सोमवार, 27 दिसंबर 2010

नवगीत : प्रेम हो गया आज नमकीन

प्रेम हो गया आज नमकीन

खर्च सोडियम करता रहता है
अपना आवेश
पाकर उसको झटक रही क्लोरीन
खुशी से केश
लेनदेन का यह आकर्षण
हुआ बड़ा रंगीन

कभी किया करते थे कार्बन
ऑक्सीजन साझा
प्रेम हुआ करता था मीठा तब
गुड़ से ज्यादा
ढ़ाई आखर प्रेम मिट गया
शब्द बचे हैं तीन

दुनिया के ज्यादातर अणु साझे
से बनते हैं
लेन देन के बंधन पानी तक
से मिटते हैं
जिस बंधन पर सृष्टि टिकी वो
लौटेगा इक दिन

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

ग़ज़ल : ख़ुमारी है मय की

ख़ुमारी है मय की गुलों की नज़ाकत
ख़ुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत ।१।

लगे कोयले सा खदानों में हीरा
बना देती है नीच नीचों की सोहबत ।२।

तुझे याद जब जब करे मन का सागर
सुनामी है उठती मचाती कयामत ।३।

लिखा दूसरों का जो पढ़ते हैं भाषण
वही लिख रहे हैं गरीबों की किस्मत ।४।

डकैती घोटाले क़तल तस्कारी सब
इन्हीं की बनी आज लॉकर सियासत ।५।

सँवारूँ मैं कैसे नहीं रूह दिखती
मुझे आइने से है इतनी शिकायत ।६।

न ही कौम पर दो न ही दो ख़ुदा पे
जो देनी ही है देश पर दो शहादत ।७।

करो चाहे जो भी करो पर लगन से
है ऐसे भी होती ख़ुदा की इबादत ।८।

नहीं हाथियों पर जो रक्खोगे अंकुश
चमन नष्ट होगा मरेगा महावत ।९।

न जाने वो थे बुत या थे अंधे बहरे
मरा न्याय जब भी भरी थी अदालत ।१०।

न समझे तु प्रेमी तो पागल समझ ले
है जलना शमाँ पे पतंगों की आदत ।११।

मैं जन्मों से बैठा तेरे दिल के बाहर
कभी तो करेगी तु मेरा भी स्वागत ।१२।

नहीं झूठ का मोल कौड़ी भी लेकिन
लगाता हमेशा यही सच की कीमत ।१३।

मिलेगी लुटेगी न जाने कहाँ कब
सदा से रही बेवफा ही ये दौलत ।१४।

नहीं चाहता मैं के तोड़ूँ सितारे
लिखूँ सच मुझे दे तु इतनी सी हिम्मत ।१५।

ग़ज़ल में तेरा हुस्न भर भी अगर दूँ
मैं लाऊँ कहाँ से ख़ुदा की नफ़ासत ।१६।

बरफ़ के बने लोग मिलने लगे तो
नहीं रह गई और उठने की हसरत ।१७।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

हवाई जहाज

हवाई जहाज को
दुनिया और ख़ासकर शहर
बड़े खूबसूरत नजर आते हैं
सपाट चमचमाती सड़कों से उड़ना
रुई के गोलों जैसे
सफेद बादलों के पार जाना
हर समय चमचमाते हुए
हवाई अड्डों पर उतरना या खड़े रहना
दरअसल
असली दुनिया क्या होती है
हवाई जहाज
ये जानता ही नहीं
वो अपना सारा जीवन
असली दुनिया से दूर
सपनों की चमकीली दुनिया में ही बिता देता है

हवाई जहाज भी क्या करे
उसका निर्माण किया ही गया है
सपनों की दुनिया में रहने के लिए
वो रिक्शे या साइकिल की तरह
गंदी गलियों और
टूटी सड़कों पर नहीं चल सकता
कीचड़ या कचरे की बदबू नहीं सहन कर सकता
शरीर पर जरा सी भी खरोंच लग जाय
तो सड़ने लगता है
विश्व का सबसे अच्छा ईंधन
सबसे ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करता है

हवाई जहाज
या उसके सपनों की दुनिया से
मुझे कोई ऐतराज नहीं
ऐतराज इस बात से है
कि हवाई जहाज के हाथ में ही
असली दुनिया की बागडोर है
वह उस जगह बैठकर
आम इंसानों के लिए नियम बनाता है
जहाँ से आम इंसान
या तो चींटी जैसा दिखता है
या दिखता ही नहीं
इसीलिए ज्यादातर नियम
केवल हवाई यात्रा करने वालों की
सुविधाओं का साधन बन कर रह जाते हैं
और आम इंसान
चींटियों की तरह
थोड़े से आटे के लिए ही
संघर्ष करता
जीता मरता
रह जाता है।

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

ग़ज़ल : हराया है तुफ़ानों को

हराया है तुफ़ानों को मगर ये क्या तमाशा है
हवा करती है सरगोशी बदन ये कांप जाता है।

गरजती है बहुत फिर प्यार की बरसात करती है
ये मेरा और बदली का न जाने कैसा नाता है।

है सूरज रौशनी देता सभी ये जानते तो हैं
अगन दिल में बसी कितनी न कोई भाँप पाता है।

वो ताकत प्रेम में पिघला दे पत्थर लोग कहते हैं
पिघल जाता है जब पत्थर जमाना तिलमिलाता है।

