शनिवार, 31 दिसंबर 2016

नवगीत : नव वर्ष ऐसा हो

है यही विनती प्रभो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो

ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से

खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो

कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो

साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो

सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ

चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

बह्र : 2122 1122 1122 22

दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए

अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए

आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए

दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला जाए

दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाये

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे

बह्र : 1212 1122 1212 22

प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे

गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे

वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे

न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे

जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे

वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे

रविवार, 4 दिसंबर 2016

ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

बह्र : 2122 2122 2122 212

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में
प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे
वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ
पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में

काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ
आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में

सोमवार, 28 नवंबर 2016

ग़ज़ल : उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।

शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।

वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।

समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।

जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।

न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही साबित हुआ, तो।

बुधवार, 9 नवंबर 2016

कविता : हम ग्यारह हैं

हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये

दस बड़ी अजीब संख्या है

ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो

मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो

हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

एल ई डी की क़तारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं

दुआ सब ने चराग़ों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं

रखो श्रद्धा न देखो कुछ न पूछो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं

अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं

उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं

करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं

न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

नवगीत : मन का ज्योति पर्व

अंधकार भारी पड़ता जब
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है

हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में

इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है

ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं

अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है

मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे

सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

लघुकथा : जनकवि

झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”

कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”

झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है

देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है

अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

आज नेता भी बन गया ‘सज्जन’
कुछ न करने का ये नतीज़ा है

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे

डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे

सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे

ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे

सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं

शनिवार, 17 सितंबर 2016

ग़ज़ल : रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ

बह्र : २१२२ २१२२ २१२

रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ

गुनगुनाता है चमन इनके किये
फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ

पंख देखे, रंग देखे, और? बस!
आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ

दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए
आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ

बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए
रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

ग़ज़ल : कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना

बह्र : 2122 2122 2122 212

कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना

स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ
और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना

हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं
इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना

ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है
याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना

प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच में
जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना

शनिवार, 10 सितंबर 2016

ग़ज़ल : धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो

आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो

जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक
आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो

वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो

खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे
बालने सब आज धागे रेशमी, जाता है वो

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

ग़ज़ल : ऐसा फल अच्छा होता है

बह्र : २२ २२ २२ २२

सब खाते हैं इक बोता है
ऐसा फल अच्छा होता है

पूँजीपतियों के पापों को
कोई तो छुपकर धोता है

इक दुनिया अलग दिखी उसको
जिसने भी मारा गोता है

हर खेत सुनहरे सपनों का
झूठे वादों ने जोता है

महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है

मेरे दिल का बच्चा जाकर
यादों की छत पर सोता है

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’
सच्चा तो केवल तोता है

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

ग़ज़ल : आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

बह्र : 212 1222 212 1222

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै

शनिवार, 13 अगस्त 2016

नवगीत : सब में मिट्टी है भारत की

किसको पूजूँ

किसको छोड़ूँ

सब में मिट्टी है भारत की


पीली सरसों या घास हरी

झरबेर, धतूरा, नागफनी

गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची

है फूलों में, काँटों में भी


सब ईंटें एक इमारत की


भाले, बंदूकें, तलवारें

गर इसमें उगतीं ललकारें

हल बैल उगलती यही जमीं

गाँधी, गौतम भी हुए यहीं


बाकी सब बात शरारत की


इस मिट्टी के ऐसे पुतले

जो इस मिट्टी के नहीं हुए

उनसे मिट्टी वापस ले लो

पर ऐसे सब पर मत डालो


अपनी ये नज़र हिकारत की

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

ग़ज़ल : तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

बह्र : 22 22 22 22 22 22

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

सिक्का यदि बढ़वाना चाहे अपनी कीमत
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम

शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं
टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम

बुधवार, 20 जुलाई 2016

ग़ज़ल : सब आहिस्ता सीखोगे

जल्दी में क्या सीखोगे
सब आहिस्ता सीखोगे

इक पहलू ही गर देखा
तुम बस आधा सीखोगे

सबसे हार रहे हो तुम
सबसे ज़्यादा सीखोगे

सबसे ऊँचा, होता है,
सबसे ठंडा, सीखोगे

सूरज के बेटे हो तुम
सब कुछ काला सीखोगे

सीखोगे जो ख़ुद पढ़कर
सबसे अच्छा सीखोगे

पहले प्यार का पहला ख़त
पुर्ज़ा पुर्ज़ा सीखोगे

ख़ुद को पढ़ लोगे जिस दिन
सारी दुनिया सीखोगे

हाकिम बनते ही ‘सज्जन’
सब कुछ खाना सीखोगे

सोमवार, 18 जुलाई 2016

कविता : तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी

तुम मुझसे मिलने जरूर आओगी
जैसे धरती से मिलने आती है बारिश
जैसे सागर से मिलने आती है नदी

मिलकर मुझमें खो जाओगी
जैसे धरती में खो जाती है बारिश
जैसे सागर में खो जाती है नदी

मैं हमेशा अपनी बाहें फैलाये तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा
जैसे धरती करती है बारिश की
जैसे सागर करता है नदी की

तुमको मेरे पास आने से
कोई ताकत नहीं रोक पाएगी
जैसे अपनी तमाम ताकत और कोशिशों के बावज़ूद
सूरज नहीं रोक पाता अपनी किरणों को