बुधवार, 9 जुलाई 2014

ग़ज़ल : जाल सहरा पे डाले गए

जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए

रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए

जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए

सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए

मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए

जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए

खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले गए

सोमवार, 23 जून 2014

प्रेमगीत : आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

पलकों ने चुम्बन के गीत सुने
आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

साँसें यूँ साँसों से गले मिलीं
अंग अंग नस नस में डूब गया
हाथों ने हाथों से बातें की
और त्वचा ने सीखा शब्द नया

रोम रोम सिहरन के वस्त्र बुने

मेघों से बरस पड़ी मधु धारा
हवा मुई पी पीकर बहक गई
बाँसों के झुरमुट में चाँद फँसा
काँप काँप तारे गिर पड़े कई

रात नये सूरज की कथा गुने

बुधवार, 28 मई 2014

नवगीत : कब सीखा पीपल ने भेदभाव करना

धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?

फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ हों
या फिर जंगली बबूल

कब सीखा
चिन्ता के
पतझर में झरना

कीट, विहग, जीव-जन्तु
देशी-परदेशी
बुद्ध, विष्णु, भूत, प्रेत
देव या मवेशी

जाने ये
दुनिया में
सबके दुख हरना

जितना ऊँचा है ये
उतना विस्तार
दुनिया के बोधि वृक्ष
इसका परिवार

कालजयी
क्या जाने
मौसम से डरना

शुक्रवार, 23 मई 2014

ग़ज़ल : पेड़ ऊँचा है, न इसकी छाँव ढूँढो

कामयाबी चाहिए तो पाँव ढूँढो
पेड़ ऊँचा है, न इसकी छाँव ढूँढो

शहर से जो माँग लोगे वो मिलेगा
शर्त इतनी है यहाँ मत गाँव ढूँढो

जीत लोगे युद्ध सब, इतना करो तुम
जो न हो नियमों में ऐसा दाँव ढूँढो

दौड़ते रहना, यहाँ जिन्दा रहोगे
भीड़ में मत बैठने को ठाँव ढूँढो

नभ मिलेगा, गर करो हल्का स्वयं को
और उड़ने के लिए पछियाँव ढूढो

शनिवार, 10 मई 2014

कविता : ग्रेविटॉन

यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण
तभी तो ये दोनों मोड़ देते हैं दिक्काल के धागों से बुनी चादर
कम कर देते हैं समय की गति

इन्हें कैद करके नहीं रख पातीं स्थान और समय की विमाएँ
ये रिसते रहते हैं एक ब्रह्मांड से दूसरे ब्रह्मांड में
ले जाते हैं आकर्षण उन स्थानों तक
जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती

अब तक किये गये सारे प्रयोग
असफल रहे इन दोनों का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण खोज पाने में
लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इनको महसूस करता है
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण

शुक्रवार, 2 मई 2014

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए जल्द ही सुनहरे सपनों के चुम्बक से खींचकर
मुझे मेरी जमीन से अलग कर दिया गया

अध्यापकों ने कभी डरा-धमका कर तो कभी बहला-फुसला कर
मेरी अशुद्धियों को दूर किया
अशुद्धियाँ जैसे मिट्टी, हवा और पानी
जो मेरे शरीर और मेरी आत्मा का हिस्सा थे

तरह तरह की प्रतियोगिताओं की आग में गलाकर
मेरे भीतर से निकाल दिया गया भावनाओं का कार्बन
(वही कार्बन जो पत्थर और इंसान के बीच का एक मात्र फर्क़ है)

मुझमें मिलाया गया तरह तरह की सूचनाओं का क्रोमियम
ताकि हवा, पानी और मिट्टी
मेरी त्वचा तक से कोई अभिक्रिया न कर सकें

अंत में मूल वेतन और मँहगाई भत्ते से बने साँचे में ढालकर
मुझे बनाया गया सही आकार और सही नाप का

मैं अपनी निर्धारित आयु पूरी करने तक
लगातार, जी जान से इस मशीनरी की सेवा करता रहूँगा
बदले में मुझे इस मशीनरी के
और ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सों में काम करने का अवसर मिलेगा

मेरे बाद ठीक मेरे जैसा एक और पुर्जा आकर मेरा स्थान ले लेगा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे लिए इंसान में मौजूद कार्बन
ऊर्जा का स्रोत भर है।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है
तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता
जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है

तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम
बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : ढंग अलग हो करने का

बह्र : २२ २२ २२ २
-------
जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का

सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का

आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का

सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का

कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

कविता : पूँजीवादी ईश्वर

फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर
मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा
चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा

अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि
उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा

पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत
तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की
बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा

जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा
तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए
वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा

जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में
किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे
तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए
धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा
ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है
तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है

अब जो दुनिया चला रहा है
वो ईश्वर पूँजीवादी है

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाते परिंदे, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता

कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता

बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता

मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

शज़र को फिर हरा कर ही नहीं पाता कोई मौसम
जो पीलापन मिटाने के लिए पतझर नहीं होता