीर के विभिन्न हिस्सों से निकलने वाली,
कम ऊर्जा की विद्युत धाराएँ,
जो तन्त्रिकाओं के रास्ते दिमाग तक पहुँचती हैं,
और दिमाग इन तरंगों का मिलान,
अपने पास पहले से उपस्थित सूचनाओं से करके,
हमें अहसास दिलाता है,
कि ये तो दर्द की विद्युत धाराएँ हैं।

मानसिक दर्द क्या है,
दिमाग के एक हिस्से से निकलने वाली विद्युत तरंगें,
जिस हिस्से में याददाश्त होती है,
और ये तरंगें जब दिमाग के,
दर्द महसूस करने वाले हिस्से में पहुँचती हैं,
तो फिर एक बार सूचनाओं का मिलान होता है,
और दर्द की अनुभूति होती है,
इस दर्द की कोई सीमा नहीं होती,
क्योंकि आदमी का दिमाग,
असीमित विद्युत उर्जा उत्पन्न कर सकता है।

आजकल मैं कोशिश कर रहा हूँ,
दिमाग में उपस्थित पूर्व सूचनाएँ नष्ट करने की,
और इसका एक आसान रास्ता है,
सूचनाओं के ऊपर दूसरी सूचनाएँ भर देना,
आजकल मैं खूब चलचित्र देख रहा हूँ,
खूब कविताएँ पढ़ रहा हूँ,
उपन्यासों की तो बस पूछिये ही मत,
और विज्ञान की उन समीकरणों को भी,
समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
जिनसे मैं हमेशा ही,
डरता था।

जल्द ही मैं अपने दिमाग में,
इतनी सूचनाएँ भर दूँगा,
कि उसकी यादें या तो मिट जाएँगी,
या इतने गहरे दब जाएँगी कि दिमाग को,
ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगी,
और तब मैं मुक्ति पा सकूँगा,
इस बेरहम दर्द से।

प्रयोग

प्रयोग कभी अच्छा या बुरा नहीं होता,
अच्छा या बुरा प्रयोग का परिणाम होता है,
और परिणाम का पता तब तक नहीं लग सकता,
जब तक कि प्रयोग न किया जाय।

तो प्रयोग से मत डरिये,
बस इतना प्रयास कीजिए,
कि यदि परिणाम बुरा हो,
तो उसका असर कम से कम रहे,
और ऐसा प्रयोग फिर न होने पाये।