रविवार, 8 जुलाई 2012

कविता : तुम्हारी बारिश

विलियम वर्डसवर्थ के अनुसार कविता भावातिरेक में हुआ क्षणिक उद्गार है।
राबर्ट फ़्रास्ट के अनुसार कविता कुछ ऐसी चीज है जिसे कवि लिखते हैं।
जितने लोग उतनी परिभाषाएँ इसलिए अंततः किसी ने हारकर कहा कि कविता और प्रेम को परिभाषित करना असंभव है। पेश है भावातिरेक में हुआ एक उद्गार|
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बारिश धीरे धीरे गुनगुनाती है
वो सारे गीत जो मैं तुम्हारे लिए गाया करता था
झिल्ली और मेढक पार्श्व संगीत देते हैं

भीगी हुई सड़क से लौटती रोशनी तुम्हारी हँसी है

तुमसे प्यार करना
मूसलाधार बारिश में गाड़ी चलाने जैसा क्यों था?
उस भीषण दुर्घटना में मौत से बच जाना अभिशाप था

तुम्हारे बिना रहना हाथ पैरों के बगैर जीना है

भीगी हुई रातरानी तुम्हारे भीगे हुए नाखून के बराबर भी नहीं है

भीगे हुए पहाड़ पर एक एक करके बुझती हुई बत्तियाँ
तुम्हारे गहने हैं जो मैंने उतारे थे एक एक कर

बारिश बंद हो गई है सड़कें सूख रही हैं
काश! एक बार फिर तुम बरसतीं मेरी आत्मा की नमी सूख जाने के पहले

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

ग़ज़ल : हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

जिंदगी हो गई हाजिरी की तरह
हाजिरी हो गई जिंदगी की तरह

काम देता नहीं मेरे मन का मुझे
और कहता है कर बंदगी की तरह

प्यार करने का पहले हुनर सीख लो
फिर इबादत करो आशिकी की तरह

था वो कर्पूर रोया नहीं मोम सा
रोज जलता गया आरती की तरह

काम दफ़्तर का करते बड़े प्यार से
इश्क करते हैं वो अफ़सरी की तरह

फिर से छलिया के होंठों पे जुंबिश हुई
मीडिया बज उठी बाँसुरी की तरह

सोमवार, 2 जुलाई 2012

नवगीत : नीम तले

नीम तले सब ताश खेलते
रोज सुबह से शाम
कई महीनों बाद मिला है
खेतों को आराम

फिर पत्तों के चक्रव्यूह में
धूप गई है हार
कुंद कर दिए वीर प्याज ने
लू के सब हथियार
ढाल पुदीने सँग बन बैठे
भुनकर कच्चे आम

छत पर जाकर रात सो गई
खुले रेशमी बाल
भोर हुई सूरज ने आकर
छुए गुलाबी गाल
बोली छत पर लाज न आती
तुमको बुद्धू राम

शहर गया है गाँव देखने
बड़े दिनों के बाद
समय पुराना नए वक्त से
मिला महीनों बाद
फिर से महक उठे आँगन में
रोटी बोटी जाम

शनिवार, 23 जून 2012

कविता : पूजा


एक भी दिन तुम्हारी पूजा करना भूल जाऊँ
या अगरबत्ती जलाना भूल जाऊँ
या माला फूल चढ़ाना भूल जाऊँ
या आरती करना भूल जाऊँ
या पूजा बीच में छोड़ कर
रोते हुए बच्चे को चुप कराने लग जाऊँ
या...................
जरा सी चूक और तुम नाराज हो जाओगे

तुम्हारी कृपा पाकर मैं गरीबों से घृणा करने लग जाऊँगा
तुम्हारा क्रोध मुझसे मेरी प्रिय वस्तुएँ छीन लेगा

अतः हे देवताओं! मैं नहीं करता तुम्हारी पूजा
कृपया अपनी कृपा और अपना क्रोध
इन दोनों को मुझसे दूर रक्खो

बुधवार, 20 जून 2012

कविता : धूप


सूरज नहीं थकता
धूप थक जाती है

सूरज नहीं सोता
धूप सो जाती है

सूरज के लिए अर्थहीन है
थक कर सोना

धूप जानती है
थक कर सोने का आनंद
सुबह फिर से नई हो जाने का आनंद

सूरज के मिटने के बाद
उसका बचा अंश अँधेरे का गुलाम हो जाएगा

धूप रोज जिएगी रोज मरेगी
पर अनंतकाल तक अँधेरे से लड़ती रहेगी

शुक्रवार, 15 जून 2012

ग़ज़ल : कब्र मेरी वो अपनी बताने लगे


जिनको आने में इतने जमाने लगे
कब्र मेरी वो अपनी बताने लगे

जाने कब से मैं सोया नहीं चैन से
इस कदर ख्वाब तुम बिन सताने लगे

झूठ पर झूठ बोला वो जब ला के हम
आइना आइने को दिखाने लगे

है बड़ा पाप पत्थर न मारो कभी
जिनका घर काँच का था, बताने लगे

बिन परिश्रम ही जिनको खुदा मिल गया
दौड़कर लो वो मयखाने जाने लगे

प्रेम ही जोड़ सकता इन्हें ताउमर
टूट रिश्ते लहू के सिखाने लगे

भाग्य ने एक लम्हा दिया प्यार का
जिसको जीने में हमको जमाने लगे

रविवार, 10 जून 2012

ग़ज़ल : डाकू भी जब चुनाव के दंगल में आ गए


डाकू भी जब चुनाव के दंगल में आ गए
बंदूक ले मजदूर ही चंबल में आ गए

हर भूल चूक तेरी जलेगी या गड़ेगी
उल्लू गधे भी सुन के ये मेडिकल आ गए

हो भीड़ तो चुपचाप सहें फूल हर सितम
भँवरों ने ये सुना तो वो लोकल में आ गए

तुलसी लगा के घर में सभी गाँव के सपूत
खाने कबाब शहर के होटल में आ गए

अनपढ़ गँवार थे तो खड़े थे जमीन पर
पढ़ लिख के हम भी ज्ञान के दलदल में आ गए