बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
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इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है
इसकी
जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी
धक्कों
से कब दिलों की दीवार टूटती है
हैं
लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है
हथियार
ले के आओ, औजार ले के आओ
कब
प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है
रिश्ते
बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर
शर्मोहया
की जब भी दीवार टूटती है
लाजवाब बहर में कमाल गजल ... दूसरा शेर तो सीघे दिल में उतर गया ...
जवाब देंहटाएंलोगों कि इज्जत बड़ी छोटी हो गयी है, प्यार कर लेने से घटने लगती है माध्यम वर्गीय परिवारों कि इज्जत, बेहद खूबसूरत गजल
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत गजल
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति.
waah! kya baat hai! bahut khoob sir:-)
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