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सोमवार, 6 जुलाई 2015

नवगीत : नाच रहा पंखा

देखो कैसे
एक धुरी पर
नाच रहा पंखा

दिनोरात
चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक
नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे

फेंक रहा है
फर फर फर फर
छत की गर्म हवा

इस भीषण
गर्मी में करता
है केवल बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें

घर से बाहर
लू चलती है
जाएँ कहाँ  भला

लगा घूमने का
बचपन से ही
इसको चस्का
कोई आकर
चुपके से दे
बटन दबा इसका

व्यर्थ हो रही
बिजली की ये
है अंतिम इच्छा

शुक्रवार, 26 जून 2015

नवगीत : बूँद बूँद बरसो

बूँद बूँद बरसो
मत धार धार बरसो

करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी

जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो पर
कभी कभी मत बरसो
बार बार बरसो

गागर है
जीवन की
बूँद बूँद से भरती
बरसें गर
धाराएँ
टूट फूट कर बहती

जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर ढेर मत बरसो
सार सार बरसो

गुरुवार, 18 जून 2015

नवगीत : पत्थर-दिल पूँजी

पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर

कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा

अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर

मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता

उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर

छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा

रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर

बुधवार, 20 मई 2015

नवगीत : श्री कनेर का मन

नीलकंठ को अर्पित करते
बीत गया बचपन
तब जाना
है बड़ा विषैला
श्री कनेर का मन

अंग-अंग होता जहरीला
जड़ से पत्तों तक
केवल कोयल, बुलबुल, मैना
के ये हितचिंतक

जो मीठा बोलें
ये बख़्शें उनका ही जीवन

आस पास जब सभी दुखी हैं
सूरज के वारों से
विषधर जी विष चूस रहे हैं
लू के अंगारों से

छाती फटती है खेतों की
इन पर है सावन

अगर न चढ़ते देवों पर तो
नागफनी से ये भी
तड़ीपार होते समाज से
बनते मरुथल सेवी

धर्म ओढ़कर बने हुए हैं
सदियों से पावन

सोमवार, 18 मई 2015

नवगीत : सबको शीश झुकाता है

बहुत बड़ा
परिवार मिला
पर सबका साथ निभाता है
इसीलिए तो
बाँस-काफ़िला
आसमान तक जाता है

एक वर्ष में
लगें फूल या
साठ वर्ष के बाद लगें
जब भी
फूल लगें इसमें
सारे कुटुम्ब के साथ लगें

सबसे तेज़ उगो तुम
यह वर
धरती माँ से पाता है

झुग्गी, मंडप
इस पर टिकते
बने बाँसुरी, लाठी भी
कागज़, ईंधन
शहतीरें भी
डोली भी है अर्थी भी

सबसे इसकी
यारी है
ये काम सभी के आता है

घास भले है
लेकिन
ज़्यादातर वृक्षों से ऊँचा है
दुबला पतला है
पर लोहे से लोहा
ले सकता है

सीना ताने
खड़ा हुआ पर
सबको शीश झुकाता है

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

नवगीत : चंचल नदी बाँध के आगे

चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई

टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे

पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई

टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली

सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई

अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से
पूछ रही है
रुक जाए, बह ले

आजीवन फिर
उसी राह से
हो लाचार, गई

बुधवार, 28 जनवरी 2015

नवगीत : ब्राह्मणवाद हँसा

सुनकर मज़्लूमों की आहें
ब्राह्मणवाद हँसा

धर्म, वेद के गार्ड बिठाकर
जाति, गोत्र की जेल बनाई
चंद बुद्धिमानों से मिलकर
मज़्लूमों की रेल बनाई

गणित, योग, विज्ञान सभी में
जाकर धर्म घुसा

स्वर्ग-नर्क गढ़ दिये शून्य में
अतल, वितल, पाताल रच दिया
भाँति भाँति के तंत्र-मंत्र से
भरतखण्ड का भाल रच दिया

कवियों के कल्पित जालों में
मानव-मात्र फँसा

सत्ता का गुरु बनकर बैठा
पूँजी को निज दास बनाया
शक्ति जहाँ देखी
चरणों में गिरकर अपने साथ मिलाया

मानवता की साँसें फूलीं
फंदा और कसा

शनिवार, 9 अगस्त 2014

नवगीत : जैसे कोई नन्हा बच्चा छूता है पानी

मेरी नज़रें तुमको छूतीं
जैसे कोई नन्हा बच्चा
छूता है पानी

रंग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की
बूँदों का यौवन है

रूप नदी में छप छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी

पोथी पढ़कर सुख की दुख की
धीरे धीरे मन का बच्चा
ज्ञानी हो जाएगा
तन का आधे से भी ज्यादा
हिस्सा होता केवल पानी
तभी जान पाएगा

