बुधवार, 24 अप्रैल 2013

ग़ज़ल : निकलने दे अगन ज्वालामुखी से



बहर : १२२२ १२२२ १२२
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ठहर, कल झील निकलेगी इसी से
निकलने दे अगन ज्वालामुखी से

सफाई कर मदद ले के किसी से
कहाँ भागेगा खुद की गंदगी से

मिली है आज सारा दिन मुहब्बत
सुबह तेरे लबों की बोहनी से

बस इतनी बात से मैं होम लिख दूँ
लगाई आग तुमने शुद्ध घी से

बताये कोयले को भी जो हीरा
बचाये रब ही ऐसे पारखी से

समय भी भर नहीं पाता है इनको
सँभलकर घाव देना लेखनी से

हकीकत का मुरब्बा बन चुका है
समझ बातों में लिपटी चाशनी से

उफनते दूध की तारीफ ‘सज्जन’
कभी मत कीजिए बासी कढ़ी से

गुरुवार, 28 मार्च 2013

कविता : क्रिया-प्रतिक्रिया


हर क्रिया के बराबर एवं विपरीत
एक प्रतिक्रिया होती है

कभी प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष दिखती है
कभी भीतर ही भीतर इकट्ठी होती रहती है
आन्तरिक प्रतिरोध ऊर्जा के रूप में

आन्तरिक ऊर्जा
जब किसी की सहन शक्ति से ज्यादा हो जाती है
तो वह एक विस्फोट के साथ टूट जाता है

सावधानी से एक बार फिर जाँच लीजिए
आप की किन किन क्रियाओं की
प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नहीं हुई

सोमवार, 25 मार्च 2013

कविता : प्रेम अगर परमाणु बम नहीं तो कुछ भी नहीं


मेरे कानों की गुफाओं में गूँज रही है
परमानंद के समय की तुम्हारी सिसकियाँ

मेरी आँखों के पर्दों पर चल रही है
तुम्हारे दिगम्बर बदन की उत्तेजक फ़िल्म

मेरी नाक के कमरों में फैली हुई है
तुम्हारे जिस्म की मादक गंध

मेरे मुँह के स्पीकर से निकल रहे हैं
तुम्हारे लिए प्रतिबंधित शब्द

मेरी त्वचा की चद्दर से मिटते ही नहीं
तुम्हारे दाँतों के लाल निशान

तुम्हारा प्रेम परमाणु बम की तरह गिरता है मुझपर
जिसका विद्युत चुम्बकीय विकिरण
काट देता मेरी इंद्रियों का संबंध मेरे मस्तिष्क से
धीमा कर देता है
मेरे शरीर द्वारा अपनी स्वाभाविक अवस्था में लौटने का वेग

हर विस्फोट के बाद
थोड़ा और बदल जाती है मेरे डीएनए की संरचना
हर विस्फोट के बाद
मैं थोड़ा और नया हो जाता हूँ

प्रेम अगर परमाणु बम नहीं तो कुछ भी नहीं  

रविवार, 10 मार्च 2013

ग़ज़ल : तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा


बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा

गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा

बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग 
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा

अंधविश्वास अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

ग़ज़ल : सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं


सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं
छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं

उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं

उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से
अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं

ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं

जिनकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो सज्जन
प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते हैं

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

कविता : भरोसा


एक बहुमंजिली इमारत में प्रवेश करना
दर’असल भरोसा करना है
उसमें लगे कंक्रीट और सरिये की गुणवत्ता पर
कंक्रीट और सरिये के बीच बने रिश्ते पर
और उन सब पर जिनके खून और पसीने ने मिलकर बहुमंजिली इमारत बनाई

सड़क पर कार चलाना
दर’असल भरोसा करना है
सामने से आते हुए चालक के दिमाग पर
सड़क में लगाये गए चारकोल कंक्रीट पर
सड़क के नीचे की धरती पर
उन सबपर जिन्होंने सड़क बनाई
और सबसे ज्यादा अपने आप पर

इमारते गिरती हैं
सड़कों पर दुर्घटनाएँ होती हैं
पर क्या दुर्घटनाओं के कारण इन सब से हमेशा के लिए उठ जाता है आपका भरोसा?

दुर्घटनाओं के पत्थर रास्ते में आते रहेंगे
मानवता पानी की बूँद नहीं जिसे कुछ पत्थर मिलकर सोख लें
ये वो नदी है जो बहती रहेगी जब तक प्रेम का एक भी सूरज जलता रहेगा

कायम रहेगा लोगों का भरोसा बहुमंजिली इमारतों और सड़कों पर
कवि भले ही इन्हें अप्राकृतिक और खतरनाक कह कर कविता-निकाला दे दें

सोमवार, 14 जनवरी 2013

ग़ज़ल : नाव ही नाखुदा हो गई

पेश है नन्हीं सी बहर की एक नन्हीं सी ग़ज़ल
बहर : २१२ २१२ २१२
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राहबरजब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई

प्रेम का रोग मुझको लगा
और दारूदवा हो गई

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई

लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई

जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई

माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई
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