यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
सोमवार, 29 सितंबर 2025
ग़ज़ल : देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले
देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले
झूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिले
बक रहे वाही-तबाही संत सारे लंठ बन
धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिले
रोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म उनका जल गया
और अँधेरा बेचने वालों को सरदारी मिले
कौन सी चौखट पे जाएँ सच बताने जब हमें
निर्वसन राजा मिला नंगे ही दरबारी मिले
ख़ूब मँहगाई बढ़ी तो आदमी सस्ता हुआ
चंद सिक्कों की खनक पर अब वफ़ादारी मिले
क़त्ल होने को यहाँ बस सत्य कहना है बहुत
हर गली-कूचे में दुबकी आज अय्यारी मिले
रविवार, 28 सितंबर 2025
ग़ज़ल: किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
तमाम उम्र मैं तन्हा इसी सफ़र में रहा
छुपा सके न कभी बेवकूफ़ थे इतने
हमारा इश्क़ मुहब्बत की हर ख़बर में रहा
बड़ी अजीब मुहब्बत की है उलटबाँसी
बहादुरी में कहाँ था मज़ा जो डर में रहा
नदी वो हुस्न की मुझको डुबो गई लेकिन
बहुत है ये भी कि मैं देर तक भँवर में रहा
मिली न प्यार की मंजिल तो क्या हुआ ‘सज्जन’
यही क्या कम है कि मैं उस की रहगुज़र में रहा
रविवार, 14 सितंबर 2025
कविता : शोक-संदेश
आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि
आज हमारे बीच वह नहीं रहे
जिन्हें युगों से
ईश्वर, ख़ुदा, भगवान, परमात्मा इत्यादि कहकर पुकारा जाता था
उनकी कोई देह न थी,
पर उनकी अनुपस्थिति की धूल
हर आँगन, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में
बेआवाज़ बिखर चुकी है
उनकी मृत्यु पर
न मंदिरों में शंख बजे
न मस्जिदों में अज़ान उठी
न गिरजाघर की घंटियाँ बजीं
न आसमान गरजा
केवल एक अथाह, अंतहीन सन्नाटा
ब्रह्मांड की आत्मा में उतर गया
हम समस्त मानवजाति से विनम्र निवेदन करते हैं
कि वो पत्थर के मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में नहीं
बल्कि अपने हृदय के भीतर
भावों से बनी उस कोठरी में आयें
जो कभी विश्वास के सूरज से रोशन थी
अपनी अधूरी प्रार्थनाओं का दीपक जलाकर लाएँ
और आँसुओं से भीगे धर्मग्रंथों को चादर की तरह बिछाकर बैठें
और हाँ अपना विश्वास जरूर साथ लाएँ
क्योंकि वह बेचारा आज अनाथ हो गया
ईश्वर को श्रद्धांजलि देने के लिए
राजा-रंक सब एक पंक्ति में खड़े होंगे
किसी के हाथ में रामचरितमानस होगा
किसी के हाथ में कुरान
किसी के हाथ में बाइबल या गुरु ग्रंथ साहिब
धीरे धीरे सब किताबें
फूल-मालाएँ बन जाएँगी
अब शायद ईश्वर से रिक्त आकाश हमें सिखा दे
कि मनुष्य ही मनुष्य का सहारा है
सबसे पवित्र है एक-दूसरे का हाथ थाम लेना
सबसे बड़ा तीर्थ है किसी प्रियजन का कंधा
और सबसे बड़ा मंदिर है इंसान का दिल
रविवार, 7 सितंबर 2025
लेख : क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है
आइए देखें कि क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है।
1. भाषाई बाधाएँ
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कई महान कवि उन भाषाओं में लिखते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम जानी-पहचानी हैं, जैसे मलयालम, तेलुगु, उर्दू, या स्थानीय अफ्रीकी और एशियाई भाषाएँ।
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उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी या स्वीडिश में अनुवाद कम होता है, जिससे जूरी तक उनकी वास्तविक प्रतिभा नहीं पहुँच पाती।
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कविता में लय, अलंकार, शब्दों का खेल और सांस्कृतिक सूक्ष्मताएँ होती हैं, जो अनुवाद में अक्सर खो जाती हैं।
2. वैश्विक दृश्यता की कमी
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कविताओं का पाठक वर्ग अपेक्षाकृत छोटा होता है।
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कई कवियों की रचनाएँ अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं, एंथोलॉजी या साहित्यिक महोत्सवों तक नहीं पहुँच पाती।
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उपन्यास और कहानियाँ व्यापक रूप से पढ़ी और प्रचारित होती हैं, जबकि कविता का प्रसार सीमित रहता है।
3. गद्य पर प्राथमिकता
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नॉबेल समिति अक्सर उपन्यास, लघु-कथा, निबंध को प्राथमिकता देती है।
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गद्य का मूल्यांकन आसान है क्योंकि इसकी पठनीयता और सांस्कृतिक संदर्भ समझना आसान होता है।
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कविता संक्षिप्त और अत्यधिक व्यक्तिगत होती है, इसलिए तुलना करना कठिन होता है।
4. कविता का व्यक्तिगत और विषयगत स्वरूप
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कविता का मूल्यांकन अत्यंत व्यक्तिगत होता है।
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जूरी के सांस्कृतिक और साहित्यिक रुचियों का कविता के चयन में प्रभाव पड़ता है।
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कुछ कविताएँ जूरी को भावनात्मक या बौद्धिक रूप से पूरी तरह प्रभावित नहीं कर पाती।
5. सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाएँ
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जो कवि सामाजिक आलोचना, विरोध या विवादास्पद विषय उठाते हैं, उन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।
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वहीं, जो कविताएँ स्थापित सामाजिक या राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से मेल खाती हैं, उन्हें प्राथमिकता मिल सकती है।
6. रचनाओं तक सीमित पहुँच
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कई कवियों की रचनाएँ स्थानीय पत्रिकाओं या छोटे प्रकाशनों में प्रकाशित होती हैं।
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जूरी के लिए इन्हें ढूँढना कठिन होता है।
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डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और अंतरराष्ट्रीय वितरण की कमी भी एक बाधा है।
7. समिति की प्राथमिकताएँ
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नॉबेल पुरस्कार का निर्णय एक छोटी समिति के व्यक्तिगत स्वाद और प्राथमिकताओं पर निर्भर होता है।
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समिति कभी-कभी परिचित भाषाओं और साहित्यिक परंपराओं को प्राथमिकता देती है, जिससे विविध भाषाओं के कवियों की अनदेखी हो सकती है।
8. अनुवाद की गुणवत्ता
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कविता का प्रभाव अनुवाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।
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कई बार अनुवाद में कविता की लय, भावनात्मक गहराई, प्रतीकात्मकता और सांस्कृतिक संदर्भ खो जाते हैं।
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खराब या अधूरा अनुवाद कवि की वास्तविक प्रतिभा को प्रभावित करता है।
9. वैश्विक साहित्यिक राजनीति
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कुछ क्षेत्रों और भाषाओं के कवियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रचारित किया जाता है।
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बहुसंख्यक भाषाओं के कवियों के पास प्रकाशन, अनुवाद और नेटवर्किंग के अवसर कम होते हैं।
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यह कवियों के वैश्विक पहचान में कमी का कारण बनता है।
10. कविता के प्रभाव के प्रति धारणा
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कभी-कभी कविता को कम प्रभावशाली और व्यक्तिगत समझा जाता है।
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उपन्यास या कथा साहित्य को व्यापक सामाजिक या व्यावसायिक प्रभाव के कारण प्राथमिकता दी जाती है।
लेख : बाबा संस्कृति - ओशो से इंस्टाग्राम तक
ओशो ने अपने वक्तव्यों में परंपरागत धर्म, व्यवस्था और सामाजिक ढकोसलों पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने ‘स्वतंत्र सोच’ और ‘स्वानुभव’ पर बल दिया, परंतु विडंबना यह रही कि उनके इर्द-गिर्द वही ‘भक्तिवाद’ उग आया जिसे वे तोड़ना चाहते थे। उन्होंने कहा था – “किसी के पीछे मत चलो”, पर आज उनके पीछे पूरी की पूरी पीढ़ियाँ चल रही हैं।
ओशो स्वयं में एक बौद्धिक विद्रोही थे, लेकिन उनकी शैली, रहन-सहन, बोलने का अंदाज़ और उनके शब्दों की आग ने भारत में एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया जो अब ‘बाबा संस्कृति’ के रूप में हमारे समाज को दीमक की तरह खा रही है।
बाबा संस्कृति क्या है? यह वह सांस्कृतिक ढांचा है जिसमें तर्क को त्याग कर किसी व्यक्ति
की वाणी को ‘सत्य’ मान लिया जाता है। जहाँ प्रश्न पूछना अपराध है और श्रद्धा का अर्थ
है – आँख मूँद लेना। यह संस्कृति अब सिर्फ आश्रमों तक सीमित नहीं रही, यह इंस्टाग्राम,
यूट्यूब, ऑनलाइन सेमिनारों और प्रीमियम मेडिटेशन कोर्सों तक फैल चुकी है।
हर दूसरा आदमी ‘जिंदगी कैसे जिएँ’ सिखा रहा है, और हर तीसरा आदमी उसके वीडियो पर ‘धन्य
हो बाबा’ लिख रहा है। ओशो के नाम पर आज जो लोग ज्ञान बेच रहे हैं, वे अक्सर उन्हीं
बातों को दोहराते हैं – बस अंदाज़ नया है, प्लेटफॉर्म डिजिटल है, और भक्त ज्यादा कॉर्पोरेट
हैं।
सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि असली ‘आत्मचिंतन’ और ‘जिज्ञासा’ को इसने सतही ‘हीलिंग’, ‘वाइब्स’ और ‘एनर्जी’ से बदल
दिया है। जीवन की गहराइयों की जगह अब सतही पॉजिटिविटी बिक रही है।
यह बाबा संस्कृति अब न सिर्फ व्यक्ति की चेतना को कुंद कर रही है, बल्कि समाज को भी
एक भीड़ में बदल रही है – जहाँ हर कोई जवाब सुनना चाहता है, पर सवाल पूछने की हिम्मत
नहीं रखता।
ओशो ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनका विचार संसार एक दिन उस अंधभक्ति की फैक्ट्री
बन जाएगा जिससे वे जीवन भर लड़ते रहे। पर ऐसा हुआ – और आज यह बाबा संस्कृति हमारे विवेक
को निगल रही है।
हमें तय करना होगा – हम विचार को अपनाएँगे या व्यक्ति को पूजेंगे। अन्यथा हर पीढ़ी एक नया बाबा गढ़ेगी, और हर बाबा एक नई भीड़ बनाएगा।