सोमवार, 15 दिसंबर 2014

ग़ज़ल : सूखी यादें जब झड़ती हैं

सूखी यादें जब झड़ती हैं
जाकर आँखों में गड़ती हैं

अच्छा है थोड़ा खट्टापन
खट्टी चीजें कम सड़ती हैं

फ्रिज में जिनको हम रख देते
बातें वो और बिगड़ती हैं

हैं जाल सरीखी सब यादें
तड़पो तो और जकड़ती हैं

जब प्यार जताना हो ‘सज्जन’
नज़रें आपस में लड़ती हैं

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

कविता : आग

प्रकाश केवल त्वचा ही दिखा सकता है
आग त्वचा को जलाकर दिखा सकती है भीतर का मांस
मांस को जलाकर दिखा सकती है भीतर की हड्डियाँ
और हड्डियों को भस्म कर दिखा सकती है
शरीर की नश्वरता

आग सारे भ्रम दूर कर देती है
आग परवाह नहीं करती कि जो सच वो सामने ला रही है
वो नंगा है, कड़वा है, बदसूरत है या घिनौना है
इसलिए चेतना सदा आग से डरती रही है

आग को छूट दे दी जाय
तो ये कुछ ही समय में मिटा सकती है
अमीर और गरीब के बीच का अंतर

आग के विरुद्ध सब पहले इकट्ठा होते हैं
घरवाले
फिर मुहल्लेवाले
और कोशिश करते हैं कि पानी डालकर कम कर दें आग का तापमान
या काट दें प्राणवायु से इसका संबंध

आग यदि सही तापमान पर पहुँच जाय
तो सृष्टि को रचने वाले चार स्वतंत्र बलों की तरह
लोकतंत्र के चारों खम्भे भी इसके विरुद्ध इकट्ठे हो जाते हैं

गरीब आग से डरते हैं
पूँजीपति और राजनेता आग का इस्तेमाल करते हैं

सबसे पुराने वेद की सबसे पहली ऋचा ने
आग की वंदना की
ताकि वो शांत रहे
जिससे धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज पनप सकें
और इस तरह बाँटा जा सके मनुष्य को मनुष्य से

सूरज की आग ने करोड़ों वर्षों में गढ़ा है मनुष्य को
जब तक आग रहेगी मनुष्य रहेगा
आग बुझ गई तो धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज
मिलकर भी बचा नहीं पाएँगें मनुष्य को

धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज को
सबसे ज्यादा डर बच्चों से लगता है
क्योंकि बच्चे आग से नहीं डरते

बच्चे ही बचा सकते हैं इंसानियत को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज से
मनुष्य को मशीन हो जाने से
क्योंकि ब्रह्मांड में केवल बच्चे ही हैं
जो आग से खेल सकते हैं

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कविता : ईश्वर और शैतान

महाखलनायक
महानायक के साथ ही पैदा होता है

जैसे ईश्वर के साथ ही पैदा हुआ है
शैतान

शैतान और ईश्वर
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं

शैतान तब तक जियेगा
जब तक ईश्वर जिन्दा है

ईश्वर को खत्म कर दो
शैतान अर्थहीन होकर
ख़ुद-ब-ख़ुद खत्म हो जाएगा

मगर इससे पहले तुम्हें सीखना होगा
ईश्वर के बगैर जीना

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

ग़ज़ल : मैं खड़ा हूँ शक्ति, पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
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राजमहलों को बचाती इस व्यवस्था के ख़िलाफ़
मैं खड़ा हूँ शक्ति, पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़

राम, ईसा, बुद्ध, पैगम्बर हों या अंबेडकर
मैं सदा लड़ता रहूँगा व्यक्ति-पूजा के ख़िलाफ़

काट लो इसका अँगूठा माँ तलक कहने लगीं
सीखने जब लग पड़ा गुरुओं की इच्छा के ख़िलाफ़

आदमी के साथ गर हैं आप तो फिर आज से
साथ उनका दीजिए लिखते जो राजा के ख़िलाफ़

पाँव छूते ही सभी दुष्कर्म करते माफ़, यूँ,
वृद्ध चाचा चौधरी लड़ते हैं राका के ख़िलाफ़

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

कविता : शहरी साँप

शहर में पैदा हुआ और पला बढ़ा साँप
इस दुनिया का सबसे खतरनाक प्राणी है

इसे बचपन से ही आसानी से मिलने लगते हैं
झुग्गियों में ठुँसे हुए चूहे
फुटपाथ पर सोये हुए परिन्दे
छोटे छोटे घरों में बसे खरगोश
और खुद से कमजोर साँप

इन सबको जी भरकर खाते खाते
इसका पेट और इस इसकी ख़ुराक
दोनों दिन--दिन बढ़ते चलते जाते हैं

खा खाकर ये लगातार लम्बा और मोटा होता चला जाता है
इसकी त्वचा दिन--दिन चमकदार होती जाती है
और दिल--दिमाग लगातार ठंडे होते जाते हैं