कहाँ से नफ़रतें आके घुली हैं उन फ़िजाओं में
जहाँ पत्थर भी ईश्वर है जहाँ गइया भी माता है।

चला जाएगा खुशबू लूटकर हैं जानते सब गुल
न जाने कैसे फिर भँवरा कली को लूट पाता है।

न ही मंदिर न ही मस्जिद न गुरुद्वारे न गिरिजा में
दिलों में झाँकता है जो ख़ुदा को देख पाता है।

पतंगे यूँ तो दुनियाँ में हजारों रोज मरते हैं
शमाँ पर जान जो देता वही सच जान पाता है।

हैं हमने घर बनाए दूर देशों में बता फिर क्यूँ
मेरे दिल के सभी बैंकों में अब भी तेरा खाता है।

बने इंसान अणुओं के जिन्हें यह तक नहीं मालुम
क्यूँ ऐसे मूरखों के सामने तू सर झुकाता है।

है जिसका काला धन सारा जमा स्विस बैंक लॉकर में
वही इस देश में मज़लूम लोगों का विधाता है।

नहीं था तुझमें गर गूदा तो इस पानी में क्यूँ कूदा
मोहोब्बत ऐसा दरिया है जो डूबे पार जाता है।

कहेंगे लोग सब तुझसे के मेरी कब्र के भीतर
मेरी आवाज में कोई तेरे ही गीत गाता है।

दिवारें गिर रही हैं और छत की है बुरी हालत
शहीदों का ये मंदिर है यहाँ अब कौन आता है।

नहीं हूँ प्यार के काबिल तुम्हारे जानता हूँ मैं
मगर मुझसे कोई बेहतर नजर भी तो न आता है।

मैं तेरे प्यार का कंबल हमेशा साथ रखता हूँ
भरोसा क्या है मौसम का बदल इक पल में जाता है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

विज्ञान के विद्यार्थी का प्रेम गीत

एक बहुत पुरानी रचना है आप भी आनंद लीजिए

अवकलन समाकलन
फलन हो या चलन-कलन
हरेक ही समीकरन
के हल में तू ही आ मिली

घुली थी अम्ल क्षार में
विलायकों के जार में
हर इक लवण के सार में
तु ही सदा घुली मिली

घनत्व के महत्व में
गुरुत्व के प्रभुत्व में
हर एक मूल तत्व में
तु ही सदा बसी मिली

थीं ताप में थीं भाप में
थीं व्यास में थीं चाप में
हो तौल या कि माप में
सदा तु ही मुझे मिली

तुझे ही मैंने था पढ़ा
तेरे सहारे ही बढ़ा
हुँ आज भी वहीं खड़ा
जहाँ मुझे थी तू मिली

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

कल रात

कल रात दिल्ली की सड़कों पर
हुआ एक बलात्कार
आज रात भर
उन्हीं सड़कों पर
घूमती रही पुलिस,
दो चार दिन की बात है
फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा
इतिहास एक बार फिर
स्वयं को दोहराएगा

बुधवार, 24 नवंबर 2010

चश्मा

कुछ दिनों पहले उसके पास
दो सौ रूपए का चश्मा था
बार बार उसके हाथों से गिर जाता था
और वो बड़ी शान से सबसे कहता था
मेहनत की कमाई है
खरोंच तक नहीं आएगी।

आज वो चार हजार का चश्मा पहनता है
मगर वो चश्मा जरा सा भी
किसी चीज से छू जाता है
तो वह तुरंत उलट पलट कर
ये देखने लगता है
कि कहीं चश्मे में
कोई खरोंच तो नहीं आ गई।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

पाँव तुम्हारा चूम चूम कर
धान मुँआँ पकता है
छूकर तेरी कमर
बाजरा लहराता फिरता है
तेरे बालों से मक्का
रेशम चोरी करता है
तेरा अधर चूमने को,
गन्ना रस से भरता है;
सरपत पकड़ दुपट्टा तेरा खींचतान करता है।

बारिश ने जबरन तेरा
यह कोमल गात छुआ है
उस पर मेरा गुस्सा
अब तक ठंढा नहीं हुआ है
तिस पर जाड़ा मेरा
दुश्मन बन आने वाला है
तुझको कंबल से ढक
घर में बिठलाने वाला है;
इतने दिन बिन देखे मर जाऊँगा ये लगता है।

कबसे सोच रहा था अबके
क्वार तुझे मैं ब्याहूँ
तेरे तन के फूलों में निज
मन की महक मिलाऊँ
नन्हीं नन्हीं कलियों से
घर, आँगन, बाग सजाऊँ
पर पत्थर-दिल पागल
आदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

बस इतना अधिकार मुझे दो

नहीं चाहता साथ तुम्हारे
नाचूँ, गाऊँ, झूमूँ, घूमूँ
नहीं चाहता तुमको देखूँ,
छूँलूँ, कसलूँ या फिर चूमूँ

नहीं चाहता तुम अपना जीवन
दो या फिर प्यार मुझे दो
अंत समय चंदन बन जाऊँ
बस इतना अधिकार मुझे दो

