सोमवार, 25 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता
शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

वो तो बस पुल पर चलते जो गहराई से घबराते हैं
पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

जिनसे है उम्मीद समय को वो पूँजी के सम्मोहन में
काम गधों सा करते फिर सुअरों सा खाकर सो जाते हैं

धूप, हवा, जल, मिट्टी इनमें से कुछ भी यदि कम पड़ जाए
नागफनी बढ़ते जंगल में नाज़ुक पौधे मुरझाते हैं

जिनके हाथों की कोमलता पर दुनिया वारी जाती है
नाम वही अपना पत्थर के वक्षस्थल पर खुदवाते हैं

नफ़रत की भट्ठी में शब्दों के ईंधन से आग लगाकर
सत्ता देवी के तर्पण को ख़ून हमारा खौलाते हैं

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं

बह्र : 1212 1122 1212 22

जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं
वो मंदिरों में सदा गुप्तदान करते हैं

लहू व अश्क़, पसीने को धान करते हैं
हमारे वास्ते क्या क्या किसान करते हैं

कभी मिली ही नहीं उन को मुहब्बत सच्ची
जो अपने हुस्न पे ज़्यादा गुमान करते हैं

गरीब अमीर को देखे तो देवता समझे
यही है काम जो पुष्पक विमान करते हैं

जो मंदिरों में दिया काम आ सका किसके?
नमन उन्हें जो सदा रक्तदान करते हैं

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

प्रेम (पाँच छोटी कविताएँ)

(१)

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो नफ़रत करते हैं
बेइंतेहाँ नफ़रत

जिनमें प्रेम करने की बेइंतेहाँ क्षमता होती है
उनके पास नफ़रत करने का समय नहीं होता

जिनमें प्रेम करने की क्षमता नहीं होती
वो अपने पूर्वजों के आखिरी वंशज होते हैं

(२)

तुम्हारी आँखों के कब्जों ने
मेरे मन के दरवाजे को
तुम्हारे प्यार की चौखट से जोड़ दिया है

इस तरह हमने जाति और धर्म की दीवार के
आर पार जाने का रास्ता बना लिया है

हमारे जिस्म इस दरवाजे के दो ताले हैं
हम दोनों के होंठ इन तालों की दो जोड़ी चाबियाँ

इस तरह दोनों तालों की एक एक चाबी हम दोनों के पास है

जब जब दरवाजा खुलता है
दीवाल घड़ी बन्द पड़ जाती है

(३)

मैं तुम्हारी आँख से निकला हुआ आँसू हूँ
मुझे गिरने मत देना

अपनी उँगली की पोर पर लेकर
अपने होंठों से लगा लेना

मैं तुम्हारे जीवन में नमक की कमी नहीं होने दूँगा

(४)

मैं तुम्हारी आँख में ठहरा हुआ आँसू हूँ
मुझे बाहर मत निकलने देना
मैं तुम्हारे दिल को सूखने नहीं दूँगा

प्रेम की फ़सल खारे पानी में ही उगती है

(५)

हँसते समय तुम्हारे गालों में बनने वाला गड्ढा
बिन पानी का समंदर है
जो न तो मुझे डूबोता है
न तैरकर बाहर निकलने देता है

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया
हमने तो दिल के शहर का नक्शा बदल दिया

इसकी रगों में बह रही नफ़रत ही बूँद बूँद
देखो किसी ने धर्म का बच्चा बदल दिया

अंतर गरीब अमीर का बढ़ने लगा है क्यूँ
किसने समाजवाद का ढाँचा बदल दिया

ठंडी लगे है धूप जलाती है चाँदनी
देखो हमारे प्यार ने क्या क्या बदल दिया

छींटे लहू के बस उन्हें इतना बदल सके
साहब ने जा के ओट में कपड़ा बदल दिया

मंगलवार, 29 मार्च 2016

ग़ज़ल : जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२

मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना

न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

रविवार, 27 मार्च 2016

ग़ज़ल : इससे अच्छा है मर जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२

जीवन भर ख़ुद को दुहराना
इससे अच्छा है मर जाना

मैं मदिरा में खेल रहा हूँ
टूट गया जब से पैमाना

भीड़ उसे नायक समझेगी
जिसको आता हो चिल्लाना

यादों के विषधर डस लेंगे
मत खोलो दिल का तहखाना

सीने में दिल रखना ‘सज्जन’
अपना हो या हो बेगाना

बुधवार, 23 मार्च 2016

ग़ज़ल : थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे

212 1222 212 1222

थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे

चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे

राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे

जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल
हौले हौले बजती हो कोई  बाँसुरी जैसे

मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे

ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं
पेड़ सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे

शनिवार, 19 मार्च 2016

ग़ज़ल : झूठ मिटता गया देखते देखते

२१२ २१२ २१२ २१२

झूठ मिटता गया देखते देखते
सच नुमायाँ हुआ देखते देखते

तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी
कैसा जादू हुआ देखते देखते

तार दाँतों में कल तक लगाती थी जो
बन गई अप्सरा देखते देखते

झुर्रियाँ मेरे चेहरे की बढने लगीं
ये मुआँ आईना देखते देखते

वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा
हो गया रतजगा देखते देखते

शे’र उनपर हुआ तो मैं माँ बन गया
बन गईं वो पिता देखते देखते

बुधवार, 16 मार्च 2016

ग़ज़ल : सूर्य से जो लड़ा नहीं करता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता
वक़्त उसको हरा नहीं करता

सड़ ही जाता है वो समर आख़िर
वक्त पर जो गिरा नहीं करता

जा के विस्फोट कीजिए उस पर
यूँ ही पर्वत हटा नहीं करता

लाख कोशिश करे दिमाग मगर
दिल किसी का बुरा नहीं करता

प्यार धरती का खींचता इसको
यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता