बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं
दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं
जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं
आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं
ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं
बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं
हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं
जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं
जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज शनिवार १८ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
धन्यवाद आदरणीया स्वेता जी
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय ओंकार जी
हटाएंदो टूक बात कह दी है बेख़ौफ़ होकर। कैसे दाद दूं इस बेहतरीन ग़ज़ल की?
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय जितेंद्र जी
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीया मीना जी
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीया अभिलाषा जी
हटाएंआखिरी पंक्तियाँ यथार्थ-चित्रण करती हैं...सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
हटाएंnice
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंhi
जवाब देंहटाएंजी
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