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ

बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ

मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ

शनिवार, 6 नवंबर 2010

पाँच दोहे तेल पर

तन मन जलकर तेल का, आया सबके काम।
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥

तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥

बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥

पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥

देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

बूढ़ा घर और दीपावाली

गाँव का बूढ़ा घर
जर्जर
जीवन की कुछेक आखिरी साँसें
ले रहा है
रोज गिनता है
दीपावाली आने में
बचे हुए दिन
अब तो दीपावली में ही
आते हैं
उसके आँगन में खेलकर
बड़े हुए बच्चे
अपने पुश्तैनी घर में
दीपक जलाने
ताकि उस घर पर उनका हक
बना रहे
और बूढ़ा घर
किसी बेघर को आश्रय न दे दे।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

माँ

बच्चा जब माँ को रोते देखता है
तो बच्चा भी
उसके दुख से दुखी होकर रोता है,
बच्चे के लिए माँ का दुख ही सबसे बड़ा दुख है,
इसके आगे वो कुछ सोच समझ नहीं सकता।

बड़ा होने पर जब बच्चा
दुखी होकर रोता है,
तो माँ भी उसके दुख से दुखी होकर रोती है;
बच्चे के दुख के आगे
माँ भी कुछ सोच समझ नहीं पाती;
छोटे बच्चे की तरह।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

जिंदगी की दौड़

जो पीते थे
वो पिलाकर

जो खाते थे
वो खिलाकर

जो चोर थे
वो चुराकर

जो तेल लगाते थे
वो तेल लगाकर

जो चालू थे
वो सबको बेवकूफ बनाकर

जिंदगी की दौड़ में आगे निकल गए
और धनवान बन गए

जिनको इनमें से कुछ भी नहीं आता था
वो जिंदगी की दौड़ में बहुत पीछे रह गए
और इंसान बन गए।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आँवले जैसी हो तुम

आँवले जैसी हो तुम
जब तक पास रहती हो
खटास बनी रहती है
पर जब चली जाती हो
और मै संग संग बिताए
पलों की याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे मीठास घुलने लगती है
उन पलों की
मेरे मुँह में
मेरे तन में
मेरे मन में
मेरे जीवन में।

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

सूर्य और सुबह

जवान होता सूरज
जब अपना जादुई रंग रूप
नवयौवना
सुबह को दिखलाता है
तो सुबह शर्म से लाल होकर
उसके मोहपाश में बँधी
खिंचती चली जाती है
और दोनों के प्राण
एक दूसरे में मिल जाते हैं
इस मिलन से सृष्टि होती है दिन की
दिन के प्रकाश से ही धरती पर जीवन चलता है
और इस तरह
सृष्टि के कण कण में
सूर्य और सुबह के
अमर प्रेम की ऊर्जा से
जीवन पलता है।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

सुहाग की निशानियाँ

सुहाग की निशानियाँ
याद दिलाती रहतीं हैं
नववधू को उसके पति की,
इन निशानियों को उसे हमेशा पहनना पड़ता है
धीरे धीरे वो इन निशानियों की आदी हो जाती है
और उसे ध्यान भी नहीं रहता
कि उसने ये निशानियाँ भी पहनी हुई हैं;

एक दिन अचानक जब उसका सुहाग
परलोक सिधार जाता है
तब उसे वो सारी निशानियाँ उतारनी पड़ती हैं
ताकि उनकी अनुपस्थिति उसे पति की याद दिलाती रहे
मरते दम तक;

पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है,
वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज,
वाह!

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

इक कमल था

इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

लाख आईं तितलियाँ
ले पर रँगीले
कई आये भौंर
कर गुंजन सजीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा,
साथ उसने
पंक का ही था दिया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

कीच की सेवा
थी उसकी बंदगी
कीच की खुशियाँ
थीं उसकी जिंदगी
कीच के दुख दर्द में वह संग खड़ा
कीच के उत्थान की ही जंग लड़ा
कीच में ही
सकल जीवन कट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

एक दिन था
जब कमल मुरझा गया
कीच ने
बाँहों में तब उसको लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र
कीच सारा
कमल ही से पट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बैकुंठवासी श्याम!

उतर आओ फिर धरा पर, छोड़ कर आराम
बैकुंठवासी श्याम!

अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खाते,
झूठ के दम पर युधिष्टिर अब यहाँ हैं राज्य पाते;
गर्भ में ही मार देते कंस नन्हीं देवियों को,
और अर्जुन से सखा अब कहाँ मिलते हैं किसी को;
प्रेम का बहुरूप धरके,
आगया है काम

देवता डरने लगे हैं देख मानव भक्ति भगवन,
कर्म कोई और करता फल भुगतता दूसरा जन;
योग सस्ता होके अब बाजार में बिकने लगा है,
ज्ञान सारा देह के सुख को बढ़ाने में लगा है;
नये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम

कौरवों और पांडवों के स्वार्थरत गठबन्धनों से,
हस्तिनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त फिर से;
द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा हर इक गली में,
धरके लाखों रूप आना ही पड़ेगा इस सदी में;
बोझ कलियुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच थाम

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अन्धविश्वास

अन्धविश्वास का पिता है,
डर;

डर की जनक हैं
सृष्टि में फैली
अनिश्चितताएँ;

अनिश्चितताओं का जन्मदाता है
ईश्वर;

