शुक्रवार, 11 जून 2010

बलात्कार : उद्भव एवं विकास

शुरू में सब एक जैसा था,
जब प्रारम्भिक स्तनपाइयों का विकास हुआ,
धरती पर,
नर मादा में कुछ ज्यादा अन्तर नहीं था,
मादा भी नर की तरह शक्तिशाली थी,
वह भी भोजन की तलाश करती थी,
शत्रुओं से युद्ध करती थी,
अपनी मर्जी से जिसके साथ जी चाहा,
सहवास करती थी,
बस एक ही अन्तर था,
वह गर्भ धारण करती थी,
पर उन दिनों गर्भावस्था में
इतना समय नहीं लगता था,
कुछ दिनों की ही बात होती थी।

फिर क्रमिक विकास में बन्दरों का उद्भव हुआ,
तब जब हम बंदर थे,
स्त्री पुरुष का भेद ज्यादा नहीं होता था,
मादा थोड़ी सी कमजोर हुई,
क्योंकि अब गर्भावस्था में,
ज्यादा समय लगता था,
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चाहिए था,
गर्भावस्था के दौरान,
मगर नर और मादा,
दोनों ही भोजन की तलाश में भटकते थे,
साथ साथ काम करते थे।

फिर हम चिम्पांजी बने,
मादा और कमजोर हुई,
गर्भावस्था में और ज्यादा समय लगने लगा,
वह ज्यादा देर घर पर बिताने लगी,
नर ज्यादा शक्तिशाली होता गया,
क्रमिक विकास में।

फिर हम मानव बने,
नारी को गर्भावस्था के दौरान,
बहुत ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता था,
ऊपर के बच्चों के जीवन की संभावना भी कम थी,
तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते थे,
घर पर लगातार रहने से,
उसके अंगो में चर्बी जमने लगी,
स्तन व नितम्बों का आकार
पुरुषों से बिल्कुल अलग होने लगा,
ज्यादा श्रम के काम न करने से,
अंग मुलायम होते गये,
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई,
और उसका केवल एक ही काम रह गया,
पुरुषों का मन बहलाना,
बदले में पुरुष उसकी रक्षा करने लगे,
अपने बल से,
समय बदला,
पुरुष चाहने लगे कि एक ऐसी नारी हो,
जो सिर्फ उसका मन बहलाये,
जब वो शिकार से थक कर आये,
उसके अलावा और कोई उसको छू भी न सके,
वो सिर्फ एक पुरुष के बच्चे पैदा कर सके,
इस तरह जन्म हुआ विवाह का,
ताकि नारी एक ही पुरुष की होकर रह सके,
और पुरुष जो चाहे कर सके,
एक दिन किसी पुरुष ने,
किसी दूसरे की स्त्री के साथ,
बलपूर्वक सहवास किया,
अब स्त्री का पति क्या करता,
इसमें नारी का कोई कसूर नहीं था,
पर पुरुषों के अहम ने एक सभा बुलाई,
उसमें यह नियम बनाया,
कि यदि कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी से,
मर्जी से या बिना मर्जी से,
सहवास करेगी,
तो वह अपवित्र हो जाएगी,
उसको परलोक में भी जगह नहीं मिलेगी,
उसे उसका पिता भी स्वीकार नहीं करेगा,
पति और समाज तो दूर की बात है,
क्योंकि पिता, पति और समाज के ठेकेदार,
सब पुरुष थे,
इसलिये यह नियम सर्वसम्मति से मान लिया गया,
एक स्त्री ने यह पूछा,
कि सहवास तो स्त्री और पुरुष दोनों के मिलन से होता है,
यदि परस्त्री अपवित्र होती है,
तो परपुरुष भी अपवित्र होना चाहिए,
उसको भी समाज में जगह नहीं मिलनी चाहिए,
पर वह स्त्री गायब कर दी गई,
उसकी लाश भी नहीं मिली किसी को,
और इस तरह से बनी बलात्कार की,
और स्त्री की अपवित्रता की परिभाषा,
पुरुष कुछ भी करे मरना स्त्री को ही है।