जीवन मरु में तुम्हें हमेशा
साथ रखेगा जब समझेगा
अपनी नादानी

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

नवगीत : आसमाँ अधेड़ हो गया

मेघ श्वेत श्याम कह रहे
आसमाँ
अधेड़ हो गया

कोशिशें हजार कीं मगर
रेत पर बरस नहीं सका
जब चली जिधर चली हवा
मेघ साथ ले गई सदा

बारहा यही हुआ मगर
इन्द्र ने
कभी न की दया

सागरों का दोष कुछ नहीं
वायु है गुलाम सूर्य की
स्वप्न ही रही समानता
उम्र बीतती चली गई

एक ही बचा है रास्ता
सूर्य
खोज लाइये नया

सोमवार, 23 जून 2014

प्रेमगीत : आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

पलकों ने चुम्बन के गीत सुने
आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने

साँसें यूँ साँसों से गले मिलीं
अंग अंग नस नस में डूब गया
हाथों ने हाथों से बातें की
और त्वचा ने सीखा शब्द नया

रोम रोम सिहरन के वस्त्र बुने

मेघों से बरस पड़ी मधु धारा
हवा मुई पी पीकर बहक गई
बाँसों के झुरमुट में चाँद फँसा
काँप काँप तारे गिर पड़े कई

रात नये सूरज की कथा गुने

बुधवार, 28 मई 2014

नवगीत : कब सीखा पीपल ने भेदभाव करना

धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?

फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ हों
या फिर जंगली बबूल

कब सीखा
चिन्ता के
पतझर में झरना

कीट, विहग, जीव-जन्तु
देशी-परदेशी
बुद्ध, विष्णु, भूत, प्रेत
देव या मवेशी

जाने ये
दुनिया में
सबके दुख हरना

जितना ऊँचा है ये
उतना विस्तार
दुनिया के बोधि वृक्ष
इसका परिवार

कालजयी
क्या जाने
मौसम से डरना

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

नवगीत : बस प्यार तुम्हारा

घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा
तन मन पर पहने
पड़े रहेंगे बंद कहीं पर
शादी के गहने

चिल्लाते हैं गाजे बाजे
चीख रहे हैं बम
जेनरेटर करता है बक बक
नाच रही है रम

गली मुहल्ले मजबूरी में
लगे शोर सहने

सब को खुश रखने की खातिर
नींद चैन त्यागे
देहरी, आँगन, छत, कमरे सब
लगातार जागे

कौन रुकेगा, दो दिन इनसे
सुख दुख की कहने

शालिग्राम जी सर पर बैठे
पैरों पड़ी महावर
दोनों ही उत्सव की शोभा
फिर क्यूँ इतना अंतर

मैं खुश हूँ, यूँ ही आँखो से
दर्द लगा बहने

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

नवगीत : टेसू के फूलों के भारी हैं पाँव


टेसू के फूलों के
भारी हैं पाँव

रूप दिया
प्रभु ने पर
गंध नहीं दी
पत्ते भी
छीन लिए
धूप ने सभी

सूरज अब मर्जी से
खेल रहा दाँव

मंदिर में
जगह नहीं
मस्जिद अनजान
घर बाहर
ग्राम नगर
करते अपमान

नहीं मिली छुपने को
पत्ती भर छाँव

रँग अपना
देने को
पिसते हैं रोज
फूलों सा
इनका मन
भूले सब लोग

जंगल की आग कहें
सभ्य शहर गाँव

सोमवार, 2 जुलाई 2012

नवगीत : नीम तले

नीम तले सब ताश खेलते
रोज सुबह से शाम
कई महीनों बाद मिला है
खेतों को आराम

फिर पत्तों के चक्रव्यूह में
धूप गई है हार
कुंद कर दिए वीर प्याज ने
लू के सब हथियार
ढाल पुदीने सँग बन बैठे
भुनकर कच्चे आम

छत पर जाकर रात सो गई
खुले रेशमी बाल
भोर हुई सूरज ने आकर
छुए गुलाबी गाल
बोली छत पर लाज न आती
तुमको बुद्धू राम

शहर गया है गाँव देखने
बड़े दिनों के बाद
समय पुराना नए वक्त से
मिला महीनों बाद
फिर से महक उठे आँगन में
रोटी बोटी जाम

