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बुधवार, 4 नवंबर 2009

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जीवन में पहली बार किया, जब उससे मैंने प्यार किया,

जग बोला है ये प्यार नहीं, है नासमझी ये बचपन की,

मेरे उन कोमल भावों को, उन भोली-मीठी आहों को,

यूँ बेदर्दी से कुचल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

उसका दिल तोड़ बना निदर्यी, जग बोला यार है यही सही,

जिसमें हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर यार वही,

मेरे पापों को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर,

जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जग कहता अब इससे प्यार करो, इस पर जीवन न्यौछार करो,

मेरे भीतर का प्रेम कुचल, और वहीं चला नफरत का हल,

हैं बीज घृणा के जब बोये, किस तरह प्रेम पैदा होये?

अब कहता सारा जग मुझसे,

तू कभी न यार समझ पाया,

तू कभी न प्यार समझ पाया।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

सहयात्री मिल जाते

सहयात्री मिल जाते!

 

इस जीवन यात्रा के क्षण दो-

क्षण तो मधुरिम हो जाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

कुछ समीप की कुछ सुदूर-

की हो जातीं कुछ बातें;

सहयात्री मिल जाते!

 

वो कुछ कहते, हम कुछ-

कहते, हँसते और हँसाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

क्षण भर के ही पर कुछ-

बन्धन औरों से बँध जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

कुछ पल उड़ते पंख

लगाकर यूँ ही आते-जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

इस लम्बी यात्रा के कुछ-

क्षण स्मृतियों में बस जाते;

सहयात्री मिल जाते।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

देवी तुम जाओ मन्दिर में

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे घर में क्यों आओगी?

मुझ गरीब से क्या पाओगी?

धूप, द्वीप, नैवेद्य, फूल, फल,

स्वर्ण-मुकुट, पावन-गंगाजल,

पीताम्बर औ’ वस्त्र रेशमी,

मेरे पास नहीं ये कुछ भी,

कैसे रह पाओगी सोंचो, तुम मेरे छोटे से घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे श्रद्धा सुमनों में देवि,
है रंग नहीं,
है गंध नहीं,

है गागर प्रेम भरी उर में,

पर बुझा सकेगी प्यास नहीं,

हैं पूजा के स्वर आँखों में,

पर है उनमें आवाज नहीं,

कैसे पढ़ पाओगी भावों को, उठते जो मेरे उर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

तुमको भाती है उपासना,

लोगों का कातर हो कहना,

"देवी ये मुझको दे देना,

देवी उससे वो ले लेना,

देवी इसको अच्छा करना,

उससे मेरी रक्षा करना,"

कैसे मांगोगी तुम मुझसे, छोटी छोटी चीजें घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

तब याद बहुत तू आती है

तब याद बहुत तू आती है।

 

जब किसी पुरानी पुस्तक में, कुछ खोज रहा होता हूँ मैं,

और यूँ ही तभी अचानक मुझको, उस पुस्तक के पन्नों में,

सूखी पंखुडि़याँ गुलाब के फूलों की रक्खी मिल जाती हैं;

तब याद बहुत तू आती है।

 

सावन के मस्त महीने में, जब हरियाली छा जाती है,

झूले पड़ जाने से जब पेड़ों की डाली लहराती है,

उन झूलों पर बैठी कोई लड़की कजरी जब गाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

वह नन्हा-मुन्हा कमरा जिसमें हम-तुम बैठा करते थे,

गुडड़े-गुडि़या, राजा-रानी, जब हम-तुम खेला करते थे,

उस कमरे को तुड़वाने की माँ जब भी बात चलाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

एमए, एमबीए, एमसीए और ये तो एमबीबीएस है,

ये लडकी वैसे अच्छी है, पर अब भी लगती बच्ची है,

ऐसा कहकर मम्मी मेरी, जब-जब भी मुझे चिढ़ाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

अक्सर गर्मी की छुट्टी में, जब गाँव चला मैं जाता हूँ,

और कटे हुए गेहूँ के खेतों मैं खुद को पाता हूँ,

रस्ते पर जाती जब कोई अल्हड़ लड़की दिख जाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

भगवान बन गया मैं देखो

भगवान बन गया मैं देखो।

 

