शनिवार, 14 अगस्त 2010

चिम्पांजी

चिम्पांजी जैसे जैसे विकसित होता गया,
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।

आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

भूकम्प आने ही वाला है

बढ़ता ही जा रहा है,
अच्छाई पर बुराई का दबाव,
इकट्ठी होती जा रही है,
दबे हुए,
कुचले हुए लोगों में,
दबाव की ऊर्जा,
एक दूसरे में धँसी जा रही हैं,
भूख और पिछड़ेपन की चट्टानें,
भूकम्प आने ही वाला है,
और बदलने ही वाली है,
धरती की तस्वीर,
और मेरे भारत की तकदीर।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसके साथ साथ मैं भी नौ दिन का नवरात्री व्रत रखता,
उसे साथ लेकर मैं सुबह-सवेरे मन्दिर जाया करता,
कितना धार्मिक होता मैं भी कहीं वो मेरे साथ जो होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

घर के कामों मैं साँझ-सवेरे उसका हाथ बँटाता,
थक जाती गर वो फिरतो मैं उसके सर और पाँव दबाता,
लोरी गाकर उसे सुलाता नींद नहीं यदि उसको आती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

जग की सारी सुन्दिरयों को मैं अपनी माँ बहन समझता,
उसको छोड़ किसी को मैं सपनों में भी न देखा करता,
इन्द्रासन हिल जाता इतनी कठिन तपस्या मेरी होती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

उसकी छोटी से छोटी ख्वाहिश यारों मैं पूरी करता,
जग की सारी सुख-सुविधायें मैं उसके कदमों में रखता,
चाँद-सितारे लाकर देता एक बार जो वो कह देती;
मैं भी इतना बुरा न होता, अगर कहीं वो मेरी होती।

रविवार, 8 अगस्त 2010

सपने

कुछ सपने दूर से कितने अच्छे लगते हैं,
भोले-भाले, प्यारे से, आदर्शवादी सपने;

पर अक्सर पूरा होते होते,
वो न तो भोले-भाले रह जाते हैं,
न प्यारे,
और आदर्शवाद का तो पूछिये ही मत;

ऐसे सपनों के टूट जाने पर उतना दुख नहीं होता,
जितना अंतरात्मा को,
अक्सर उनके पूरे होने पर होता है;

भगवान करे,
किसी के भी,
ऐसे सपने कभी पूरे ना हों,
कभी पूरे ना हों।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कुत्ते की मौत

एक दिन मैंने देखा,
सड़क पर जाता,
लँगड़ाता,
एक कुत्ता,
एक ट्रक तेजी से आता हुआ और,
एक हृदयविदारक चीख,
गूँजती हुई सारे वातावरण में,
मांस के कुछ लोथड़े,
सने हुए रक्त में,
बिखर गए सड़क पर;

आज, लगभग वही दृश्य,
एक नेत्रहीन धीरे-धीरे चलता हुआ,
सड़क पर,
पुकारता हुआ,
“कोई मुझे सड़क पार दो, भाई”
मैं था थोड़ी दूरी पर खड़ा,
सोचा मदद कर दूँ,
तभी मस्तिष्क से आवाज आई,
इतनी दूर क्या जाना,
कोई आसपास का व्यक्ति मदद कर ही देगा,
या फिर वो अपने आप ही कर जाएगा सड़क पार,
तभी दिखाई पड़ी तेजी से आती हुई एक कार,
एक झटके से गूँजी ब्रेकों की चरमराहट,
पर तब तक हो चुकी थी,
एक लोमहर्षक टक्कर,
खून के कुछ छींटे पड़े,
मेरे अन्तर्मन पर,
कई स्वर गूँजे एक साथ,
“पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो”
पर तब तक जा चुकी थी कार,
चारों तरफ थी बस आवाजों की बौछार,
“कैसा जमाना आ गया है”
“कोई देखकर नहीं चल सकता”
“आंखें बन्द करके चलाते हैं वाहन”;

मैं सोच रहा था,
कौन है अंधा,
वो ड्राइवर,
ये दो आंखों वाले,
वो बिन आंखों वाला,
या इन सबसे बढ़कर मैं स्वयं,
जिसने न सिर्फ देखा,
वरन महसूस भी किया,
मगर फिर भी,
नहीं किया कुछ भी,
मेरे अन्तर्मन पर पड़े हुए छींटे खून के,
कुछ पूछ रहे थे मुझसे,
और मेरे पास नहीं था कोई उत्तर,
मैं समझ नहीं पा रहा था,
कौन मरा है कुत्ते की मौत?
वह कुत्ता,
वह अन्धा,
लोगों की मानवता,
या फिर मेरे भीतर ही कहीं कुछ।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