इस तरह
यह सिद्ध होता है कि
ईश्वर
अन्धविश्वास का
प्रपितामह है।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

गजल : क्यूँ है

बेवफा मेरे ही दिल में ये तेरा घर क्यूँ है
जी रहा आज भी आशिक वहीं मर मर क्यूँ है।

वो नहीं जानती रोजा न ही कलमा न नमाँ
ये बता फिर उसी चौखट पे तेरा दर क्यूँ है।

जानते हैं सभी बस प्रेम में बसता है तू
फिर जमीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है।

तू नहीं साँप न ही साँप का बच्चा है तो
तेरी हर बात में फिर ज़हर सा असर क्य़ूँ है।

एक चट्टान के टुकड़े हैं ये सारे ‘सज्जन’
तब इक कंकड़ इक पत्थर इक शंकर क्यूँ है।

रोज लिख देते हैं हम प्यार पे ग़ज़लें कितनी
हर तरफ़ फिर भी ये नफ़रत का ही मंजर क्यूँ है।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

पानी

पानी ने जबसे उसके तन को छुआ है,
तब से पानी बौराया हुआ है,
भागता ही रहा है
दौड़ता ही रहा है
नाली, नाले, नदी, सागर, आसमान, जमीन
और जाने कहाँ कहाँ जा जाकर
उस मादक स्पर्श को
ढूँढता ही फिर रहा है;

बेचारे पानी को क्या पता
ऐसा पागल कर देने वाला स्पर्श
कभी कभी ही मिलता है जिंदगी में
और वो भी बड़ी किस्मत से,
उसके बाद
अस्तित्व रहने तक
तरह तरह के स्पर्शों में
उस स्पर्श को दुबारा पाने की,
लालसा ही रह जाती है बस।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

घास

घास कहीं भी उग आती है
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;

घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;

जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए;
उस दिन पता चलेगा सबको घास का महत्व
उसी दिन बदलेगी लोगों की सोच
और सदियों से चले आ रहे मुहावरे।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दीवारें

सब देखती और सुनती रहती हैं दीवारें
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;

पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

दुख

खुशी प्रकट करने के तो हजारों तरीके हैं
पर दुख प्रकट करने का बस एक ही तरीका है
और ये तरीका किसी को सिखाना नहीं पड़ता
सब जन्म से ही सीखकर आते हैं
आँसू बहाना
और ज्यादा दुख हो तो चिल्लाना
दुख में सारे इंसान एक जैसा ही व्यवहार करते हैं
दुख सारे इंसानों को एक सूत्र में बाँधता है
रिश्तेदारों को करीब लाता है
जिंदगी में कभी ना कभी
दुख झेलना बड़ा जरूरी है
तभी इंसान दूसरों को इंसान समझता है
और जो लोग अपनो के दुख में खुश होते हैं
वो इंसान नहीं होते
और उनके कभी इंसान बनने की
संभावना भी नहीं होती।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ

कभी-कभी मेरा दिल करता है
ईश्वर के लम्बे-लम्बे बालों को पकड़कर
उसके थोबड़े को सामने लाकर
घूँसे मार मार कर
ईश्वर का थोबड़ा बिगाड़ दूँ
उसके दाँत तोड़ दूँ
उसका सर पकड़कर
दीवाल पर तब तक मारूँ
जब तक कि वह ये न कहे
कि “मुझसे गलती हो गई है
उसकी जान मैंने भूलवश ली है
मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था
मैं समय को फिर उसी बिन्दु पर ले आता हूँ
जहाँ मैंने उसकी जान ली थी
सब कुछ फिर से वैसा हो जाएगा
समय फिर वहीं से आगे बढ़ेगा
बस इस बार मैं उसकी जान नहीं लूँगा।”

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

भगवान के घर में भी लूट पाट है

भगवान के घर में भी लूट पाट है
अत्याचार है,
बुराइयाँ हैं,
बलात्कार है,
भ्रष्टाचार है,
और भगवान भी
इन्हें खत्म कर पाने में असमर्थ है
वरना क्या जरूरत है भगवान को
अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुलाने की
और बुरे लोगों को इस दुनिया में जिन्दा छोड़ने की।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा

न है वो चेहरा, न ही जुल्फें, न पलकें, न अदा,
आजकल एक जैसे रातोदिन, बातोसदा।

कसाई भी हुआ है आज बेईमान बड़ा,
बिका है कोई, बँधा कोई, सर से कोई जुदा।

लगी थी भीड़ वहाँ अंधे, बहरे, गूँगों की,
न जाने कौन गिरा, कौन बचा, कौन लदा।

देर है मौके की, माहौल और कीमत की,
‘बिकाऊ है’ ये हर इक ईंशाँ के ईमाँ पे गुदा।

नहीं कुचल के गरीबों को कौन आगे बढ़ा,
वो तुम हो, या के मैं हूँ, या के वो है, या के ख़ुदा।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

