रविवार, 18 जून 2017

ग़ज़ल : जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

बह्र : फायलातुन फायलातुन फायलातुन फायलुन
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।

ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।

कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।

शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।

शनिवार, 10 जून 2017

ग़ज़ल : मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।

मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।

लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।

कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।

रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।

करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

प्रेमगीत : बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है

बिना तुम्हारे
हे मेरी तुम
सब आधा है

सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे

धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है

आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन

भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है

फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन

जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

लघुकथा : कथा लिखो

महाबुद्ध से शिष्य ने पूछा, “भगवन! समाज में असत्य का रोग फैलता ही जा रहा है। अब तो इसने बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। आप सत्य की दवा से इसे ठीक क्यों नहीं कर देते?”

महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”

महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली तो नीम से भी लाख गुना कड़वी थी। ये कैसी ठिठोली थी प्रभो।”

महाबुद्ध बोले, “सच भी ऐसा ही है। यदि मैं समाज को सब कुछ सच सच बता दूँ तो भी वो उस पर कभी विश्वास नहीं करेगा और जो थोड़ा बहुत सच वो जानता और मानता है उस पर से भी उसका विश्वास उठ जायेगा।”

“तो असत्य का ये रोग समाज से कैसे मिटेगा प्रभो।”

“हमें झूठ के खोल में लपेटकर सच समाज तक पहुँचाना होगा। ताकि उसका कड़वापन खत्म हो जाय।”

“कैसे भगवन?”

“कथा लिखो महाबुद्धि। कथा लिखो।”

रविवार, 22 जनवरी 2017

ग़ज़ल : है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

बह्र : मफऊलु फायलातुन मफऊलु फायलुन (221 2122 221 212)

है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

देखा है तुझको जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

अलफ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

नागिन समझ के जुल्फें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

शनिवार, 14 जनवरी 2017

नवगीत : ये दुनिया है भूलभुलैया

ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर

पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल

फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर

भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून

पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर

ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम

सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

ग़ज़ल : जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है

अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है

न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है

इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है

यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है

चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है

शनिवार, 31 दिसंबर 2016

नवगीत : नव वर्ष ऐसा हो

है यही विनती प्रभो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो

ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से

खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो

कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो

साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो

सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ

चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

बह्र : 2122 1122 1122 22

दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए

अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए

आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए

दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला जाए

दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाये

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे

बह्र : 1212 1122 1212 22

प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे

गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे

वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे

न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे

जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे

वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे