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रविवार, 7 सितंबर 2025

लेख : क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है

 आइए देखें कि क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है।

1. भाषाई बाधाएँ

  • कई महान कवि उन भाषाओं में लिखते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम जानी-पहचानी हैं, जैसे मलयालम, तेलुगु, उर्दू, या स्थानीय अफ्रीकी और एशियाई भाषाएँ।

  • उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी या स्वीडिश में अनुवाद कम होता है, जिससे जूरी तक उनकी वास्तविक प्रतिभा नहीं पहुँच पाती।

  • कविता में लय, अलंकार, शब्दों का खेल और सांस्कृतिक सूक्ष्मताएँ होती हैं, जो अनुवाद में अक्सर खो जाती हैं।

2. वैश्विक दृश्यता की कमी

  • कविताओं का पाठक वर्ग अपेक्षाकृत छोटा होता है।

  • कई कवियों की रचनाएँ अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं, एंथोलॉजी या साहित्यिक महोत्सवों तक नहीं पहुँच पाती।

  • उपन्यास और कहानियाँ व्यापक रूप से पढ़ी और प्रचारित होती हैं, जबकि कविता का प्रसार सीमित रहता है।

3. गद्य पर प्राथमिकता

  • नॉबेल समिति अक्सर उपन्यास, लघु-कथा, निबंध को प्राथमिकता देती है।

  • गद्य का मूल्यांकन आसान है क्योंकि इसकी पठनीयता और सांस्कृतिक संदर्भ समझना आसान होता है।

  • कविता संक्षिप्त और अत्यधिक व्यक्तिगत होती है, इसलिए तुलना करना कठिन होता है।

4. कविता का व्यक्तिगत और विषयगत स्वरूप

  • कविता का मूल्यांकन अत्यंत व्यक्तिगत होता है।

  • जूरी के सांस्कृतिक और साहित्यिक रुचियों का कविता के चयन में प्रभाव पड़ता है।

  • कुछ कविताएँ जूरी को भावनात्मक या बौद्धिक रूप से पूरी तरह प्रभावित नहीं कर पाती।

5. सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाएँ

  • जो कवि सामाजिक आलोचना, विरोध या विवादास्पद विषय उठाते हैं, उन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।

  • वहीं, जो कविताएँ स्थापित सामाजिक या राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से मेल खाती हैं, उन्हें प्राथमिकता मिल सकती है।

6. रचनाओं तक सीमित पहुँच 

  • कई कवियों की रचनाएँ स्थानीय पत्रिकाओं या छोटे प्रकाशनों में प्रकाशित होती हैं।

  • जूरी के लिए इन्हें ढूँढना कठिन होता है।

  • डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और अंतरराष्ट्रीय वितरण की कमी भी एक बाधा है।

7. समिति की प्राथमिकताएँ 

  • नॉबेल पुरस्कार का निर्णय एक छोटी समिति के व्यक्तिगत स्वाद और प्राथमिकताओं पर निर्भर होता है।

  • समिति कभी-कभी परिचित भाषाओं और साहित्यिक परंपराओं को प्राथमिकता देती है, जिससे विविध भाषाओं के कवियों की अनदेखी हो सकती है।

8. अनुवाद की गुणवत्ता 

  • कविता का प्रभाव अनुवाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

  • कई बार अनुवाद में कविता की लय, भावनात्मक गहराई, प्रतीकात्मकता और सांस्कृतिक संदर्भ खो जाते हैं।

  • खराब या अधूरा अनुवाद कवि की वास्तविक प्रतिभा को प्रभावित करता है।

9. वैश्विक साहित्यिक राजनीति 

  • कुछ क्षेत्रों और भाषाओं के कवियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रचारित किया जाता है।

  • बहुसंख्यक भाषाओं के कवियों के पास प्रकाशन, अनुवाद और नेटवर्किंग के अवसर कम होते हैं।