कर

आयकर, गृहकर, सम्पत्तिकर, बिक्रीकर,
जलकर,
कितने गिनाऊँ?
कितने सारे रूपये,
कर के रूप में,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार,
पर होता क्या है इन रूपयों का,
खेल के मैदानों में कुछ कुर्सियाँ और लग जाती हैं,
सरकारी दफ़्तरों का पुनर्निमाण हो जाता है,
राज्यमार्ग और चौड़े हो जाते हैं,
सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्धि हो जाती है,
बड़े लोगों के स्विस बैंक खातों में
थोड़ा धन और बढ़ जाता है;
एक चक्र है ये,
जिसमें अमीरों से पैसा लिया जाता है,
और अमीरों को और सुविधाएँ देने में,
खर्च कर दिया जाता है;

गरीबों के लिए,
विदेशों से गेंहू मँगाया जाता है,
जो गोदामों में ही सड़ जाता है;
ईंटों की अस्थायी सड़कें बनाई जाती हैं,
जो बारिश में टूटकर बह जाती हैं;
चापाकल लगाये जाते हैं,
जो गर्मियों में सूख जाते हैं;
जो बचता है,
वो अधिकारियों के,
सफ़ेद और काले भत्तों में खप जाता है;

सरकार अमीरों से धन वसूल तो सकती है,
पर उसे गरीबों तक पहुँचा नहीं सकती;
अब ऐसे में क्या रास्ता बचता है,
बेचारे गरीब के पास?
यही ना कि वो सीधे अमीरों के पास जाए,
और उनसे उनका धन छीन ले;

सबकुछ आइने की तरह साफ है,
फिर भी लोग आश्चर्य करते रहते हैं,
अपराध के बढ़ने पर,
विद्रोह के बढ़ने पर,
राजद्रोह के बढ़ने पर।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

दोस्ती और प्यार

दोस्ती एक कविता है,
एक सुंदर सी कविता,
क्योंकि इसमें शब्द अपना वो अर्थ नहीं रखते,
जो शब्द कोश में होते हैं;
शब्दों का अर्थ उनमें अन्तर्निहित
भावों से समझा जाता है,
जैसे गाली प्यार को व्यक्त करती है,
अनौपचारिकता सम्मान का प्रतीक होती है,
गुस्सा अपनापन दर्शाता है;

और प्यार,
प्यार तो अनकही कविता है,
जहाँ आँखों से ही सब कुछ कह दिया जाता है,
और समझ लिया जाता है;
जहाँ इशारों ही इशारों में,
दिल का हाल बयाँ हो जाता है;

आजकल दोस्ती तो वैसी ही है,
मगर प्यार थोड़ा बदल गया है,
जब तक बार बार व्यक्त ना किया जाय,
लिख लिख कर बताया ना जाय,
लोग प्यार का विश्वास ही नहीं करते,
मुझे समझ नहीं आता,
कि बार बार लिखकर,
या कहकर,
हम अपने प्यार की सत्यता का यकीन,
आखिर दिलाते किसको हैं,
दूसरों को,
या फिर खुद को ही।

रविवार, 5 सितंबर 2010

मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी

मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी।

मेरे लिए तो तुम्हीं इस अनन्त ब्रह्मांड का केन्द्र हो,
तुमसे ही मेरे ब्रह्मांड ने जन्म लिया है,
और तुम्हीं इसको हर पल विस्तृत कर रही हो,
एक दिन ये समाप्त हो जाएगा,
तुम्हारे साथ ही।

कितनी सारी खुशियाँ दी हैं तुमने मुझे,
तारों की तरह टिमटिमाती हुई,
और वो अपना नन्हा सूर्य,
जो हमारे इस ब्रह्मांड को रोशनी से भर रहा है,
काश! तुम मेरी कल्पनाओं को देख सकतीं।

मैं कितना भी तेज भागूँ,
तुम्हारे चारों ओर ही घूमता रहूँगा,
मैं तुमसे दूर कैसे जा सकता हूँ,
तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण ने मुझे बाँध रक्खा है,
मैं अपनी सारी ऊर्जा प्राप्त करता हूँ तुमसे ही।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

भूख

न जाने भूख क्यों बनाई ईश्वर ने?
और पेट क्यों दिया इंसान को?

क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;

अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;

मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;

गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

गूलर की लकड़ी

गूलर की लकड़ी,
कुँआ खोदते वक्त सबसे पहले,
तली में लगाई जाती है,
जिसके ऊपर ईंटों की चिनाई की जाती है,
उस पर जैसे जैसे ईंटों की बोझ बढ़ता जाता है,
और बीच में से मिट्टी निकाली जाती है,
वह धँसती जाती है,
नीचे और नीचे;

गूलर की लकड़ी सैकडों सालों तक,
दबी रहती है मिट्टी के नीचे,
सबसे नीचे,
सारी ईंटों का बोझ थामे,
सब सहते हुए,
फिर भी गलती नहीं,
सड़ती नहीं;

इसके बदले उस लकड़ी को,
न कोई पुरस्कार मिलता है,
न कोई सम्मान,
पर उसको इस पुरस्कार,
या मान-सम्मान से क्या काम?

