रविवार, 20 मई 2012

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

भीड़ भरे
इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर 
यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे 
प्रश्नपत्र में 
यह रचना भी आई थी, पर
इसके हल से 
कभी न मिलते
मुझको वे मनचाहे नंबर

सुंदर, सरल
कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये 
मुक्तिबोध की
छोड़ गया पर भूल न पाया
आखिर इस
चौराहे पर 
आकर मैं इससे फिर टकराया

आई होती 
तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना

3 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी जिसको हम इग्नोर कर देतें हैं वही बात प्रश्न बनकर कभी न कभी सामने आकर खड़ी हो जाती है ..बहुत अच्छी रचना ..बधाई धर्मेन्द्र जी

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  2. आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।