रविवार, 28 सितंबर 2025

ग़ज़ल: किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा

बह्र: 1212 1122 1212 22

किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
तमाम उम्र मैं तन्हा इसी सफ़र में रहा

छुपा सके न कभी बेवकूफ़ थे इतने
हमारा इश्क़ मुहब्बत की हर ख़बर में रहा

बड़ी अजीब मुहब्बत की है उलटबाँसी
बहादुरी में कहाँ था मज़ा जो डर में रहा

नदी वो हुस्न की मुझको डुबो गई लेकिन
बहुत है ये भी कि मैं देर तक भँवर में रहा

मिली न प्यार की मंजिल तो क्या हुआ ‘सज्जन’
यही क्या कम है कि मैं उस की रहगुज़र में रहा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

जो मन में आ रहा है कह डालिए।