जब कोई थका हारा,
प्यास का मारा मुसाफिर,
उस राह से गुजरता है,
और एक लोटा पानी पीकर कहता है,
आज इस कुँए के पानी ने मेरी जान बचा ली,
वरना मैं प्यास से मर जाता,
तो उस लकड़ी को लगता है,
उसके सारे कष्ट,
उसका सारा श्रम,
सफल हो गया;
उसके लिए एक थके हुए पथिक की,
तृप्ति भरी साँस ही,
मान है,
सम्मान है,
पुरस्कार है,
संतुष्टि है,
स्वर्ग है।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कविता

सड़क पर वाहनों की खिड़की के बाहर,
मेरे साथ साथ चलती है,
कविता;

रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर,
हरे भरे खेतों के ऊपर,
मेरे साथ भागती है,
कविता;

बोरियत भरी मीटिंगों में,
मेरे मन में गूँजती रहती है,
कविता;

अकेले में अक्सर,
मुझसे बातें करती है,
कविता;

मेरी आत्मा में,
धीरे धीरे घुल रही है,
कविता;

अब मुझे कोई चिन्ता नहीं,
धर्म-अधर्म,
पाप-पूण्य,
स्वर्ग-नर्क की,
क्योंकि मैं कहीं भी जाऊँ,
हमेशा मेरे साथ रहेगी,
कविता।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

पारदर्शी आत्मा

जब मैं समाज में आता हूँ,
तो अपनी आत्मा पर,
वह शरीर प्रक्षेपित कर लेता हूँ,
जिसमें तुम्हारा कोई अंश नहीं होता;
और लोग कहते हैं मैं इतना खुश कैसे रह लेता हूँ,
इस तनाव भरी जिन्दगी में;

क्या करूँ?
मैं लोगों को अपनी आत्मा नहीं दिखा सकता,
क्योंकि मेरी आत्मा,
तुम्हारी निश्छल आत्मा में घुलकर,
पारदर्शी हो गई है,
और समाज में अभी इतनी साहस नहीं आया है,
कि वह पारदर्शी आत्माओं के पार का सच सह सके।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

धरती माँ

धरती के अन्तर में हर क्षण,
दौड़ता रहता है,
पिघला हुआ लावा,
दहकता हुआ लोहा,
जो करता है,
एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण,
धरती के चारों ओर,
और यही चुम्बकीय क्षेत्र,
घातक सौर विस्फोटों से,
रक्षा करता है हमारी;

धरती माँ ने आदि काल से ही,
बड़े कष्ट झेले हैं हमारे लिए,
लगातार जलाती रही है,
अपना दिल हमारे लिए;

हम से तो माँ को ये उम्मीद थी,
कि हम अपनी रक्षा खुद करना सीख लेंगे,
अपने लिए सुरक्षा कवच खुद बना लेंगे,
और माँ बुझा सकेगी अपने दिल की आग;

मगर हमने तो आजतक,
केवल सुरक्षा कवचों को तोड़ा है,
और बढ़ाते ही गए हैं,
धरती के दिल में पिघला हुआ लावा,
न जाने कब तक सह पाएगा,
धरती का अन्तर,
इस लावे की गर्मी को;
न जाने कब तक....।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

मेढ़क

मेढ़क को अगर,
उबलते हुए पानी में डाल दिया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है;

मगर यदि उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गर्म हो रहे पानी में,
तो उसका दिमाग,
उस गर्मी को सह लेता है,
और मेढ़क उबल कर मर जाता है;

छात्रों को मेढ़क काटकर,
उसके अंगों की संचरना तो समझाई जाती है,
पर उसके खून का यह गुण,
पूरी तरह गुप्त रखा जाता है,
हमारी सरकार द्वारा;

तभी तो हमारा सरकारी तंत्र,
युवा आत्माओं को,
भ्रष्टाचार की धीमी आँच से,
उबालकर मारने में,
इतना सफल है;

कुछेक खुशकिस्मत आत्माएँ ही,
इस साजिश को समझ पाती हैं,
और इससे लड़ने की कोशिश करती हैं,
पर इस गर्म हो रहे पानी से,
लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं होता,
इस पर लगे घाव,
पल भर में भर जाते हैं,
और लड़ने वाले आखिर में,
थक कर डूब जाते हैं,
और खत्म हो जाते हैं;

एकाध आत्मा ही,
छलाँग लगाकर,
इससे बाहर निकल पाती है;
नहीं तो आप ही बताइये,
इस देश में किरन बेदी जैसी,
और आत्माएँ क्यों नहीं हैं?

सोमवार, 16 अगस्त 2010

पाप - पुण्य

गंगा नदी के किनारे खड़े होकर,
एक बुढ़िया ने एक रूपये का सिक्का,
नदी में उछाला,
उसके विश्वासों के अनुसार,
उसने गंगा की गोद में पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले वक्त में मिलेगा,
एक रूपये के बदले ढेर सारे रूपये मिलेंगे।

वह सिक्का नदी में गिरते पाकर,
एक लड़का उसे निकालने नदी में कूदा,
लड़के के लिए यह रोजमर्रा का काम था,
ऐसे ही उसकी जीविका चलती थी,
सिक्के निकालकर,
पर इस बार उसने डुबकी लगाई,
तो वो बाहर नहीं आया।

बेचारी बुढ़िया,
अब यह समझ ही नहीं पा रही थी,
कि उसने पूण्य किया,
या लड़के की मौत का कारण बनकर,
पाप किया;
वह खुद को कोस रही थी,
कि उसने सिक्का इतनी जोर से क्यों फेंका,
किनारे ही फेंक देती;
अब न जाने भविष्य में उसे,
पूण्य का फल मिलेगा,
या पाप का दण्ड।

रविवार, 15 अगस्त 2010

अधूरी कविता

डायरी के पन्नों में पड़ी एक अधूरी कविता,
अक्सर पूछती है मुझसे,
मुझे कब पूरा करोगे?

कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल देखकर डर जाता हूँ,
अगर मैं इस कविता को पूरी कर दूँगा,
तो लोग इसे फाँसी पर लटका देंगे;

ये अधूरी कविता,
मेरी डायरी में ही पड़ी रहे तो अच्छा है,
मेरी डायरी में घुट घुट कर ही सही,
कम से कम अपनी जिंदगी तो जी लेगी,
और मैं पूरी करने के बहाने,
कभी कभी इसे देख लिया करूँगा,
जी भर कर।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

चिम्पांजी

चिम्पांजी जैसे जैसे विकसित होता गया,
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।

आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

भूकम्प आने ही वाला है

बढ़ता ही जा रहा है,
अच्छाई पर बुराई का दबाव,
इकट्ठी होती जा रही है,
दबे हुए,
कुचले हुए लोगों में,
दबाव की ऊर्जा,
एक दूसरे में धँसी जा रही हैं,
भूख और पिछड़ेपन की चट्टानें,
भूकम्प आने ही वाला है,
और बदलने ही वाली है,
धरती की तस्वीर,
और मेरे भारत की तकदीर।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसके साथ साथ मैं भी नौ दिन का नवरात्री व्रत रखता,
उसे साथ लेकर मैं सुबह-सवेरे मन्दिर जाया करता,
कितना धार्मिक होता मैं भी कहीं वो मेरे साथ जो होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

घर के कामों मैं साँझ-सवेरे उसका हाथ बँटाता,
थक जाती गर वो फिरतो मैं उसके सर और पाँव दबाता,
लोरी गाकर उसे सुलाता नींद नहीं यदि उसको आती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

जग की सारी सुन्दिरयों को मैं अपनी माँ बहन समझता,
उसको छोड़ किसी को मैं सपनों में भी न देखा करता,
इन्द्रासन हिल जाता इतनी कठिन तपस्या मेरी होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसकी छोटी से छोटी ख्वाहिश यारों मैं पूरी करता,
जग की सारी सुख-सुविधायें मैं उसके कदमों में रखता,
चाँद-सितारे लाकर देता एक बार जो वो कह देती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

रविवार, 8 अगस्त 2010

सपने

कुछ सपने दूर से कितने अच्छे लगते हैं,
भोले-भाले, प्यारे से, आदर्शवादी सपने;

पर अक्सर पूरा होते होते,
वो न तो भोले-भाले रह जाते हैं,
न प्यारे,
और आदर्शवाद का तो पूछिये ही मत;

ऐसे सपनों के टूट जाने पर उतना दुख नहीं होता,
जितना अंतरात्मा को,
अक्सर उनके पूरे होने पर होता है;

भगवान करे,
किसी के भी,
ऐसे सपने कभी पूरे ना हों,
कभी पूरे ना हों।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कुत्ते की मौत

एक दिन मैंने देखा,
सड़क पर जाता,
लँगड़ाता,
एक कुत्ता,
एक ट्रक तेजी से आता हुआ और,
एक हृदयविदारक चीख,
गूँजती हुई सारे वातावरण में,
मांस के कुछ लोथड़े,
सने हुए रक्त में,
बिखर गए सड़क पर;

आज, लगभग वही दृश्य,
एक नेत्रहीन धीरे-धीरे चलता हुआ,
सड़क पर,
पुकारता हुआ,
“कोई मुझे सड़क पार दो, भाई”
मैं था थोड़ी दूरी पर खड़ा,
सोचा मदद कर दूँ,
तभी मस्तिष्क से आवाज आई,
इतनी दूर क्या जाना,
कोई आसपास का व्यक्ति मदद कर ही देगा,
या फिर वो अपने आप ही कर जाएगा सड़क पार,
तभी दिखाई पड़ी तेजी से आती हुई एक कार,
एक झटके से गूँजी ब्रेकों की चरमराहट,
पर तब तक हो चुकी थी,
एक लोमहर्षक टक्कर,
खून के कुछ छींटे पड़े,
मेरे अन्तर्मन पर,
कई स्वर गूँजे एक साथ,
“पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो”
पर तब तक जा चुकी थी कार,
चारों तरफ थी बस आवाजों की बौछार,
“कैसा जमाना आ गया है”
“कोई देखकर नहीं चल सकता”
“आंखें बन्द करके चलाते हैं वाहन”;

मैं सोच रहा था,
कौन है अंधा,
वो ड्राइवर,
ये दो आंखों वाले,
वो बिन आंखों वाला,
या इन सबसे बढ़कर मैं स्वयं,
जिसने न सिर्फ देखा,
वरन महसूस भी किया,
मगर फिर भी,
नहीं किया कुछ भी,
मेरे अन्तर्मन पर पड़े हुए छींटे खून के,
कुछ पूछ रहे थे मुझसे,
और मेरे पास नहीं था कोई उत्तर,
मैं समझ नहीं पा रहा था,
कौन मरा है कुत्ते की मौत?
वह कुत्ता,
वह अन्धा,
लोगों की मानवता,
या फिर मेरे भीतर ही कहीं कुछ।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