निदोर्षों की चीत्कारों से, हिलतीं मन्दिर की दीवारें,

कितनी अबलाओं की लज्जा, लुटती देखो मेरे द्वारे,

पर मुझको क्या मतलब इससे,

मेरे आँख कान सब पत्थर के,

इन्सान नहीं अब हूँ मैं तो,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

हिन्दू हों या मुस्लिम या सिख, डरते हैं मुझसे यार सभी,

मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में झुकते हैं कितनी बार सभी,

हैं काँप रहे सब ही थर-थर,

करते जय-जय मेरी डरकर,

जब चाहूँ खत्म करूँ इनको,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

इन्सानों का जीवन-तन-मन, ये इनके भावुक आकर्षण,

इनके रिश्ते, नाते, अस्मत और कहते ये जिसको किस्मत,

ये प्यार मोहोब्बत इनके रे,

सब खेल-खिलौने हैं मेरे,

जैसे चाहूँ तोडूँ इनको,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

मेरी मर्जी अकाल ला दूँ, या बाढ़ जमीं पर फैला दूँ,

जब चाहूँ इन धमार्न्धों में, धामिर्क दंगे मैं करवा दूँ,

करवा दूँ मैं कुछ भी इनमें,

मेरी ही जय बोलेंगे ये,

इस कदर डरा रक्खा सबको,

भगवान बन गया मैं देखो।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

मैंनें ईश्वर को मन्दिर में

मैंने ईश्वर को मंदिर में, बिलख-बिलख रोते देखा है।

 

पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित, ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे,

धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध औ’ चरणामृत का पान कर रहे,

इक छोटे काले पत्थर को, ईश्वर पर हँसते देखा है।

 

मंदिर के बाहर वट-नीचे, गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर,

उस ईश्वर के एक अंश को, क्षुधा-प्यास से व्याकुल होकर,

लोगों की फेंकी जूठन भी, बिन-बिन कर खाते देखा है।

 

दीवारों पर कबसे बैठीं, निर्धन-निर्बल की चाहों को,

पूरी कर देने की उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को,

जय-जय की पागल ध्वनियों में दब, घुटकर मरते देखा है।

 

स्वर्ग-नर्क की जंजीरों से, पाप-पूण्य की तस्वीरों में,

बुरी तरह से कैद हो गये, भोले ईश्वर के हाथों में,

विश्व-प्रेम के सूर्ख-जलज को, मैंने कुम्हलाते देखा है।

 

मन्दिर के ही एक अंधेरे, सीलन भरे, किसी कोने में,

नफरत-स्वार्थ और पापों के, भालों से छलनी सीने में-

से बहकर प्रभु-अमिय-रक्त को मिट्टी में मिलते देखा है।

 

तड़प रहे ईश्वर की चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर,

और राख में धर्म-जाति की घृणा-स्वार्थ का ज़हर मिलाकर,

कथित धर्मगुरुओं को फिर से, धर्म ग्रन्थ लिखते देखा है।


रविवार, 6 सितंबर 2009

सरस्वती वन्दना

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह मोहन राग सुनाओ, तन-मन सब की सुधि भूलूँ,

इस दुनिया से ऊपर उठ, कुछ देर हवा में झूलूँ,

हम-तुम-वह, सब मिट जाए, क्षण भर को वह स्वर गाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

है सदा विजय की चाहत, माँ बहुत बुरी है यह लत,

जब कभी हार जाता हूँ, हफ्तों ना मिलती राहत,

कुछ हार सहन करने की, भी शक्ति मुझे दे जाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह शक्ति मुझे दो अम्बे, संघर्ष सत्य जब जानूँ,

मंत्र-वेद-विधि-गुरु-ईश्वर, तक से भी हार न मानूँ

मैं सत्य-मार्ग ना छोडूँ, वह ज्ञान-ज्योति दिखलाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

इस स्वार्थ-घृणामय जग में, कुछ अमर प्रेम स्वर भर दो,

फिर प्रेम-मल्हार सुनाकर, नभ प्रेम-मेघमय कर दो,

जग प्रेम-प्लवित हो जाए, वह प्रेम-धार बरसाओ।

फिर वीणा मधुर बजाओ।