  • यह कवियों के वैश्विक पहचान में कमी का कारण बनता है।

10. कविता के प्रभाव के प्रति धारणा

  • कभी-कभी कविता को कम प्रभावशाली और व्यक्तिगत समझा जाता है।

  • उपन्यास या कथा साहित्य को व्यापक सामाजिक या व्यावसायिक प्रभाव के कारण प्राथमिकता दी जाती है।

कविता का नॉबेल पुरस्कार न मिलना प्रतिभा की कमी के कारण नहीं, बल्कि अनेक बाहरी और संरचनात्मक कारणों से होता है जो यह दर्शाता है की नोबल पुरस्कार का निर्णय लेने वाली समिति की अपनी सीमाएं हैं।

लेख : बाबा संस्कृति - ओशो से इंस्टाग्राम तक

ओशो ने अपने वक्तव्यों में परंपरागत धर्म, व्यवस्था और सामाजिक ढकोसलों पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने ‘स्वतंत्र सोच’ और ‘स्वानुभव’ पर बल दिया, परंतु विडंबना यह रही कि उनके इर्द-गिर्द वही ‘भक्तिवाद’ उग आया जिसे वे तोड़ना चाहते थे। उन्होंने कहा था – “किसी के पीछे मत चलो”, पर आज उनके पीछे पूरी की पूरी पीढ़ियाँ चल रही हैं।

ओशो स्वयं में एक बौद्धिक विद्रोही थे, लेकिन उनकी शैली, रहन-सहन, बोलने का अंदाज़ और उनके शब्दों की आग ने भारत में एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया जो अब ‘बाबा संस्कृति’ के रूप में हमारे समाज को दीमक की तरह खा रही है।

बाबा संस्कृति क्या है? यह वह सांस्कृतिक ढांचा है जिसमें तर्क को त्याग कर किसी व्यक्ति की वाणी को ‘सत्य’ मान लिया जाता है। जहाँ प्रश्न पूछना अपराध है और श्रद्धा का अर्थ है – आँख मूँद लेना। यह संस्कृति अब सिर्फ आश्रमों तक सीमित नहीं रही, यह इंस्टाग्राम, यूट्यूब, ऑनलाइन सेमिनारों और प्रीमियम मेडिटेशन कोर्सों तक फैल चुकी है।

हर दूसरा आदमी ‘जिंदगी कैसे जिएँ’ सिखा रहा है, और हर तीसरा आदमी उसके वीडियो पर ‘धन्य हो बाबा’ लिख रहा है। ओशो के नाम पर आज जो लोग ज्ञान बेच रहे हैं, वे अक्सर उन्हीं बातों को दोहराते हैं – बस अंदाज़ नया है, प्लेटफॉर्म डिजिटल है, और भक्त ज्यादा कॉर्पोरेट हैं।

सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि असली ‘आत्मचिंतन’ और ‘जिज्ञासा’ को इसने सतही ‘हीलिंग’, ‘वाइब्स’ और ‘एनर्जी’ से बदल दिया है। जीवन की गहराइयों की जगह अब सतही पॉजिटिविटी बिक रही है।

यह बाबा संस्कृति अब न सिर्फ व्यक्ति की चेतना को कुंद कर रही है, बल्कि समाज को भी एक भीड़ में बदल रही है – जहाँ हर कोई जवाब सुनना चाहता है, पर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं रखता।

ओशो ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनका विचार संसार एक दिन उस अंधभक्ति की फैक्ट्री बन जाएगा जिससे वे जीवन भर लड़ते रहे। पर ऐसा हुआ – और आज यह बाबा संस्कृति हमारे विवेक को निगल रही है।

हमें तय करना होगा – हम विचार को अपनाएँगे या व्यक्ति को पूजेंगे। अन्यथा हर पीढ़ी एक नया बाबा गढ़ेगी, और हर बाबा एक नई भीड़ बनाएगा।


रविवार, 23 फ़रवरी 2025

लेख: क्या भारत गृहयुद्ध के कगार पर है?

