रविवार, 22 नवंबर 2009

हाय मेरा जीवन निःसार!

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

बीत गया जब मेरा यौवन,

उतर गया सारा पागलपन,

फिर जब मिला वही सूनापन,

भटकने लगा फिर प्यासा मन,

तब जाकर मालूम हुआ सच क्या था मेरे यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

 

मैं समझा था उसके मन में,

उसके जीवन में कन-कन में,

मैं उसके नयनों में, दिल में,

प्राणों के रिलमिल-झिलमिल में,

उतर गया उसके नयनों से,

यौवन का पागलपन जब से,

नेत्रों में पहले सी ही थी प्यास प्यार की यार,

मैं यौवन के पागलपन को समझे था यह प्यार,

हाय मेरा जीवन निःसार!

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

तूफान भी मेरे आँगन में, मृदु झोंके सा लहराता है,

दिनकर भी नन्हें बालक सा हो मचल-मचल इठलाता है,

सागर को गागर में भरकर, अपने आँगन में रखता हूँ,

ऐसे जाने कितने त्रिभुवन, मैं रोज बनाया करता हूँ,

मतवाली हो जाओगी, यदि आँशिक भी मुझको जाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

 

मैं सागर को मरूथल के वक्षस्थल में खोजा करता हूँ,

रवि के भीतर होगा हिमनिधि, अक्सर मैं सोंचा करता हूँ,

है चिता भस्म में मैंने पायी नवजीवन की चिंगारी,

हूँ देख चुका मैं मध्यरात्रि में दिनकर को कितनी बारी,

प्रेयसि मैं कवि हूँ,, घातक होगा, मुझसे प्रीत लगाना,

मुझसे दूर ही रहना, मेरे पास न आना।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,

बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,

बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,

नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,

कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,

मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,

फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,

वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,

जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

बुधवार, 11 नवंबर 2009

विद्रोहों को स्वर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जब-जब तुम बने शांतिप्रिय जन,

तब-तब लूटें तुमको दुर्जन,

हो बहुत सह चुके बन सज्जन, तुम क्रांति आज कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

हम सबकी ही मेहनत का धन,

स्विस बैंकों में धर, कर निर्धन

हमको, करते जो ऐश सखे, टुकड़े हजार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जनता है जिनसे ऊब चुकी,

सेना भी है सह खूब चुकी,

उन भारत के गद्दारों में, सब मिल कर भुस भर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

 

जो लड़ते हैं जा संसद में,

जूतों लातों से, घूँसों से,

उन सारे लंठ गँवारों को, तुम तार तार कर दो।

विद्रोहों को स्वर दो।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मैं नहीं मानता हूँ भगवन

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

तू नहीं मिला मुझको ईश्वर, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में,

मालाओं में, शिवलिंगों में, लोगों के ठाकुरद्वारों में,

मैंने देखा तुझको हँसते, नन्हें बच्चों के तन-मन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

 

मठ के सब सन्त-महन्तों से, हर धर्म-ग्रन्थ के खण्डों से,

मैं पूछ थका तेरा ऐड्रेस,  मौलवी-पुजारी-पण्डों से,

तब मिला नाचते इक अंधे के मंजीरे की झन-झन में,

मैं नहीं मानता हूँ भगवन, तू बसता जग के कन-कन में।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

पाँच सरकारी हाइकु

पूछते नहीं,

राज्य की फाइलों से;

उम्र उनकी।

 

मक्खी गयी थी,

दफ्तर सरकारी;

मरी बेचारी।

 

खून चूस के,

जोंकें ये सरकारी;

माँस भी खातीं।

 

वादों का हार,

पहना के नेताजी;

हैं तड़ीपार।

 

घोंघे की गति,

सरकारी कामों से,

ज्यादा है तेज।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

इक भूखे को दुत्कार कर,

तू पूण्य बहु अर्जित करेगा,

मूर्ति पर पय ड़ालकर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

तू चाहे जितने पाप कर,

धुल जायेंगे सब पाप पर,

गंगा में डुबकी मार कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ।

 

धर्म कहता है अगर,

लाखों धरों को तोड़कर,

मन्दिर बना दे एक तो,

तुझको मिलेगा स्वर्ग, गर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

 

धर्म कहता है अगर,

जो धर्म के तेरे नहीं,

जन्नत मिलेगी यदि,

तू उनको मारेगा जेहाद कर,

तो मैं अधर्मी ही भला हूँ ।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

जिसको मैंने समझ देवता,

बचपन से था निसिदिन पूजा,

यूँ ही अगर अचानक निकले,

वो राक्षस से भी बदतर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

ये धर्म-स्वर्ग, ये रीति-रिवाज,

पाप-पूण्य, ये नियम-समाज,

जब एक समय की ठोकर से,

जायें सारे विश्वास बिखर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

सारे जीवन का श्रम देकर,

जो एक बनाया मैंने घर,

वह तनिक हवा के झोंके से,

हो जाता है गर तितर-बितर;

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

 

प्रथम बार चाहा दिल की,

भीतरी तहों से जिसे टूटकर,

वह निकले मूर्ति सजीव,

वासना की हे मेरे देव अगर,

मैं कैसे भक्ति करूँ ईश्वर।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जीवन में पहली बार किया, जब उससे मैंने प्यार किया,

जग बोला है ये प्यार नहीं, है नासमझी ये बचपन की,

मेरे उन कोमल भावों को, उन भोली-मीठी आहों को,

यूँ बेदर्दी से कुचल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

उसका दिल तोड़ बना निदर्यी, जग बोला यार है यही सही,

जिसमें हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर यार वही,

मेरे पापों को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर,

जग ने जाने क्या पाया?

