रविवार, 3 जून 2012

ग़ज़ल : जितना ज्यादा हम लिखते हैं


जितना ज्यादा हम लिखते हैं
सच उतना ही कम लिखते हैं

दुनिया के घायल माथे पर
माँ के लब मरहम लिखते हैं

अब तो सारे बैद मुझे भी
रोज दवा में रम लिखते हैं

जेहन से रिसकर निकलोगी
सोच, तुम्हें हरदम लिखते हैं

जफ़ा मिली दुनिया से इतनी
इसको भी जानम लिखते हैं

बुधवार, 30 मई 2012

ग़ज़ल : मैं बड़ा बदनाम होने जा रहा हूँ

आज सारे राज खोने जा रहा हूँ
मैं बड़ा बदनाम होने जा रहा हूँ

एक तिनका याद का आकर गिरा है
मयकदे में आँख धोने जा रहा हूँ

बेवफ़ा के साथ सोता था अभी तक
मौत के अब संग सोने जा रहा हूँ

फिर बनाया बाप मुझको आज उसने
फिर उसी का बोझ ढोने जा रहा हूँ

भोर में मुझको डराकर ये जगा दें
इसलिए सपने सँजोने जा रहा हूँ

गुल खिलेंगे स्वर्ग में इनको बताकर
झुग्गियों में खार बोने जा रहा हूँ

रेप खुद के साथ मैंने फिर किया है
आइने के पास रोने जा रहा हूँ

शनिवार, 26 मई 2012

नवगीत (हास्य व्यंग्य) : ये टिपियाने की खुजली


ये टिपियाने की खुजली, ऐसे न मिटेगी, आ
मैं तेरी पीठ खुजाऊँ, तू मेरी पीठ खुजा

किसने भाषा को तोला, किसने भावों को नापा
कूड़ा कचरा जो पाया, झट इंटरनेट पर चाँपा
पढ़ने कुछ तो आएँगें
टिपियाकर भी जाएँगे
दुनिया को दुनियाभर के, दिनभर दुख दर्द सुना

पढ़ रोज सुबह का पेपर, फिर गढ़ इक छंद पुराना
बन छंद न भी पाए तो, बस इंटर खूब दबाना
पल में खेती कविता की
जोती, बोई औ’ काटी
कुछ खोज शब्द तुक वाले, फिर कुछ बेतुका मिला

कुछ माल विदेशी लाकर, देशी कपड़े पहना दे
बातों की बना जलेबी, सबको भर पेट खिला दे
कर सके न इतना खर्चा
तो कर मित्रों की चर्चा
या प्रगतिशील कह कर तू, पिछड़ों का संघ बना

रविवार, 20 मई 2012

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

भीड़ भरे
इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर 
यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे 
प्रश्नपत्र में 
यह रचना भी आई थी, पर
इसके हल से 
कभी न मिलते
मुझको वे मनचाहे नंबर

सुंदर, सरल
कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये 
मुक्तिबोध की
छोड़ गया पर भूल न पाया
आखिर इस
चौराहे पर 
आकर मैं इससे फिर टकराया

आई होती 
तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना

रविवार, 13 मई 2012

मातृ दिवस पर एक ग़ज़ल : सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है


उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है

कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है

पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है

नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है

बुधवार, 9 मई 2012

ग़ज़ल : जिस्म जबसे जुबाँ हो गए


जिस्म जबसे जुबाँ हो गए
लब न जाने कहाँ खो गए

कौन दे रोज तुलसी को जल
इसलिए कैकटस बो गए

ड्राई क्लीनिंग के इस दौर में
अश्क से हम हृदय धो गए

सूर्य खोजा किए रात भर
थक के हम भोर में सो गए

जो सभी पर हँसे ताउमर
अंत में खुद पे वो रो गए

रविवार, 6 मई 2012

विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता - २


ज्या, कोज्या, स्पर्शज्या.....
कितने सारे वक्र एक एक करके जोड़ने पड़ते हैं

असंख्य समाकलन करने पड़ते हैं
सारे हिस्सों का सही क्षेत्रफल और आयतन निकालने के लिए

हवा के आवागमन के साथ
सारे गतिमान हिस्सों के सभी बिन्दुओं में परिवर्तन की दर
न जाने कितने फलनों के अवकलन से निकल पाती है

लाखों कैलोरी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है दिमाग को
तब कहीं जाकर ये तुम्हारा सजीव मॉडल बना पाता है
मेरे स्वप्न में

मेरे दिमाग को इस मेहनत का कुछ तो फल दो
थोड़ी देर तो मेरे स्वप्न में रहो