 भारत इस समय एक गंभीर सामाजिक, राजनीतिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रहा है। हालाँकि देश अभी पूर्ण रूप से गृहयुद्ध की स्थिति में नहीं है, लेकिन कई संकेतक अंदरूनी संघर्ष और हिंसा की ओर इशारा कर रहे हैं। यदि इन्हें समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत एक बड़े सामाजिक टकराव या गृहयुद्ध की चपेट में आ सकता है।

आइए इस स्थिति का गहन विश्लेषण करें और समझें कि इसे रोकने के लिए क्या किया जा सकता है।

1. भारत में गृहयुद्ध की संभावनाएँ: क्या संकेत मिल रहे हैं?

(क) बढ़ता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

  • 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ा है।

  • नागरिकता संशोधन कानून (CAA), लव जिहाद कानून, गोहत्या प्रतिबंध, धारा 370 की समाप्ति जैसी नीतियों ने मुसलमानों को हाशिए पर धकेल दिया है।

  • मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक हिंसा और नफरत भरे भाषणों में इज़ाफा हुआ है।

  • मुसलमानों को देशविरोधी, आतंकवादी, या विदेशी कहकर निशाना बनाया जा रहा है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • जब कोई बहुसंख्यक समूह (हिंदू) कट्टरपंथ की ओर झुकता है और अल्पसंख्यक समुदाय (मुसलमान) खुद को असुरक्षित महसूस करता है, तो इसका परिणाम लंबे समय तक चलने वाले दंगों या विद्रोह के रूप में हो सकता है।

  • इतिहास बताता है कि इस तरह की धार्मिक ध्रुवीकरण की स्थिति युगांडा, बोस्निया और श्रीलंका जैसे देशों में गंभीर गृहयुद्ध में बदल गई थी।

(ख) लोकतंत्र की गिरावट और राजनीतिक अधिनायकवाद

  • भारत की स्वतंत्र संस्थाएँ (न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया) सरकारी दबाव में आ रही हैं।

  • विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और दमन हो रहा है।

  • लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले हो रहे हैं—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, पत्रकारों की गिरफ्तारी, और विरोध प्रदर्शनों को दबाने की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

⚠ खतरा क्यों है?

  • जब संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से काम नहीं करतीं, तो जनता का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा टूटने लगता है।

  • यदि चुनावों को धांधली वाला या पक्षपाती माना जाता है, तो सड़कों पर संघर्ष और हिंसा का खतरा बढ़ जाता है।

(ग) आर्थिक असमानता और सामाजिक असंतोष

  • बेरोज़गारी दर उच्चतम स्तर पर है, जिससे युवा हताश हो रहे हैं।

  • गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ रही है—कुछ उद्योगपति पूरी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कर रहे हैं।

  • किसान आंदोलन (2020-21) ने दिखाया कि सरकार की नीतियों को लेकर ग्रामीण भारत में गहरा असंतोष है।

  • दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की उपेक्षा बढ़ रही है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • आर्थिक और सामाजिक असमानता लंबे समय तक असंतोष को जन्म देती है, जिससे बगावत या हिंसक आंदोलनों की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

  • यदि यह असंतोष सांप्रदायिक तनाव से जुड़ गया, तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है।

(घ) क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों का बढ़ना

  1. मणिपुर हिंसा (2023-24) – मैतेई और कुकी समुदायों के बीच जातीय संघर्ष।

  2. कश्मीर में असंतोष – धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर में अलगाववाद की भावना बढ़ी।

  3. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन का पुनरुत्थान – विदेशों में सक्रिय खालिस्तानी समूह भारत में भी उग्रवादी गतिविधियाँ बढ़ा रहे हैं।