फिर समाज में बलात्कार बढ़ने लगे,
जिनका पता चल गया,
उन स्त्रियों ने आत्महत्या कर लीं,
या वो वेश्या बना दी गईं,
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यहीं से हुआ,
क्योंकि अपवित्र स्त्रियों के पास,
इसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं बचा था,
और जिनका पता नहीं चला,
वो जिन्दा बचीं रहीं,
घुटती रहीं, कुढ़ती रहीं,
पर जिन्दगी तो सबको प्यारी होती है,
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रहा,
और वो जिन्दा रहने के लालच में चुपचाप सब सहती रहीं।
जी हाँ शारीरिक शोषण का उदय यहीं से हुआ,
पुरुषों का किया धरा है सब,
चिम्पांजियों और बंदरों में नर बलात्कार नहीं करते।

धीरे धीरे स्त्री के मन में डर बैठता गया,
बलात्कार का,
अपवित्रता का,
मौत का,
इतना ज्यादा,
कि वो बलात्कार में मानसिक रूप से टूट जाती थी,
वरना शरीर पर क्या फर्क पड़ता है,
दो चार बूँदों से,
नहाया और फिर से वैसी की वैसी।
धीरे धीरे ये स्त्री को प्रताड़ित करने के लिए,
पुरुषों का अस्त्र बन गया;
शारीरिक यातना झेलने की,
स्त्रियों को आदत थी,
गर्भावस्था झेलने के कारण,
पर मानसिक यातना वो कैसे झेलती,
इसका उसे कोई अभ्यास नहीं था।

धीरे धीरे स्त्री ये बात समझने लगी,
कि ये सब पुरुष का किया धरा है,
उनके ही बनाये नियम हैं,
और धीरे धीरे मानसिक यातना,
सहन करने की शक्ति भी उसमें आने लगी,
यह बात पुरुषों को बर्दाश्त नहीं हुई,
फिर जन्म हुआ सामूहिक बलात्कार का,
अब स्त्री ना तो छुपा सकती थी,
ना शारीरिक यातना ही झेल सकती थी,
और मानसिक यातना,
तो इतनी होती थी,
कि उसके पास दो ही रास्ते बचते थे,
आत्महत्या का, या डाकू बनने का।

धीरे धीर क्रमिक विकास में,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा ही,
गड्डमड्ड होने लगी,
झूठ समय का मुकाबला नहीं कर पाता,
वो समय की रेत में दब जाता है,
केवल सच ही उसे चीर कर बाहर आ पाता है,
पवित्र और अपवित्र की परिभाषा,
सिर्फ स्त्रियों पर ही लागू नहीं होती,
यह पुरुषों पर भी लागू होती है,
या फिर पवित्र और अपवित्र जैसा कुछ होता ही नहीं।

मुझे समझ में नहीं आता,
दो चार बूँदों से इज्जत कैसे लुट जाती है?
और पुरुष उसे लूटता है,
तो ज्यादा इज्जतदार क्यों नहीं बन जाता?
स्त्री की इज्जत उसके जननांग में क्यों रहती है,
उसके सत्कार्यों में, उसके ज्ञान में क्यों नहीं?
ये इज्जत नहीं है,
उसकी पवित्रता और उसकी इज्जत नहीं लुटती,
ये पुरुष का अहंकार है,
उसका अभिमान है,
जो लुट जाता है,
स्त्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता,
पर अहंकारी पुरुष उस स्त्री को स्वीकार नहीं करता,
क्योंकि उसके अहं को ठेस लगती है,
सदियों पुराने अहं को,
जो अब उसके खून में रच बस गया है,
जिससे छुटकारा उसे शायद ही मिले,
सात साल की सजा से,
या बलात्कारी की मौत से,
फायदा नहीं होगा,
फायदा तभी होगा,
जब पुरुष ये समझने लगेगा,
कि बलात्कार,
जबरन किये गये कार्य से ज्यादा कुछ नहीं होता;
और बलात्कार करके वो लड़की की इज्जत नहीं लूटता,
केवल अपने ही जैसे कुछ पुरुषों के,
अहं को ठेस पहुँचाता है।

1 टिप्पणी:

  1. Bahut badhiya! Logical rachnaa hai... Achchha analysis...

    Par shayad maine ise galat samay par padh liya. Main kuch hi der pahle soch raha tha ki kahiin aisa to nahi ho raha ki stree ki "bechaargi" ab kewal ek drawit kar dene wali kavita likhne ya stree-vimarsh ke blog banaane ka bahana ban kar rah gayi hai!... Kya vastavikta ke dharatal par bhi hamaare samaaj ka vikaas ho raha hai?... ya sirf vikaas ke naam par ab humne bechargi ko aur adhik bechaarepan ke saath prakat karna seekh liya hai!

    Jo bhi ho... mujhe ye analytical rachna achchhi lagi...

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