गुरुवार, 30 सितंबर 2010

भगवान के घर में भी लूट पाट है

भगवान के घर में भी लूट पाट है
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा

न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा,
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।

कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।

लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।

देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।

नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

कर

आयकर, गृहकर, सम्पत्तिकर, बिक्रीकर,
जलकर,
कितने गिनाऊँ?
कितने सारे रूपये,
कर के रूप में,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार,
पर होता क्या है इन रूपयों का,
खेल के मैदानों में कुछ कुर्सियाँ और लग जाती हैं,
सरकारी दफ़्तरों का पुनर्निमाण हो जाता है,
राज्यमार्ग और चौड़े हो जाते हैं,
सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि हो जाती है,
बड़े लोगों के स्विस बैंक खातों में
थोड़ा धन और बढ़ जाता है;
एक चक्र है ये,
जिसमें अमीरों से पैसा लिया जाता है,
और अमीरों को और सुविधाएँ देने में,
खर्च कर दिया जाता है;

गरीबों के लिए,
विदेशों से गेंहू मँगाया जाता है,
जो गोदामों में ही सड़ जाता है;
ईंटों की अस्थायी सड़कें बनाई जाती हैं,
जो बारिश में टूटकर बह जाती हैं;
चापाकल लगाये जाते हैं,
जो गर्मियों में सूख जाते हैं;
जो बचता है,
वो अधिकारियों के,
सफ़ेद और काले भत्तों में खप जाता है;

सरकार अमीरों से धन वसूल तो सकती है,
पर उसे गरीबों तक पहुँचा नहीं सकती;
अब ऐसे में क्या रास्ता बचता है,
बेचारे गरीब के पास?
यही ना कि वो सीधे अमीरों के पास जाए,
और उनसे उनका धन छीन ले;

सबकुछ आइने की तरह साफ है,
फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
अपराध के बढ़ने पर,
विद्रोह के बढ़ने पर,
राजद्रोह के बढ़ने पर।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

दोस्ती और प्यार

दोस्ती एक कविता है,
एक सुंदर सी कविता,
क्योंकि इसमें शब्द अपना वो अर्थ नहीं रखते,
जो शब्द कोश में होते हैं;
शब्दों का अर्थ उनमें अन्तर्निहित
भावों से समझा जाता है,
जैसे गाली प्यार को व्यक्त करती है,
अनौपचारिकता सम्मान का प्रतीक होती है,
गुस्सा अपनापन दर्शाता है;

और प्यार,
प्यार तो अनकही कविता है,
जहाँ आँखों से ही सब कुछ कह दिया जाता है,
और समझ लिया जाता है;
जहाँ इशारों ही इशारों में,
दिल का हाल बयाँ हो जाता है;

आजकल दोस्ती तो वैसी ही है,
मगर प्यार थोड़ा बदल गया है,
जब तक बार बार व्यक्त ना किया जाय,
लिख लिख कर बताया ना जाय,
लोग प्यार का विश्वास ही नहीं करते,
मुझे समझ नहीं आता,
कि बार बार लिखकर,
या कहकर,
हम अपने प्यार की सत्यता का यकीन,
आखिर दिलाते किसको हैं,
दूसरों को,
या फिर खुद को ही।

रविवार, 5 सितंबर 2010

मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी

मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी।

मेरे लिए तो तुम्हीं इस अनन्त ब्रह्मांड का केन्द्र हो,
तुमसे ही मेरे ब्रह्मांड ने जन्म लिया है,
और तुम्हीं इसको हर पल विस्तृत कर रही हो,
एक दिन ये समाप्त हो जाएगा,
तुम्हारे साथ ही।

कितनी सारी खुशियाँ दी हैं तुमने मुझे,
तारों की तरह टिमटिमाती हुई,
और वो अपना नन्हा सूर्य,
जो हमारे इस ब्रह्मांड को रोशनी से भर रहा है,
काश! तुम मेरी कल्पनाओं को देख सकतीं।

मैं कितना भी तेज भागूँ,
तुम्हारे चारों ओर ही घूमता रहूँगा,
मैं तुमसे दूर कैसे जा सकता हूँ,
तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण ने मुझे बाँध रक्खा है,
मैं अपनी सारी ऊर्जा प्राप्त करता हूँ तुमसे ही।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

भूख

न जाने भूख क्यों बनाई ईश्वर ने?
और पेट क्यों दिया इंसान को?