  4. नक्सलवाद और पूर्वोत्तर विद्रोह – नागालैंड, असम और अरुणाचल प्रदेश में असंतोष गहराता जा रहा है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • भारत एक एकीकृत राष्ट्र नहीं बल्कि विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और जातीय पहचानों का समूह है। यदि केंद्र सरकार अलग-अलग समुदायों को साथ लेकर नहीं चलेगी, तो देश में आंतरिक बिखराव की संभावना बढ़ जाएगी।

2. गृहयुद्ध को रोकने के उपाय

(क) लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना

✅ न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।
✅ सीबीआई, ईडी और पुलिस का राजनीतिक उपयोग रोका जाए।
✅ चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाए।

(ख) सांप्रदायिक तनाव को कम करना

✅ हेट स्पीच और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ सख्त कानून लागू हों।
✅ धार्मिक मुद्दों को राजनीति से दूर रखा जाए।
✅ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को मजबूत करने के लिए सामाजिक संवाद को बढ़ावा दिया जाए।

(ग) आर्थिक असमानता को कम करना

✅ रोज़गार सृजन को प्राथमिकता दी जाए।
✅ गरीबों के लिए सरकारी योजनाएँ लागू की जाएँ।
✅ कृषि सुधार और ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाए।

(घ) क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों को शांत करना

✅ पूर्वोत्तर और कश्मीर के नेताओं के साथ सार्थक संवाद किया जाए।
✅ राज्यों को अधिक स्वायत्तता देकर संघीय ढाँचे को मजबूत किया जाए।
✅ मणिपुर और पंजाब जैसे संवेदनशील इलाकों में शांति प्रयास तेज किए जाएँ।

(च) जनता में जागरूकता फैलाना

✅ फेक न्यूज़ और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ अभियान चलाया जाए।
✅ संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए नागरिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।
✅ नेताओं से जवाबदेही की माँग हो—विकास और रोजगार पर ध्यान दिया जाए, न कि धार्मिक उन्माद पर।

भारत इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। यदि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, लोकतांत्रिक गिरावट, आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय संघर्षों को समय रहते नहीं रोका गया, तो देश गृहयुद्ध जैसी स्थिति में पहुँच सकता है। लेकिन अगर हम सही कदम उठाएँ, तो भारत को इस संकट से बचाया जा सकता है।

अब सवाल यह है कि क्या हमारी सरकार और समाज इस खतरे को गंभीरता से लेंगे?


सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन

आप सबको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरी पहली किताब ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ का विमोचन दिनांक 22-02-2014 को सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में हुआ। समारोह की तस्वीरें निम्नवत  हैं। जिन मित्रों को ये ग़ज़ल संग्रह चाहिए वे कृपया अपना डाक का पता मुझे [email protected] पर भेज दें।













मंगलवार, 28 जनवरी 2014

मेरी पहली किताब (ग़ज़ल संग्रह) : ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर


मेरी पहली किताब, जो एक ग़ज़ल संग्रह है, अंजुमन प्रकाशन से छप चुकी है। दिनांक 22-02-2014 को इसका विमोचन सत्य प्रकाश मिश्र सभागार, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में होना तय हुआ है। आप सभी सादर आमंत्रित हैं। कार्यक्रम का विवरण निम्नवत है।


वर्तमान में यह पुस्तक बिक्री के लिए उपलब्ध है। किताब का मूल्य भारत में मात्र रू 20/- है। पर ये किताब अकेली बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है। इसके लिए आपको आठ पुस्तकों का एक सेट खरीदना होगा जिसकी कीमत बीस रूपये प्रति पुस्तक के हिसाब से रू 160/- रूपया (डाकखर्च रू 60/- अतिरिक्त) है। यह सेट निम्नांकित कड़ी से खरीदा जा सकता है।

http://www.ebay.in/itm/ws/eBayISAPI.dll?ViewItem&item=251447766737#ht_500wt_1414

अगर आप दिनांक 22-02-2014 को इलाहाबाद में ही हैं तो ये सेट विमोचन समारोह के दौरान खरीदकर रू 60/- का डाकखर्च बचा सकते हैं।

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

आलेख : हिग्स बोसॉन का सच


ब्रह्मांड की उत्पत्ति के ‘मानक सिद्धांत’ के अनुसार दिशाएँ, समय, द्रव्य और ऊर्जा इन सबका जन्म आज से 13.7 अरब वर्ष पहले हुए एक महाविस्फोट से हुआ। महाविस्फोट के तुरंत बाद ब्रह्मांड अत्यधिक गर्म और घना था परन्तु तुरंत ही ये ठंढा होना शुरू हुआ। ठंढा होने पर महाविस्फोट के लगभग 10-43 सेकेंड बाद द्रव्य का निर्माण करने वाले मूलभूत कण बनना शुरू हुए। इन कणों को मुख्यतया दो समूहों में विभक्त किया जा सकता है, क्वार्क और लेप्टॉन (इन दोनों समूहों को सम्मिलित रूप से फ़र्मिऑन कहा जाता है)। हर समूह में 6 कण होते हैं। ये कण जोड़ों में होते हैं जिन्हें ‘पीढ़ी’ भी भी कहा जाता है। सबसे हल्के और सबसे स्थायी कणों से पहली पीढ़ी बनती है जबकि भारी और अस्थायी कण दूसरी और तीसरी पीढ़ी का निर्माण करते हैं। ब्रह्मांड के सारे स्थायी द्रव्य का निर्माण पहली पीढ़ी के कणों से हुआ है। दूसरी और तीसरी पीढ़ी के भारी कण शीघ्रता से विघटित होकर पहली पीढ़ी के कणों में बदल जाते हैं।
क्वार्कों की पहली पीढ़ी ‘अप क्वार्क’ एवं ‘डाउन क्वार्क’ से, दूसरी पीढ़ी ‘चार्म क्वार्क’ एवं ‘स्ट्रेंज क्वार्क’ से तथा तीसरी पीढ़ी ‘टॉप क्वार्क’ एवं ‘बॉटम क्वार्क’ से बनती है। इन कणों में विद्युत आवेश, वर्ण आवेश, द्रव्यमान एवं घूर्णन नामक गुण होते हैं।
इसी प्रकार लेप्टॉनों की पहली पीढ़ी ‘इलेक्ट्रान’ एवं ‘इलेक्ट्रान-न्युट्रिनो’ दूसरी पीढ़ी ‘म्युऑन’ एवं ‘म्युऑन-न्युट्रिनो’ तथा तीसरी पीढ़ी ‘टाउ’ एवं ‘टाउ-न्युट्रिनों’ से बनती है। इलेक्ट्रान, म्युऑन एवं टाउ कणों में विद्युत आवेश, द्रव्यमान एवं घूर्णन होता है जबकि न्युट्रिनो उदासीन कण होते हैं जिनका द्रव्यमान नगण्य होता है। इन कणों पर वर्ण आवेश नहीं होता।
ब्रह्मांड के ठंढा होने पर चार मूलभूत बल भी उत्पन्न हुए (ऐसा माना जाता है कि महाविस्फोट के क्षण ऊर्जा घनत्व अत्यधिक होने की स्थिति में एक ही महाबल था जो ब्रह्मांड के ठंढा होने पर चार अलग अलग बलों में बँट गया)। इन चारों बलों को ‘मजबूत नाभिकीय बल’, ‘कमजोर नाभिकीय बल’, ‘विद्युत-चुम्बकीय बल’ एवं ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ कहा जाता है। इन चारों बलों की शक्ति एवं सीमा अलग अलग होती है। ये चारों बल अलग अलग वाहक कणों के माध्यम से कार्य करते हैं। इन वाहक कणों को बोसॉन कहा जाता हैं। क्वार्क एवं लेप्टॉन परस्पर बोसॉनों का विनिमय करके ऊर्जा की असतत मात्रा का स्थानांतरण करते हैं।
मजबूत नाभिकीय बल का वाहक ग्लुऑन, कमजोर नाभिकीय बल के वाहक ड्ब्ल्यू एवं ज़ेड बोसॉन एवं विद्युत चुंबकीय बल का वाहक फोटॉन होता है। ग्लुऑन और फोटॉन द्रव्यमान रहित कण होते हैं तथा डब्ल्यू एवं ज़ेड बोसॉन काफी भारी होते हैं। इसी प्रकार गुरुत्वाकर्षण बल का वाहक ‘ग्रेविटॉन’ को माना जाता है, परन्तु अभी तक ग्रेविटॉन की प्रयोगों द्वारा पुष्टि नहीं की जा सकी है।
