शनिवार, 8 दिसंबर 2012

कविता : जंगली जानवर


जंगली जानवर
छीन लेते हैं
दूसरों से उनका साथी
अपने रूप या फिर अपनी शक्ति से

जंगली जानवर
छोड़ जाते हैं
अपने साथी को
आनंद भोगने के पश्चात
अपने बच्चे पालने के लिए

जंगली जानवर
अपने दिमाग का प्रयोग
केवल भूख मिटाने
और लड़ने के लिए करते हैं

जंगली जानवर
जंगली ही रहते हैं
अपनी प्रजाति लुप्त हो जाने तक

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

ग़ज़ल : बरगदों से जियादा घना कौन है?


बरगदों से जियादा घना कौन है?
किंतु इनके तले उग सका कौन है?

मीन का तड़फड़ाना सभी देखते
झील का काँपना देखता कौन है?

घर के बदले मिले खूबसूरत मकाँ
छोड़ता फिर जहाँ में भला कौन है

लाख हारा हूँ तब दिल की बेगम मिली
आओ देखूँ के अब हारता कौन है

प्रश्न इतना हसीं हो अगर सामने
तो फिर उत्तर में नो कर सका कौन है

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

व्यंग्य कविता : राजमहल ये


राजमहल ये
हड्डी के खंभों पर लटका राजमहल है

इसके भीतर
भाँति भाँति के राजा रानी ऐंठे बैठे
रोटी कहकर माँ की बोटी तोड़ रहे हैं

इसी महल के बाहर ढेरों ढेर हड्डियाँ
वफ़ादार कुत्ते सब खूब भँभोड़ रहे हैं

चारण सारे खड़े द्वार पर गीत गा रहे
बदले में भूषण, आभूषण रोज पा रहे

विद्रोही के पाँव तोड़कर
प्रजा खड़ी है हाथ जोड़कर

राजा ईश्वर का वंशज है धर्मग्रंथ में कहा गया था
राजा का वंशज ईश्वर है यही समझ सब सर झुका रहे

आ पहुँचा जासूस विदेशी व्यापारी के कपड़े पहने
नंगे भूखे अखिल विश्व के बाजारों का ज्ञान पा रहे

ईश्वर बैठा सोच रहा है
अब अवतार मुझे लेना है
पर हथियार कौन सा लूँ मैं
अणु बम तक ये खोज चुके हैं

ईश्वर की पत्नी बोलीं प्रभु चद्दर तानें
खुद ही खुद को भस्म करेंगे ये परवाने

शनिवार, 17 नवंबर 2012

कविता : जो कुछ कर सकते हैं


बादल की तरह बरसो
आखिरी बूँद तक

धरती की तरह भीगो
भीतर तक

पर्वत की तरह त्याग दो
कमजोर हिस्सा

नदी की तरह बँधो
उजाला फैलाओ

पुल की तरह बिछो
खाइयाँ मिटा दो

पानी की तरह बहो
जिसे छुओ हरा कर दो

सूरज की तरह जलो
किसी का संसार रोशन करने के लिए

पेड़ की तरह जियो
पेड़ की तरह मरो
कि तुम्हारा जीना मरना दोनों इंसानियत के काम आए

और अगर कुछ न कर सको
तो पड़े रहो कूड़े की तरह
समय तुम्हें सड़ाकर खाद बना देगा
उन्हें उगाने के लिए
जो कुछ कर सकते हैं

बुधवार, 14 नवंबर 2012

ग़ज़ल : आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है


रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है
अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है

है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी
मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है

रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर
आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है

तेरी आँखों के जजीरों पे ही दम टूटा गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है

है बड़ा तेज कहीं तू भी न मर जाए सनम
आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है

सोमवार, 12 नवंबर 2012

दीपावली पर ग़ज़ल : रौशनी की महक बहे हर सू


फूल हैं आग के खिले हर सू
रौशनी की महक बहे हर सू

यूँ बिछे आज आइने हर सू
आसमाँ सी जमीं दिखे हर सू

लौट कर मायके से वो आईं
दीप ख़ुशियों के जल उठे हर सू

वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू

दूसरों के तले उजाला कर
ये अँधेरा भी अब मिटे हर सू

नाम दीपक का हो रहा ‘सज्जन’
तन मगर तेल का जले हर सू

रविवार, 11 नवंबर 2012

ग़ज़ल : हमारा इश्क हो केवल कथा तो


हमारा इश्क हो केवल कथा तो
निकल आए वो कोई लेखिका तो

मिले मुझको खुदा की तूलिका तो
अगर मैं दूँ मिला भगवा हरा तो

वो दोहों को ही दुनिया मानता है
कहा गर जिंदगी ने सोरठा तो

जिसे वो मानकर सोना बचाए
वही कल हो गया साबित मृदा तो

चढ़ा लो दूध घी फल फूल मेवा
मगर फिर भी नहीं बरसी कृपा तो

जिसे ढूढूँ पिटारी बीन लेकर
वही हो आस्तीनों में छिपा तो

समझदारी है उससे दूर रहना
अगर हो बैल कोई मरखना तो

कहीं बदबू उसे आती नहीं अब
अगर हो बंद उसकी नासिका तो

बुधवार, 7 नवंबर 2012

बालगीत : छोटा सा मेरा रोबोट

छोटा सा मेरा रोबोट
पहने ये लोहे का कोट
खाता रोज बैटरी चार
तब ढो पाता अपना भार

चमचम चमकाकर तलवार
करता रहे हवा में वार
चारों ओर घुमा गर्दन
फ़ायर करता अपनी गन

जब मैं पढ़ लिख जाऊँगा
रोबो बड़ा बनाउँगा
जो घर के सब काम करे
मम्मी बस आराम करे

रविवार, 4 नवंबर 2012

हास्य रस के दोहे


जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय
ज्यों मंदिर के द्वार से, जूता चोरी होय

सिक्के यूँ मत फेंकिए, प्रभु पर हे जजमान
सौ का नोट चढ़ाइए, तब होगा कल्यान

फल, गुड़, मेवा, दूध, घी, गए गटक भगवान
फौरन पत्थर हो गए, माँगा जब वरदान

ताजी रोटी सी लगी, हलवाहे को नार
मक्खन जैसी छोकरी, बोला राजकुमार

संविधान शिव सा हुआ, दे देकर वरदान
राह मोहिनी की तकें, हम किस्से सच मान

जो समाज को श्राप है, गोरी को वरदान
ज्यादा अंग गरीब हैं, थोड़े से धनवान

बेटा बोला बाप से, फर्ज करो निज पूर्ण
सब धन मेरे नाम कर, खाओ कायम चूर्ण

ठंढा बिल्कुल व्यर्थ है, जैसे ठंढा सूप
जुबाँ जले उबला पिए, ऐसा तेरा रूप 

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

कविता : पागलों का शहर

अक्सर पार्टियों में मुझे उनके जैसा दिखने की जरूरत पड़ती है
तब मैं भी उनके बीच खड़ा होकर ठहाके लगाने लगता हूँ

दूर से देखने पर
वो सबके सब मुझे पागल लगते हैं

लेकिन शायद मेरी तरह वो भी
इस शहर में जिंदा रहने के लिए
पागल होने का अभिनय कर रहे हों