गुरुवार, 3 अगस्त 2023

नवगीत: धुँआँ उठा है नफ़रत का

पास आ गया है बेहद
जब से चुनाव फिर संसद का
राजनीति की चिमनी जागी
धुँआँ उठा है नफ़रत का

आहिस्ता-आहिस्ता
सारी हवा हो रही है जहरीली
काले-काले धब्बों ने
ढँक ली है नभ की चादर नीली

वोटर बेचारा
मोहरा भर है
पूँजी की हसरत का

धर्म-जाति का शीतल जल अब
धीरे-धीरे फिर गरमाया
बढ़ती रही अगन तो
जल जायेगी मजलूमों की काया

जनता को
अनुमान नहीं है
आने वाली आफ़त का

भगवा हो या हरे रंग का
विष तो आख़िर विष होता है
नागनाथ या साँपनाथ का
मानव ही आमिष होता है

देश अखाड़ा
घर-घर कुश्ती
देख तमाशा ताक़त का

11 टिप्‍पणियां:

  1. सारा तमाशा ताकत का ही तो है । सुंदर सृजन

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  2. वाह बहुत ही सुन्दर सार्थक समसामयिक चिंतन परक नवगीत

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. भगवा हो या हरे रंग का
    विष तो आख़िर विष होता है
    शानदार
    आभार

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