थोड़ी देर के लिए

मेरी जिन्दगी की सारी व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो, थोड़ी देर के लिए,
थोड़े देर अकेले में बैठकर,
मैं उसे याद करना चाहता हूँ,
उसे, उसकी बातों को,
उसके नखरों को, उसकी अदाओं को,
उसकी खुशबू को, उसके भोलेपन को,
उसकी नासमझियों को, उसकी हँसी को,
उसकी उस कातिल मुस्कान को, उसके प्यार को,
उसके आँसुओं को, उसकी तड़प को,
एक क्षण उसके साथ बिताकर मैं,
जैसे सैकड़ों साल जी लेता था,
उसके प्यार की एक बूँद पीकर,
जैसे कई बोतलें पी लेता था,
अब मैं जी कहाँ रहा हूँ,
अब तो ढो रहा हूँ,
जिन्दगी का बोझ,
तय कर रहा हूँ,
जिन्दगी और मौत के बीच का वीरान सफर,
खींच रहा हूँ, जिंदगी की गाड़ी,
मौत की तरफ,
मैं जिन्दा तभी तक हूँ, जब तक मैं व्यस्त हूँ,
पर कभी तो ओ मेरी जिन्दगी की व्यस्तताओं,
मुझे अकेला छोड़ दो,
थोड़ी देर के लिए।

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

सोजा मेरे सपने

सोजा मेरे सपने।

नई दुनियाँ, जमीं नई, सब खोज लीं गईं,
तू उनमें खोज दुनिया जो हैं तेरे अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू उड़ा दूर दूर, है थक के हुआ चूर,
आ बैठ आके तू, अब पिंजरे में अपने;
सोजा मेरे सपने।

तू जानता नहीं, इस जमीं की नमीं,
संसार समेटे खुद में जाने कितने;
सोजा मेरे सपने।

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा

जाने कब मैं वह कविता लिख पाऊँगा|

गन्धित बदन तुम्हारा जिसके छंदों में,
बँधा पड़ा हो मन्मथ जिसके बंदों में,
जिसके शब्दों में संसार हमारा हो,
भावों में जिसके बस प्यार तुम्हारा हो,
लिखकर जिसको दीवाना हो जाऊँगा।

जिसको पढ़ कर लगे छुआ तुमने मुझको,
जिसको सुनकर लगे तुम्हीं मेरी रब हो;
छूकर तेरे गम जो पल में पिघला दे,
मेरी आँखों में तेरा आँसू ला दे;
जिसको गाकर मैं तुममें घुल जाऊँगा।

सोमवार, 2 अगस्त 2010

लाश तैरती रहती है

अपने जीवन में,
कितने बोझ ढोता रहता है आदमी,
माता पिता के सपनों का बोझ;
समाज की अपेक्षाओं का बोझ;
पत्नी की इच्छाओं का बोझ;
बच्चों के भविष्य का बोझ;
व्यवसाय या नौकरी में,
आगे बढ़ने का बोझ;
अपनी अतृप्त इच्छाओं का बोझ;
अपने घुट-घुटकर मरते हुए सपनों का बोझ;
कितने गिनाऊँ,
हजारों हैं,
और इन सब से मुक्ति मिलती है,
मरने के बाद;

शायद इसीलिए जिन्दा आदमी पानी में डूब जाता है,
मगर उसकी लाश तैरती रहती है।

रविवार, 1 अगस्त 2010

गीत विद्रोही

गीत विद्रोही, जाग! जाग!

सो गई क्रान्ति जन-गण-मन की,
जा सियासतों के किसी गाँव,
है सूख गई सच्चाई, पाकर
सुविधाओं की घनी छाँव,
उठ, बन चिंगारी, सच के
सूखे पत्तों में तू लगा आग।

सब देश प्रेम के गीत खो
गए हैं पश्चिम की आँधी में,
मर गये सभी आदर्श, कभी
जो थे पटेल में, गाँधी में,
उठ, बन कर दीपक राग, आज
सब के दिल में फिर जगा आग।

है आज जमा स्विस बैंकों में,
भारतीय किसानों का सब धन,
इन धन के ढेरों पर बैठे
इस देश-जाति के कुछ रावन,
उठ, बन कर अब तू पवनपुत्र
इनकी लंका में लगा आग।

सड़ गई, गल गई, राजनीति,
फँसकर सत्ता के फंदों में,
इस कीच-ताल का हाल नहीं
लिख पाऊँगा मैं छन्दों में,
उठ, बन कर सूरज आज नया,
तू सुखा कीच, फिर जगा आग।