शनिवार, 26 मई 2012

नवगीत (हास्य व्यंग्य) : ये टिपियाने की खुजली


ये टिपियाने की खुजली, ऐसे न मिटेगी, आ
मैं तेरी पीठ खुजाऊँ, तू मेरी पीठ खुजा

किसने भाषा को तोला, किसने भावों को नापा
कूड़ा कचरा जो पाया, झट इंटरनेट पर चाँपा
पढ़ने कुछ तो आएँगें
टिपियाकर भी जाएँगे
दुनिया को दुनियाभर के, दिनभर दुख दर्द सुना

पढ़ रोज सुबह का पेपर, फिर गढ़ इक छंद पुराना
बन छंद न भी पाए तो, बस इंटर खूब दबाना
पल में खेती कविता की
जोती, बोई औ’ काटी
कुछ खोज शब्द तुक वाले, फिर कुछ बेतुका मिला

कुछ माल विदेशी लाकर, देशी कपड़े पहना दे
बातों की बना जलेबी, सबको भर पेट खिला दे
कर सके न इतना खर्चा
तो कर मित्रों की चर्चा
या प्रगतिशील कह कर तू, पिछड़ों का संघ बना

रविवार, 20 मई 2012

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

भीड़ भरे
इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर 
यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे 
प्रश्नपत्र में 
यह रचना भी आई थी, पर
इसके हल से 
कभी न मिलते
मुझको वे मनचाहे नंबर

सुंदर, सरल
कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये 
मुक्तिबोध की
छोड़ गया पर भूल न पाया
आखिर इस
चौराहे पर 
आकर मैं इससे फिर टकराया

आई होती 
तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

नवगीत : शब्द माफ़िया

शब्द माफिया
करें उगाही
कदम कदम पर

सम्मानों की सब सड़कों पे
इनके टोल बैरियर
नहीं झुकाया जिसने भी सर
उसका खत्म कैरियर

पत्थर हैं ये
सर फूटेगा
इनसे लड़कर

शब्दों की कालाबाजारी से
इनके घर चलते
बचे खुचे शब्दों से चेलों के
चूल्हे हैं जलते

बाकी सब
कुछ करना चाहें
तो फूँके घर

नशा बुरा है सम्मानों का
छोड़ सको तो छोड़ो
बने बनाए रस्तों से
मुँह मोड़ सको तो मोड़ो

वरना पहनो
इनका पट्टा
तुम भी जाकर

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

नवगीत : चंचल मृग सा

चंचल मृग सा
घर आँगन में दौड़ रहा हरदम
उत्सव का मौसम

घनुष हाथ में लेकर पल में राम सरीखा लगता
अगले ही पल लिए बाँसुरी बालकृष्ण सा दिखता
तन के रावण, कंस, पूतना
निकला सबका दम
मन मंदिर में गूँज रही अब
राधा की छमछम

दीपमालिका, उसकी हँसी अमावस में लगती है
थके हुए जीवन को नित नव संजीवन देती है
हर दिन मेरा हुआ दशहरा
खत्म हो गए गम
सब रातें हो गईं दिवाली
भागे सारे तम

अखिल सृष्टि में बालक-छवि से ज्यादा सुंदर क्या है
बच्चों में बसने को शायद प्रभु ने विश्व रचा है
करते इस मोहन छवि पर
सर्वस्व निछावर हम
नयनों में हो यह छवि तेरी
निकले जब भी दम

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

नवगीत : आज चाँद मेरा आधा है

आज चाँद मेरा आधा है

उखड़ा है ये सुंदर मुखड़ा
फूले गाल सुनाते दुखड़ा
सूज गईं हैं दोनों आँखें और नमी इनमें ज्यादा है

बात कही किसने क्या ऐसी
क्यूँ आँगन में रात रो रही
दिल का दर्द छुपाता है ये, ऐसी भी क्या मर्यादा है?

घबरा मत ओ चंदा मेरे
दुख की इन सूनी रातों में
तेरे सिरहाने बैठूँगा, साथ न छोड़ूँगा वादा है

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

नवगीत : मुफ़्त के संबंध मत दो

मुफ़्त के संबंध मत दो

बंधंनों का बोझ ढेरों
सह चुकी हूँ
तोड़कर मैं बाँध सारे
बह चुकी हूँ

कल मुझे जिससे घुटन हो
आज वह अनुबंध मत दो

पुत्र, भाई, तात सब
अधिकार चाहें
मित्र केवल शब्द ही
दो-चार चाहें

टूट जाऊँ भार से, वह
स्वर्ण का भुजबंध मत दो

क्या जरूरी है करें
संवाद पूरा
हो न पाया जो सहज
छोड़ें अधूरा

जिंदगी भर जो न टूटे
प्लीज, वह सौगंध मत दो