थोड़ी देर के लिए

मेरी जिन्दगी की सारी व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो, थोड़ी देर के लिए,
थोड़े देर अकेले में बैठकर,
मैं उसे याद करना चाहता हूँ,
उसे, उसकी बातों को,
उसके नखरों को, उसकी अदाओं को,
उसकी खुशबू को, उसके भोलेपन को,
उसकी नासमझियों को, उसकी हँसी को,
उसकी उस कातिल मुस्कान को, उसके प्यार को,
उसके आँसुओं को, उसकी तड़प को,
एक क्षण उसके साथ बिताकर मैं,
जैसे सैकड़ों साल जी लेता था,
उसके प्यार की एक बूँद पीकर,
जैसे कई बोतलें पी लेता था,
अब मैं जी कहाँ रहा हूँ,
अब तो ढो रहा हूँ,
जिन्दगी का बोझ,
तय कर रहा हूँ,
जिन्दगी और मौत के बीच का वीरान सफर,
खींच रहा हूँ, जिंदगी की गाड़ी,
मौत की तरफ,
मैं जिन्दा तभी तक हूँ, जब तक मैं व्यस्त हूँ,
पर कभी तो ओ मेरी जिन्दगी की व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो,
थोड़ी देर के लिए।

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

सोजा मेरे सपने

सोजा मेरे सपने।

नई दुनियाँ, जमीं नई, सब खोज लीं गईं,
तू उनमें खोज दुनिया जो हैं तेरे अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू उड़ा दूर दूर, है थक के हुआ चूर,
आ बैठ आके तू, अब पिंजरे में अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू जानता नहीं, इस जमीं की नमीं,
संसार समेटे खुद में जाने कितने;
सोजा मेरे सपने।

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा|

गन्धित बदन तुम्हारा जिसके छंदों में,
बँधा पड़ा हो मन्मथ जिसके बंदों में,
जिसके शब्दों में संसार हमारा हो,
भावों में जिसके बस प्यार तुम्हारा हो,
लिखकर जिसको दीवाना हो जाऊँगा।

जिसको पढ़ कर लगे छुआ तुमने मुझको,
जिसको सुनकर लगे तुम्हीं मेरी रब हो;
छूकर तेरे गम जो पल में पिघला दे,
मेरी आँखों में तेरा आँसू ला दे;
जिसको गाकर मैं तुममें घुल जाऊँगा।

सोमवार, 2 अगस्त 2010

लाश तैरती रहती है

अपने जीवन में,
कितने बोझ ढोता रहता है आदमी,
माता पिता के सपनों का बोझ;
समाज की अपेक्षाओं का बोझ;
पत्नी की इच्छाओं का बोझ;
बच्चों के भविष्य का बोझ;
व्यवसाय या नौकरी में,
आगे बढ़ने का बोझ;
अपनी अतृप्त इच्छाओं का बोझ;
अपने घुट-घुटकर मरते हुए सपनों का बोझ;
कितने गिनाऊँ,
हजारों हैं,
और इन सब से मुक्ति मिलती है,
मरने के बाद;

शायद इसीलिए जिन्दा आदमी पानी में डूब जाता है,
मगर उसकी लाश तैरती रहती है।

रविवार, 1 अगस्त 2010

गीत विद्रोही

गीत विद्रोही, जाग! जाग!

सो गई क्रान्ति जन-गण-मन की,
जा सियासतों के किसी गाँव,
है सूख गई सच्चाई, पाकर
सुविधाओं की घनी छाँव,
उठ, बन चिंगारी, सच के
सूखे पत्तों में तू लगा आग।

सब देश प्रेम के गीत खो
गए हैं पश्चिम की आँधी में,
मर गये सभी आदर्श, कभी
जो थे पटेल में, गाँधी में,
उठ, बन कर दीपक राग, आज
सब के दिल में फिर जगा आग।

है आज जमा स्विस बैंकों में,
भारतीय किसानों का सब धन,
इन धन के ढेरों पर बैठे
इस देश-जाति के कुछ रावन,
उठ, बन कर अब तू पवनपुत्र
इनकी लंका में लगा आग।

सड़ गई, गल गई, राजनीति,
फँसकर सत्ता के फंदों में,
इस कीच-ताल का हाल नहीं
लिख पाऊँगा मैं छन्दों में,
उठ, बन कर सूरज आज नया,
तू सुखा कीच, फिर जगा आग।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर

गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर,
ऐसा कुछ हो गया, तब से सो न सका।

उसकी बातें कभी, उसकी साँसें कभी,
आसमाँ में उमड़ती-घुमड़ती रहीं,
उसकी यादों की बरसात में भीगकर,
आँखें नम तो हुईं पर मैं रो ना सका।

रातें घुटनों के बल पर घिसटतीं रही,
नींद भी यूँ ही करवट बदलती रही,
तीर लगते रहे दर्द के जिस्म पर,
मैं तड़पता रहा, चीख पर ना सका।

मेरी साँसें तो रुक रुक के चलती रहीं,
दिल की धड़कन भी थम थम धड़कती रही,
कोशिशें की बहुत मैंने पर जाने क्यों,
मौत के मुँह में जाकर भी मर न सका।