ओशो ने अपने वक्तव्यों में परंपरागत धर्म, व्यवस्था और सामाजिक ढकोसलों पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने ‘स्वतंत्र सोच’ और ‘स्वानुभव’ पर बल दिया, परंतु विडंबना यह रही कि उनके इर्द-गिर्द वही ‘भक्तिवाद’ उग आया जिसे वे तोड़ना चाहते थे। उन्होंने कहा था – “किसी के पीछे मत चलो”, पर आज उनके पीछे पूरी की पूरी पीढ़ियाँ चल रही हैं।
ओशो स्वयं में एक बौद्धिक विद्रोही थे, लेकिन उनकी शैली, रहन-सहन, बोलने का अंदाज़ और उनके शब्दों की आग ने भारत में एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया जो अब ‘बाबा संस्कृति’ के रूप में हमारे समाज को दीमक की तरह खा रही है।
बाबा संस्कृति क्या है? यह वह सांस्कृतिक ढांचा है जिसमें तर्क को त्याग कर किसी व्यक्ति
की वाणी को ‘सत्य’ मान लिया जाता है। जहाँ प्रश्न पूछना अपराध है और श्रद्धा का अर्थ
है – आँख मूँद लेना। यह संस्कृति अब सिर्फ आश्रमों तक सीमित नहीं रही, यह इंस्टाग्राम,
यूट्यूब, ऑनलाइन सेमिनारों और प्रीमियम मेडिटेशन कोर्सों तक फैल चुकी है।
हर दूसरा आदमी ‘जिंदगी कैसे जिएँ’ सिखा रहा है, और हर तीसरा आदमी उसके वीडियो पर ‘धन्य
हो बाबा’ लिख रहा है। ओशो के नाम पर आज जो लोग ज्ञान बेच रहे हैं, वे अक्सर उन्हीं
बातों को दोहराते हैं – बस अंदाज़ नया है, प्लेटफॉर्म डिजिटल है, और भक्त ज्यादा कॉर्पोरेट
हैं।
सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि असली ‘आत्मचिंतन’ और ‘जिज्ञासा’ को इसने सतही ‘हीलिंग’, ‘वाइब्स’ और ‘एनर्जी’ से बदल
दिया है। जीवन की गहराइयों की जगह अब सतही पॉजिटिविटी बिक रही है।
यह बाबा संस्कृति अब न सिर्फ व्यक्ति की चेतना को कुंद कर रही है, बल्कि समाज को भी
एक भीड़ में बदल रही है – जहाँ हर कोई जवाब सुनना चाहता है, पर सवाल पूछने की हिम्मत
नहीं रखता।
ओशो ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनका विचार संसार एक दिन उस अंधभक्ति की फैक्ट्री
बन जाएगा जिससे वे जीवन भर लड़ते रहे। पर ऐसा हुआ – और आज यह बाबा संस्कृति हमारे विवेक
को निगल रही है।
हमें तय करना होगा – हम विचार को अपनाएँगे या व्यक्ति को पूजेंगे। अन्यथा हर पीढ़ी एक नया बाबा गढ़ेगी, और हर बाबा एक नई भीड़ बनाएगा।
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