क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;

अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;

मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;

गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

गूलर की लकड़ी

गूलर की लकड़ी,
कुँआ खोदते वक्त सबसे पहले,
तली में लगाई जाती है,
जिसके ऊपर ईंटों की चिनाई की जाती है,
उस पर जैसे जैसे ईंटों की बोझ बढ़ता जाता है,
और बीच में से मिट्टी निकाली जाती है,
वह धँसती जाती है,
नीचे और नीचे;

गूलर की लकड़ी सैकडों सालों तक,
दबी रहती है मिट्टी के नीचे,
सबसे नीचे,
सारी ईंटों का बोझ थामे,
सब सहते हुए,
फिर भी गलती नहीं,
सड़ती नहीं;

इसके बदले उस लकड़ी को,
न कोई पुरस्कार मिलता है,
न कोई सम्मान,
पर उसको इस पुरस्कार,
या मान-सम्मान से क्या काम?

जब कोई थका हारा,
प्यास का मारा मुसाफिर,
उस राह से गुजरता है,
और एक लोटा पानी पीकर कहता है,
आज इस कुँए के पानी ने मेरी जान बचा ली,
वरना मैं प्यास से मर जाता,
तो उस लकड़ी को लगता है,
उसके सारे कष्ट,
उसका सारा श्रम,
सफल हो गया;
उसके लिए एक थके हुए पथिक की,
तृप्ति भरी साँस ही,
मान है,
सम्मान है,
पुरस्कार है,
संतुष्टि है,
स्वर्ग है।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कविता

सड़क पर वाहनों की खिड़की के बाहर,
मेरे साथ साथ चलती है,
कविता;

रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर,
हरे भरे खेतों के ऊपर,
मेरे साथ भागती है,
कविता;

बोरियत भरी मीटिंगों में,
मेरे मन में गूँजती रहती है,
कविता;

अकेले में अक्सर,
मुझसे बातें करती है,
कविता;

मेरी आत्मा में,
धीरे धीरे घुल रही है,
कविता;

अब मुझे कोई चिन्ता नहीं,
धर्म-अधर्म,
पाप-पूण्य,
स्वर्ग-नर्क की,
क्योंकि मैं कहीं भी जाऊँ,
हमेशा मेरे साथ रहेगी,
कविता।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

पारदर्शी आत्मा

जब मैं समाज में आता हूँ,
तो अपनी आत्मा पर,
वह शरीर प्रक्षेपित कर लेता हूँ,
जिसमें तुम्हारा कोई अंश नहीं होता;
और लोग कहते हैं मैं इतना खुश कैसे रह लेता हूँ,
इस तनाव भरी जिन्दगी में;

क्या करूँ?
मैं लोगों को अपनी आत्मा नहीं दिखा सकता,
क्योंकि मेरी आत्मा,
तुम्हारी निश्छल आत्मा में घुलकर,
पारदर्शी हो गई है,
और समाज में अभी इतनी साहस नहीं आया है,
कि वह पारदर्शी आत्माओं के पार का सच सह सके।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

धरती माँ

धरती के अन्तर में हर क्षण,
दौड़ता रहता है,
पिघला हुआ लावा,
दहकता हुआ लोहा,
जो करता है,
एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण,
धरती के चारों ओर,
और यही चुम्बकीय क्षेत्र,
घातक सौर विस्फोटों से,
रक्षा करता है हमारी;

धरती माँ ने आदि काल से ही,
बड़े कष्ट झेले हैं हमारे लिए,
लगातार जलाती रही है,
अपना दिल हमारे लिए;

हम से तो माँ को ये उम्मीद थी,
कि हम अपनी रक्षा खुद करना सीख लेंगे,
अपने लिए सुरक्षा कवच खुद बना लेंगे,
और माँ बुझा सकेगी अपने दिल की आग;

मगर हमने तो आजतक,
केवल सुरक्षा कवचों को तोड़ा है,
और बढ़ाते ही गए हैं,
धरती के दिल में पिघला हुआ लावा,
न जाने कब तक सह पाएगा,
धरती का अन्तर,
इस लावे की गर्मी को;
न जाने कब तक....।