मंगलवार, 29 मार्च 2016

ग़ज़ल : जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२

मेरी नाव का बस यही है फ़साना
जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

सनम को जिताना तो आसान है पर
बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना

न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी
था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी
न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे
सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी
बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

रविवार, 27 मार्च 2016

ग़ज़ल : इससे अच्छा है मर जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२

जीवन भर ख़ुद को दुहराना
इससे अच्छा है मर जाना

मैं मदिरा में खेल रहा हूँ
टूट गया जब से पैमाना

भीड़ उसे नायक समझेगी
जिसको आता हो चिल्लाना

यादों के विषधर डस लेंगे
मत खोलो दिल का तहखाना

सीने में दिल रखना ‘सज्जन’
अपना हो या हो बेगाना

बुधवार, 23 मार्च 2016

ग़ज़ल : थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे

212 1222 212 1222

थी जुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे
फिर तो चन्द लम्हे भी हो गये सदी जैसे

चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे

राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे

जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल
हौले हौले बजती हो कोई  बाँसुरी जैसे

मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे

ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं
पेड़ सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे

शनिवार, 19 मार्च 2016

ग़ज़ल : झूठ मिटता गया देखते देखते

२१२ २१२ २१२ २१२

झूठ मिटता गया देखते देखते
सच नुमायाँ हुआ देखते देखते

तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी
कैसा जादू हुआ देखते देखते

तार दाँतों में कल तक लगाती थी जो
बन गई अप्सरा देखते देखते

झुर्रियाँ मेरे चेहरे की बढने लगीं
ये मुआँ आईना देखते देखते

वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा
हो गया रतजगा देखते देखते

शे’र उनपर हुआ तो मैं माँ बन गया
बन गईं वो पिता देखते देखते

बुधवार, 16 मार्च 2016

ग़ज़ल : सूर्य से जो लड़ा नहीं करता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता
वक़्त उसको हरा नहीं करता

सड़ ही जाता है वो समर आख़िर
वक्त पर जो गिरा नहीं करता

जा के विस्फोट कीजिए उस पर
यूँ ही पर्वत हटा नहीं करता

लाख कोशिश करे दिमाग मगर
दिल किसी का बुरा नहीं करता

प्यार धरती का खींचता इसको
यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता

मंगलवार, 8 मार्च 2016

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम (ग़ज़ल)

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम
उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम

मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो
महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम

ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा
कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम

हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम

बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे
ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो तुम

चमक वही, वो गरजना, तुरंत ही बारिश
खफ़ा हुई तो ज्यूँ बदली में आ गई हो तुम

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का : ग़ज़ल

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का
जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब
जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि
अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब
ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को
वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का

मंगलवार, 1 मार्च 2016

ग़ज़ल : तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

सभी पैरहन हम भुला कर चले
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले
जो मज़लूम का हक पचा कर चले

गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले

अकेले कभी अब से होंगे न हम
वो हमको हमीं से मिला कर चले

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा
अगर चींटियों को बचा कर चले

तरस जाएगा एक बोसे को भी
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर चले

लगे अब्र भी देशद्रोही उन्हें
जो उनके वतन को हरा कर चले

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

नवगीत : काले काले घोड़े

पहुँच रहे मंजिल तक
झटपट
काले काले घोड़े

भगवा घोड़े खुरच रहे हैं
दीवारें मस्जिद की
हरे रंग के घोड़े खुरचें
दीवारें मंदिर की

जो सफ़ेद हैं
उन्हें सियासत
मार रही है कोड़े

गधे और खच्चर की हालत
मुझसे मत पूछो तुम
लटक रहा है बैल कुँएँ में
क्यों? खुद ही सोचो तुम

गाय बिचारी
दूध बेचकर
खाने भर को जोड़े

है दिन रात सुनाई देती
इनकी टाप सभी को
लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस अभी तक
ढूँढ़ न पाई इनको

घुड़सवार काले घोड़ों ने
राजमहल तक छोड़े

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

नवगीत : रुक गई बहती नदी

काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही

सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे

धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई

गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे

उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी

चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पर्वतों के बीच की
सीती रहो
मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी