शनिवार, 30 जनवरी 2010

मेरा नन्हा गुलाब

मेरा नन्हा गुलाब,
भँवरे की तरह,
आँगन की हर फूल पत्ती को,
छेड़ता फिरता है,

अपनी गन्धित-हँसी से,
आँगन के हर कोने को,
महकाता फिरता है,

अपनी शरारतों से
आँगन के चप्पे चप्पे में,
जान डाल देता है,

अपने तोतली वाणी से
सारे आँगन को,
गुँजा देता है,

खुशियों के खजाने से,
खुशियाँ लुटाता रहता है,
सारे घर में,

और मुझे यही चिन्ता लगी रहती है,
कहीं वह काँटों की संगति में न पड़ जाय,
कहीं काँटे न चुभ न जाएँ,
मेरे नन्हें गुलाब की पंखुड़ियों में,
क्योंकि आज कल तो,
जहरीले काँटे,
हर जगह उग आते हैं,
आँगन में भी।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

मछली की तरह

एक मछली की तरह,
सारी जिन्दगी वो उसके प्रेम-जल से,
प्यास बुझाने की कोशिश करती रही,
पर उसकी प्यास नहीं बुझी,
कैसे बुझती,
वह प्रेम-जल,
कभी मछली के खून तक पहुँचा ही नहीं,
वो तो मौका मिलते ही,
पानी की तरह उसके गलफड़ों से निकलकर,
भागता रहा,
दूसरी मछलियों की तरफ।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मजदूर

एक मजदूर,
जो दिन भर काम करता है,
चिलचिलाती धूप में,
कँपकँपाती ठंढ में,
जान की बाजी लगाकर,
वो पाता है महीने के पाँच हजार;

दिन भर वातानुकूलित कमरे में बैठकर,
थोड़ी सी स्याही,
कलम की,
और थोड़ी प्रिन्टर की,
खर्च करने वाला प्रबन्धक,
पाता है महीने का दो लाख,
ये कैसा सिस्टम है?
कभी बदलेगा भी ये?

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

रेल की पटरियाँ

रेल की पटरियाँ चीखती हैं,
चिल्लाती हैं,
काँपती हैं,
पर रेलगाड़ी को क्या फर्क पड़ता है इससे,
उसे तो अपने रास्ते जाना है,
कौन कुचला जा रहा है,
पाँवों के नीचे,
इससे उसे क्या मतलब,
उसका दिल इन सबसे नहीं पसीजता,
और पटरियाँ तो बनाई ही गई हैं,
कुचली जाने के लिए,
यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है,
पर जब कभी कभी,
उनमें से एकाध विद्रोह कर बैठती है,
तो उतर जाती है रेलगाड़ी पटरी से नीचे,
और घटना राष्ट्रीय समाचार बन जाती है,
पता नही क्या जाता है रेलगाड़ी का,
पटरियों से उनका हालचाल पूछने में,
थोड़ा सा प्यार और अपनापन ही तो चाहिए उन्हें,
बदले में वो सब बता देंगी,
कौन सी पटरी कब, कहाँ टूटी है?
अपनी सारी जिन्दगी,
सारी वफादारी,
सारे कष्टों के बदले,
उन्हें क्या चाहिए,
बस थोड़ा सा प्यार और अपनापन,
क्या हम इतना भी नहीं दे सकते उन्हें।