लेकिन शहर जैसी भीड़भाड़ वाली जगह
इसके बढ़ते आकार और बढ़ती भूख के कारण
इसके लिए धीरे धीरे असुरक्षित होने लगती है

शहर के तेज तर्रार नेवलों और बाजों से बचने के लिए
ये भागता है जंगलों, नदियों और पहाड़ों की तरफ
जहाँ इसका जहर
हरे भरे जंगलों को झुलसा देता है
नदियों का पानी जहरीला बना देता है
बड़ी बड़ी चट्टानों को भी गला देता है

इस तरह सीधे सादे जंगलों, नदियों और पहाड़ों का शोषण करके
उन्हें दिन--दिन नष्ट करता जाता है

गाँवों में भी साँप कम नहीं होते
पर उन्हें आसानी से कभी नहीं मिलता अपना भोजन
उनका आकार और उनकी ख़ुराक
दोनों घटते बढ़ते रहते हैं
इसलिए उनमें इतना जहर कभी नहीं बनता
कि वो जंगलों, नदियों और पहाड़ों को ज्यादा नुकसान पहुँचा सकें
शहर का साँप उन्हें या तो खा जाता है
या अपने शरीर का हिस्सा बना लेता है

अंत में शहरी साँप अपने कुल देवता का विशाल मंदिर बनवाता है
और हर साल उनपर सोने का छत्र चढ़ाता है
इस तरह शहरी साँप ये निश्चित करता है
कि चूहे, परिन्दे, खरगोश, छोटे साँपजंगल, नदी और पहाड़
स्वर्ग में भी आसानी से मिल सकें

अब जबकि इस लोकतंत्र में
सर्पयज्ञ पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है
शहरी साँप अजेय है

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चुप रहकर सब सहता जाता है साबुन
इसीलिये गोरी को भाता है साबुन

आशिक, शौहर दोनों खूब तरसते हैं
हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बनी रहे सुन्दरता इसीलिए खुद को
थोड़ा थोड़ा रोज मिटाता है साबुन

सब कहते आशिक पर ख़ुद की नज़रों में
केवल अपना फ़र्ज़ निभाता है साबुन

इश्क़ अगर करना है सीखो साबुन से
मिट जाने तक साथ निभाता है साबुन

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

कविता : तितली और रेशम का कीड़ा

रेशमी परों वाली तितलियाँ हँसती हैं
और आवाज़ के रंग बिरंगे फूलों से
बगीचा महक उठता है

रेशम को दबाकर रखोगे
तो केवल उसकी कोमलता के बारे में जान पाओगे
कभी खींच कर देखना
रेशम स्टील से ज्यादा मज़बूत होता है

कोठियों की तो घास भी रेशम जैसी होती है

रेशम पहनने वाले नहीं जानते
कि इसे रेशम के कीड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए बुना था
और इसी को पाने के लिए
हज़ारों मेहनतकश कीड़ों को उबाल कर मार डाला गया

रेशम उतना ही पुराना है जितना सबसे पुराना धर्मग्रन्थ
इसीलिए ईश्वर रेशमी कपड़े पहनता है
और धर्मग्रन्थों में रेशम पहनने को पाप नहीं माना जाता

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे

बह्र : 2 1 2 2 -1 1 2 2- 1 1 2 2 – 2 2

ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे
अब ये माँगेगा शब-ओ-रोज़ बकाया मुझसे

दफ़्न कर दूँगा मैं दिल में सभी अरमाँ लेकिन
पहले उट्ठे तो इन अश्क़ों का जनाज़ा मुझसे

दर-ओ-दीवार पे चलने लगीं लाखों फ़िल्में
खुल गया क्यूँ तेरी यादों का पिटारा मुझसे

जी किया और वो उड़ के गया महबूब के पास
लाख बेहतर है इक आज़ाद परिंदा मुझसे

आतिश-ए-इश्क़ में जल जल के नया हो तू भी
कह गया रात यही बात पतंगा मुझसे

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कविता : बच्चे

बच्चों को शरारत करने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह खुलकर हँसने और रोने दो

बच्चों को बात करने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह लड़ने दो

बच्चों को खेलने दो बच्चों की तरह
बच्चों को बच्चों की तरह जिद करने दो

बच्चों को बच्चों की तरह सोने दो
गहरी नींद में

बच्चों को बच्चों की तरह सीखने दो
समय के शिक्षक से

बच्चे कभी बड़े नहीं होते
यदि उनको ज़बरन बड़ा करने की कोशिश की जाय
तो बच्चे बचपन में ही मर जाते हैं