एक क्षण का दस लाखवाँ हिस्सा बीतते बीतते ब्रह्मांड इतना ठंढा हुआ कि तीन स्थायी क्वार्कों ने मजबूत नाभिकीय बल के प्रभाव में आकर प्रोटॉन (दो अप क्वार्क + एक डाउन क्वार्क) और न्युट्रॉन (एक अप क्वार्क + दो डाउन क्वार्क) का निर्माण किया। प्रोटॉन और न्युट्रऑन कमजोर नाभिकीय बल के प्रभाव में आए और उन्होंने एक साथ आकर नाभिक का निर्माण किया। लगभग 3,80,000 साल बाद नाभिक और इलेक्ट्रॉन विद्युतचुम्बकीय बल के प्रभाव से एक दूसरे से बँध गए और इस तरह आरम्भिक परमाणु बने जो मुख्यतया हीलियम और हाइड्रोजन परमाणु थे। अब भी ब्रह्मांड का ज्यादातर द्रव्य इन्हीं परमाणुओं से मिलकर बना है। इस घटना के लगभग 16 लाख साल बाद गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव दिखना शुरू हुआ जब इन परमाणुओं से बने बादलों ने गुरुत्व बल से संघनित होकर तारे और आकाशगंगाएँ बनाना शुरू किया। उसके बाद ब्रह्मांड लगातार ठंढा होता रहा और भारी परमाणु जैसे कार्बन, आक्सीजन और लोहा इत्यादि बनने शुरू हुए।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि महाविस्फोट के तुरंत बाद एक ही महाबल था जो बाद में चार अलग अलग बलों में बदल गया। इस प्रकार इन चारों बलों की सम्पूर्ण व्याख्या करने वाला एक ही मूलभूत सिद्धांत होना चाहिए जिससे अलग अलग परिस्थियों में ये चारों बल स्वतः उत्पन्न हों। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के मानक सिद्धांत में मजबूत, कमजोर और विद्युत-चुंबकीय बलों का एकीकरण किया जा चुका है और इनकी व्याख्या करने वाले सिद्धांत को ‘वैद्युतकमजोर सिद्धांत’ कहा जाता है। परन्तु वैद्युतकमजोर सिद्धांत की समीकरणें सही हल दें इसके लिए आवश्यक था कि सारे कण द्रव्यमान रहित हों। परन्तु हम जानते हैं कि वास्तव में ज्यादातर कणों में द्रव्यमान होता है। इस दुविधा से निकलने के लिए पीटर हिग्स, राबर्ट ब्राउट एवं फ़्रंक्वाइस एंगलर्ट ने एक समाधान प्रस्तुत किया। उन्होंने सुझाव दिया कि महाविस्फोट के तुरंत बाद सारे कण द्रव्यमान रहित थे। जैसे ही ब्रह्मांड ठंढा हुआ और इसका तापमान एक क्रांतिक ताप से कम हुआ एक अदृश्य बलक्षेत्र अस्तित्व में आया जिसे ‘हिग्स क्षेत्र’ कहते हैं और इस क्षेत्र से संबंधित वाहक कण को ‘हिग्स बोसॉन’ कहते हैं। यह क्षेत्र ब्रह्मांड में हर जगह व्याप्त है। कोई भी कण जब हिग्स क्षेत्र के प्रभाव में आता है तो उसे द्रव्यमान प्राप्त होता है। जो कण जितना अधिक इस क्षेत्र से प्रभावित होता है उसका द्रव्यमान उतना ही अधिक होता है। जो कण हिग्स क्षेत्र से प्रभावित नहीं होते वो द्रव्यमान रहित रहते हैं जैसे फोटॉन एवं ग्लुऑन।
