बुधवार, 16 सितंबर 2009

औपचारिकतायें

मैं भी वही हूँ, तुम भी वही हो,

मित्र कहता हूँ मैं तुम्हें अब भी,

पर अब वो बात नहीं रही, जो कल थी,

कहीं कुछ,

या शायद बहुत कुछ टूट चुका है,

हमारे भीतर कोई,

एक दूसरे से रूठ चुका है,

तुम जो कहते हो,

अब भी करता हूँ मैं,

मनुहार करता था पहले,

अब नहीं करता मैं,

पर अब एक उदासीनता सी रहती है करने में,

वह खुशी नहीं जो पहले होती थी,

समाज की नजर में,

अपनी दोस्ती का, अपने रिश्ते का,

फर्ज निभा रहा हूँ,

या कहूँ कि बोझ उठा रहा हूँ,

अहित मैं तुम्हारा अब भी नहीं चाहता,

पर अब तुम्हारे हित में अपना हित नहीं महसूस करता,

तुम्हारी खुशी में मुझे खुशी नहीं मिलती,

दुख में दुख का अहसास नहीं होता,

केवल औपचारिकताएँ पूरी करता हूँ ।

कितनी ही बार...

कितनी ही बार..... बगीचों में,

फूलों की क्यारियों के बीच से गुजरते हुए,

उनसे उठती मादक खुशबुओं में,

मैंने महसूस की हैं..... तेरी साँसे।

 

कभी कोयल की कूक में, कभी झरनों की कल-कल में,

कभी झींगुरों की झन-झन में, कभी हवाओं की सन-सन में,

कभी पपीहे की पुकार में, कभी पायल की झनकार में,

मेरे कानों ने सुनी हैं.... तेरी बातें।

 

गंगा के तट पर बैठकर,

दूर आसमान में... कितनी ही सुहानी शामों को,

सिंदूरी रंगत के बनते बिगड़ते बादलों में,

कितनी ही बार मैंने देखा है.... तेरा शर्म से लाल चेहरा।

 

तपती हुई गमिर्यों में,

मैदानों से दूर पहाड़ों की ठंढ़क में,

वहाँ बिखरी फैली हिरयाली में,

मैनें अक्सर देखा है उड़ता हुआ.... तुम्हारा वो हरा दुपट्टा।

 

कितनी ही बार कहीं अकेले में बैठकर,

तुम्हारे बारे में ही सोचते हुए,

अपनी आँखों में मैंने पाये हैं..... तुम्हारे आँसू।

 

कितनी ही बार..... कितनी ही बार.....।

रविवार, 13 सितंबर 2009

रोज ही

एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।

कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।

लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

मैंनें ईश्वर को मन्दिर में

मैंने ईश्वर को मंदिर में, बिलख-बिलख रोते देखा है।

 

पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित, ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे,

धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध औ’ चरणामृत का पान कर रहे,

इक छोटे काले पत्थर को, ईश्वर पर हँसते देखा है।

 

मंदिर के बाहर वट-नीचे, गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर,

उस ईश्वर के एक अंश को, क्षुधा-प्यास से व्याकुल होकर,

लोगों की फेंकी जूठन भी, बिन-बिन कर खाते देखा है।

 

दीवारों पर कबसे बैठीं, निर्धन-निर्बल की चाहों को,

पूरी कर देने की उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को,

जय-जय की पागल ध्वनियों में दब, घुटकर मरते देखा है।

 

स्वर्ग-नर्क की जंजीरों से, पाप-पूण्य की तस्वीरों में,

बुरी तरह से कैद हो गये, भोले ईश्वर के हाथों में,

विश्व-प्रेम के सूर्ख-जलज को, मैंने कुम्हलाते देखा है।

 

मन्दिर के ही एक अंधेरे, सीलन भरे, किसी कोने में,

नफरत-स्वार्थ और पापों के, भालों से छलनी सीने में-

से बहकर प्रभु-अमिय-रक्त को मिट्टी में मिलते देखा है।

 

तड़प रहे ईश्वर की चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर,

और राख में धर्म-जाति की घृणा-स्वार्थ का ज़हर मिलाकर,

कथित धर्मगुरुओं को फिर से, धर्म ग्रन्थ लिखते देखा है।


रविवार, 6 सितंबर 2009

सरस्वती वन्दना

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह मोहन राग सुनाओ, तन-मन सब की सुधि भूलूँ,

इस दुनिया से ऊपर उठ, कुछ देर हवा में झूलूँ,

हम-तुम-वह, सब मिट जाए, क्षण भर को वह स्वर गाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

है सदा विजय की चाहत, माँ बहुत बुरी है यह लत,

जब कभी हार जाता हूँ, हफ्तों ना मिलती राहत,

कुछ हार सहन करने की, भी शक्ति मुझे दे जाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह शक्ति मुझे दो अम्बे, संघर्ष सत्य जब जानूँ,

मंत्र-वेद-विधि-गुरु-ईश्वर, तक से भी हार न मानूँ

मैं सत्य-मार्ग ना छोडूँ, वह ज्ञान-ज्योति दिखलाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

इस स्वार्थ-घृणामय जग में, कुछ अमर प्रेम स्वर भर दो,

फिर प्रेम-मल्हार सुनाकर, नभ प्रेम-मेघमय कर दो,

जग प्रेम-प्लवित हो जाए, वह प्रेम-धार बरसाओ।

फिर वीणा मधुर बजाओ।