बुधवार, 24 सितंबर 2014

ग़ज़ल : बदनाम न हो जाय तो किस काम का शायर

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

जो कह न सके सच वो महज़ नाम का शायर
बदनाम न हो जाय तो किस काम का शायर

इंसान का मासूम का मज़लूम का कहिए
अल्लाह का शायर नहीं मैं राम का शायर

कुछ भी हो सजा सच की है मंजूर पर ऐ रब 
मुझको न बनाना कभी हुक्काम का शायर

मज़लूम के दुख दर्द से अश’आर कहूँगा
कहता है जमाना तो कहे वाम का शायर

बच्चे हैं मेरे शे’र तो मक़्ता है मेरी जान
कहते हैं मेरे यार मुझे शाम का शायर

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

कविता : हे ईश्वर! अगर तुम न होते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती पुनर्जन्म की अवधारणा
तब मजलूम न ठहराते अपनी गरीबी, अपने दुखों के लिए
पूर्वजन्म के कर्मों को जिम्मेदार
और हर गली, हर सड़क पर तब तक चलता विद्रोह
जब तक गरीबी और दुख जड़ से खत्म न हो जाते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती स्वर्ग या नर्क की परिकल्पना
तब कैसे मजदूरों का हक मारकर बड़ा सा मंदिर बनवाने वाला पूँजीपति
स्वर्ग जाने या दुबारा किसी पूँजीपति के घर में जन्म लेने के बारे में सोच पाता

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो दुनिया में न होता पापों से मुक्ति पाने का तरीका
तब सारे पापी अपने पापों के बोझ तले घुट घुटकर मर जाते

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होती किस्मत की संकल्पना
तब कैसे कोई बलात्कारी या कोई अत्याचारी या ये समाज खुद से कह पाता
कि इस लड़की की किस्मत में यही लिखा था

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होता कहीं कोई धर्मस्थल
और वो सारे संसाधन जो धर्मस्थलों में व्यर्थ पड़े हैं
काम आते मजलूमों के

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो न होता कहीं कोई धर्म
न होती कहीं कोई जाति
धरती पर सिर्फ़ इंसान होता और इंसानियत होती

हे ईश्वर!
अगर तुम न होते
तो दुनिया कितनी अच्छी होती

शनिवार, 13 सितंबर 2014

ग़ज़ल : चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

बह्र : 212 1222 212 1222 (फाइलुन मुफाईलुन फाइलुन मुफाईलुन)
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सूट बूट को नायक झुग्गियाँ समझती हैं
चीथड़ों को कचरे सा कोठियाँ समझती हैं

आरियों के दाँतों को पल में तोड़ देता है
पत्थरों की कोमलता छेनियाँ समझती हैं

है लिबास उजला पर दूध ने दही बनकर
घी कहाँ छुपाया है मथनियाँ समझती हैं

सर्दियों की ख़ातिर ये गुनगुना तमाशा भर
धूप जानलेवा है गर्मियाँ समझती हैं

कोठियों के भीतर तक ये पहुँच न पायें पर
है कहाँ छुपी शक्कर चींटियाँ समझती हैं

सोमवार, 1 सितंबर 2014

कविता : बहुत कम बचे हैं इंसान

सबसे ताकतवर देश की सबसे ताकतवर कुर्सी पर बैठता है
ताकत से बना आदमी

सबसे शानदार दफ़्तर की सबसे शानदार कुर्सी पर बैठता है
पैसों से बना आदमी

सबसे अच्छे विश्वविद्यालय की सबसे अच्छी कुर्सी पर बैठता है
किताबों से बना आदमी

थोड़ा पैसा, थोड़ी किताब और थोड़ी ताकत से बनता है
बुर्ज़ुआ

थोड़ी किताब, थोड़ी कला, थोड़ा अभिनय, थोड़ा घमंड और थोड़ी अमरत्व की लालसा
इनसे मिलजुलकर बनता है कलाकार
और इन्हीं की मात्रा में थोड़ा घट बढ़ से बन जाता है साहित्यकार

झूठ और पागलपन से बनता है
धर्मगुरु

सबसे बड़े झूठ और सबसे हसीन स्वप्न से बनता है
आतंकवादी

हाड़मांस और पैसों से बनता है
खिलाड़ी

थोड़ा थोड़ा सबकुछ मिलाकर बनता है
मध्यमवर्ग

हड्डियों और आँसुओं से बनता है
गरीब

बहुत कम बचे हैं 
भावनाओं से बने इंसान
मगर इनका नाम कहीं नहीं आता
लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

ग़ज़ल : ख़ुदा के साथ यहाँ राम हमनिवाला है

बह्र : मफ़ाइलुन फ़यलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन (1212 1122 1212 22)

ख़ुदा के साथ यहाँ राम हमनिवाला है
ये राजनीति का सबसे बड़ा मसाला है

जो आपके लिये मस्जिद है या शिवाला है
वो मेरे वास्ते मस्ती की पाठशाला है

सभी रकीब हुये खत्म आपके, अब तो
वो आपको ही डसेगा मियाँ, जो पाला है 

छुपा के राज़ यकीनन रखा है दिल में कोई
तभी तो आप के मुँह पे जड़ा ये ताला है

लगे जो आपको बासी व गैर की जूठन
वही तो देश के मज़लूम का निवाला है