इस विचार ने समस्या का एक संतोषजनक हल सुझाया तथा स्थापित सिद्धातों और घटनाओं के साथ अच्छा तालमेल बिठाया। पर किसी ने कभी हिग्स बोसॉन के अस्तित्व की प्रयोगात्मक पुष्टि नहीं की थी। इस कण की खोज से हमें ये पता चल सकता था कि कणों के द्रव्यमान इतने विशिष्ट क्यों होते हैं। परन्तु दिक्कत ये थी कि हम हिग्स बोसॉन के द्रव्यमान के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ थे। वैद्युतकमजोर सिद्धांत से हमें ये पता चल गया कि इस कण का द्रव्यमान कहाँ से कहाँ तक हो सकता है। इतने द्रव्यमान के कण की प्रयोगात्मक पुष्टि के लिए हमें ढेर सारी ऊर्जा की आवश्यकता थी। ये ऊर्जा केवल सापेक्षिक वेग से गतिमान प्रोटॉनों को एक दूसरे से टकराकर ही प्राप्त की जा सकती थी। इसके लिए महामशीन (लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर) का निर्माण किया गया।  
दिनांक 04.07.2012 को महामशीन द्वारा हिग्स बोसॉन के अस्तित्व की प्रयोगात्मक पुष्टि के साथ ही वैद्युतकमजोर सिद्धांत का खोया हुआ हिस्सा मिल गया है। हिग्स बोसॉन का द्रव्यमान 125.3 ± 0.6 जीईवी आँका गया है। इस कण की खोज से ब्रह्मांड की उत्पत्ति के मानक सिद्धांत को बल मिला है। अब वैज्ञानिक कणों के द्रव्यमान की उत्पत्ति संबंधी पहले से मौजूद सिद्धांतों की न केवल जाँच परख कर सकते हैं वरन इस संबंध में नए सिद्धांतों को प्रतिपादित करने का प्रयास भी कर सकते हैं। चौथे एवं आखिरी मूलभूत बल (गुरुत्वाकर्षण बल) को भी वैद्युतकमजोर सिद्धांत के साथ एकीकृत करके एक महासिद्धांत को प्रतिपादित करने के लिए भी नई दिशाएँ खुल गई हैं।
इस कण को ईश्वरीय कण भी कहते हैं और अक्सर लोग ऐसा समझते हैं कि इस कण की खोज से हमारी सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी और हम ब्रह्मांड के सारे रहस्यों की व्याख्या करने में सक्षम हो जाएँगें। ऐसा सोचना सही नहीं है क्योंकि ये कण एक बड़ी पहेली का केवल एक छोटा सा हिस्सा है। इस कण के खोजे जाने से हमें पहेली के अन्य हिस्सों को खोजने और पहेली के साथ जोड़ने में थोड़ी आसानी हो जाएगी। अभी इस कण के अन्य गुणों जैसे घूर्णन इत्यादि का अध्ययन बाकी है। बोसॉन कणों का घूर्णन पूर्णांक होता है। मानक सिद्धांत के अनुसार इसका घूर्णन शून्य होना चाहिए किंतु यदि इस कण का घूर्णन शून्य से अलग कोई और पूर्णांक हुआ तो हमें मानक सिद्धांत को संशोधित करने की आवश्यकता पड़ेगी और उस स्थिति में संभवतः श्याम ऊर्जा और श्याम द्रव्य की व्याख्या भी मानक सिद्धांत के आधार पर की जा सकेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस कण की खोज ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।