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सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

एल ई डी की क़तारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं

दुआ सब ने चराग़ों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं

रखो श्रद्धा न देखो कुछ न पूछो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं

अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं

उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं

करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं

न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है

देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है

अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

आज नेता भी बन गया ‘सज्जन’
कुछ न करने का ये नतीज़ा है

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे

डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे

सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे

ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे

सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल : मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं

शनिवार, 17 सितंबर 2016

ग़ज़ल : रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ

बह्र : २१२२ २१२२ २१२

रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ

गुनगुनाता है चमन इनके किये
फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ

पंख देखे, रंग देखे, और? बस!
आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ

दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए
आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ

बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए
रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

ग़ज़ल : कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना

बह्र : 2122 2122 2122 212

कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना

स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ
और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना

हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं
इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना

ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है
याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना

प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच में
जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना

शनिवार, 10 सितंबर 2016

ग़ज़ल : धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो

आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो

जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक
आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो

वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो

खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे
बालने सब आज धागे रेशमी, जाता है वो

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

ग़ज़ल : ऐसा फल अच्छा होता है

बह्र : २२ २२ २२ २२

सब खाते हैं इक बोता है
ऐसा फल अच्छा होता है

पूँजीपतियों के पापों को
कोई तो छुपकर धोता है

इक दुनिया अलग दिखी उसको
जिसने भी मारा गोता है

हर खेत सुनहरे सपनों का
झूठे वादों ने जोता है

महसूस करे जो जितना, वो,
उतना ही ज़्यादा रोता है

मेरे दिल का बच्चा जाकर
यादों की छत पर सोता है

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’
सच्चा तो केवल तोता है

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

ग़ज़ल : आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

बह्र : 212 1222 212 1222

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

ग़ज़ल : तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

बह्र : 22 22 22 22 22 22

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

सिक्का यदि बढ़वाना चाहे अपनी कीमत
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम

शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं
टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम

बुधवार, 20 जुलाई 2016

ग़ज़ल : सब आहिस्ता सीखोगे

जल्दी में क्या सीखोगे
सब आहिस्ता सीखोगे

इक पहलू ही गर देखा
तुम बस आधा सीखोगे

सबसे हार रहे हो तुम
सबसे ज़्यादा सीखोगे

सबसे ऊँचा, होता है,
सबसे ठंडा, सीखोगे

सूरज के बेटे हो तुम
सब कुछ काला सीखोगे

सीखोगे जो ख़ुद पढ़कर
सबसे अच्छा सीखोगे

पहले प्यार का पहला ख़त
पुर्ज़ा पुर्ज़ा सीखोगे

ख़ुद को पढ़ लोगे जिस दिन
सारी दुनिया सीखोगे

हाकिम बनते ही ‘सज्जन’
सब कुछ खाना सीखोगे

मंगलवार, 28 जून 2016

ग़ज़ल : ऐसे लूटा गया साँवला कोयला

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

था हरा औ’ भरा साँवला कोयला
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन
इसलिए हो गया साँवला, कोयला

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये
जिन्दगी भर जला साँवला कोयला

खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये
जल के विद्युत बना साँवला कोयला

हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर
और जलता रहा साँवला कोयला

चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है
ऐसे लूटा गया साँवला कोयला

सोमवार, 30 मई 2016

ग़ज़ल : वो यहाँ बेलिबास रहती है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

बन के मीठी सुवास रहती है
वो मेरे आसपास रहती है

उसके होंठों में झील है मीठी
मेरे होंठों में प्यास रहती है

आँख ने आँख में दवा डाली
अब जुबाँ पर मिठास रहती है

मेरी यादों के मैकदे में वो
खो के होश-ओ-हवास रहती है

मेरे दिल में न झाँकिये साहिब
वो यहाँ बेलिबास रहती है

रविवार, 1 मई 2016

ग़ज़ल : यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

ये दिमागी बुखार टेढ़ा है
यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ
क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है

जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से
उन्हें लगता है जार टेढ़ा है

खार होता है एकदम सीधा
फूल है मेरा यार, टेढ़ा है

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये
इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता
शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

वो तो बस पुल पर चलते जो गहराई से घबराते हैं
पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

जिनसे है उम्मीद समय को वो पूँजी के सम्मोहन में
काम गधों सा करते फिर सुअरों सा खाकर सो जाते हैं

धूप, हवा, जल, मिट्टी इनमें से कुछ भी यदि कम पड़ जाए
नागफनी बढ़ते जंगल में नाज़ुक पौधे मुरझाते हैं

जिनके हाथों की कोमलता पर दुनिया वारी जाती है
नाम वही अपना पत्थर के वक्षस्थल पर खुदवाते हैं

नफ़रत की भट्ठी में शब्दों के ईंधन से आग लगाकर
सत्ता देवी के तर्पण को ख़ून हमारा खौलाते हैं

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं

बह्र : 1212 1122 1212 22

जहाँ में पाप जो पर्वत समान करते हैं
वो मंदिरों में सदा गुप्तदान करते हैं

लहू व अश्क़, पसीने को धान करते हैं
हमारे वास्ते क्या क्या किसान करते हैं

कभी मिली ही नहीं उन को मुहब्बत सच्ची
जो अपने हुस्न पे ज़्यादा गुमान करते हैं

गरीब अमीर को देखे तो देवता समझे
यही है काम जो पुष्पक विमान करते हैं

जो मंदिरों में दिया काम आ सका किसके?
नमन उन्हें जो सदा रक्तदान करते हैं

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

ग़ज़ल : जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया
हमने तो दिल के शहर का नक्शा बदल दिया

इसकी रगों में बह रही नफ़रत ही बूँद बूँद
देखो किसी ने धर्म का बच्चा बदल दिया

अंतर गरीब अमीर का बढ़ने लगा है क्यूँ
किसने समाजवाद का ढाँचा बदल दिया

ठंडी लगे है धूप जलाती है चाँदनी
देखो हमारे प्यार ने क्या क्या बदल दिया

छींटे लहू के बस उन्हें इतना बदल सके
साहब ने जा के ओट में कपड़ा बदल दिया

मंगलवार, 29 मार्च 2016

ग़ज़ल : जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२

मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना

न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

रविवार, 27 मार्च 2016

ग़ज़ल : इससे अच्छा है मर जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२

जीवन भर ख़ुद को दुहराना
इससे अच्छा है मर जाना

मैं मदिरा में खेल रहा हूँ
टूट गया जब से पैमाना

भीड़ उसे नायक समझेगी
जिसको आता हो चिल्लाना

यादों के विषधर डस लेंगे
मत खोलो दिल का तहखाना

सीने में दिल रखना ‘सज्जन’
अपना हो या हो बेगाना