मैं कभी न यार समझ पाया,

मैं कभी न प्यार समझ पाया।

 

जग कहता अब इससे प्यार करो, इस पर जीवन न्यौछार करो,

मेरे भीतर का प्रेम कुचल, और वहीं चला नफरत का हल,

हैं बीज घृणा के जब बोये, किस तरह प्रेम पैदा होये?

अब कहता सारा जग मुझसे,

तू कभी न यार समझ पाया,

तू कभी न प्यार समझ पाया।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

स्वर्ग-नर्क

स्वर्ग-नर्क की बात सोचकर

बाल न अपने नोंच,

दोनों में कुछ अन्तर है

तो वो है अपनी सोंच;

 

स्वर्ग सुखी है बड़ा

वहाँ परियाँ हैं आतीं,

यही सोचकर नर्क

दुखी है मेरे साथी;

 

नर्क में बड़ा कष्ट

वहाँ राक्षस तड़पाते,

यही सोचकर स्वर्ग

में सभी हँसते-गाते;

 

इतनी सी है बात

न दोनों में अन्तर है,

बाकी सब विद्वानों का

जन्तर-मन्तर है।

नहीं चाहता

नहीं चाहता बन पग पैजनिं, मैं उसके चरणों को चूमूँ,

न चाहत बन पदत्राण, यारों मैं उसके संग-संग घूमूँ;

 

ये कभी नहीं चाहा मैंने, बन नथ उसकी सांसों का रस लूँ,

ना ये अभिलाषा है मेरी, बन वस्त्र उसे बाहों में कस लूँ;

 

नहीं चाहता बन कंगन, उसके कोमल हाथों को छूलूँ,

नही अभीप्सित बन बिंदिया, सजकर मस्तक पर खुद को भूलूँ;

 

मेरी अभिलाषा यही प्रिये, जब शून्य-चेतना हो तेरा तन,

वरण तुझे कर चुकी मृत्यु हो, दें तुझको दुत्कार सभी जन;

 

तब मैं बन चन्दन की लकड़ी, तुझको निज बाँहों में भर लूँ;

यदि तुझे जलायें लोग प्रिये, तो मैं भी तेरे साथ जलूँ;

 

बन राख,, लगाकर गले, अस्थियों को तेरी समझूँगा मैं,

मेरा धरती पर आना हुआ सफल, विस्वास करूँगा मैं।

सहयात्री मिल जाते

सहयात्री मिल जाते!

 

इस जीवन यात्रा के क्षण दो-

क्षण तो मधुरिम हो जाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

कुछ समीप की कुछ सुदूर-

की हो जातीं कुछ बातें;

सहयात्री मिल जाते!

 

वो कुछ कहते, हम कुछ-

कहते, हँसते और हँसाते;

सहयात्री मिल जाते!

 

क्षण भर के ही पर कुछ-

बन्धन औरों से बँध जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

कुछ पल उड़ते पंख

लगाकर यूँ ही आते-जाते;

सहयात्री मिल जाते।

 

इस लम्बी यात्रा के कुछ-

क्षण स्मृतियों में बस जाते;

सहयात्री मिल जाते।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

देवी तुम जाओ मन्दिर में

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे घर में क्यों आओगी?

मुझ गरीब से क्या पाओगी?

धूप, द्वीप, नैवेद्य, फूल, फल,

स्वर्ण-मुकुट, पावन-गंगाजल,

पीताम्बर औ’ वस्त्र रेशमी,

मेरे पास नहीं ये कुछ भी,

कैसे रह पाओगी सोंचो, तुम मेरे छोटे से घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

मेरे श्रद्धा सुमनों में देवि,
है रंग नहीं,
है गंध नहीं,

है गागर प्रेम भरी उर में,

पर बुझा सकेगी प्यास नहीं,

हैं पूजा के स्वर आँखों में,

पर है उनमें आवाज नहीं,

कैसे पढ़ पाओगी भावों को, उठते जो मेरे उर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

 

तुमको भाती है उपासना,

लोगों का कातर हो कहना,

"देवी ये मुझको दे देना,

देवी उससे वो ले लेना,

देवी इसको अच्छा करना,

उससे मेरी रक्षा करना,"

कैसे मांगोगी तुम मुझसे, छोटी छोटी चीजें घर में?

देवी तुम जाओ मन्दिर में।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

साहब बोले (हाइकु कविता)

साहब बोले,
"नींबू मीठा होता है"
मैं बोला, "हाँ जी"।

साहब बोले,
"चीनी फीकी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।

साहब बोले,
"मिर्ची खट्टी होती है"
मैं बोला, "हाँ जी"।

साहब बोले,
"मैं बनूँगा एम डी?"
मैं बोला, "हाँ जी"।

मैं बोला, "सर
दस दिन की छुट्टी
है मुझे लेनी"।

"जा अब छुट्टी,
बड़ा काम है किया"
साहब बोले।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

सात हाइकु

आँसू तुम्हारे,

मेरे लिये बहे क्यों,

पराया हूँ मैं।

 

नशा हो गया,     

जो मैंने पिया प्याला,

आँखो से तेरी।

 

छू दे प्यार से,

वो पत्थर को इंसा,

करे पल में।

 

मधुशाला हो,

न हों आँखें तेरी, तो

चढ़ती नहीं।

 

मधु है, या है

ये, अमृत का प्याला,

या लब तेरे।

 

बिजली गिरी,

न थी छत भी जहाँ,

उसी के यहाँ।

 

उँचा पहाड़,

बगल में है देखो,

गहरी खाई।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

शायरी

१- कहाँ कहाँ नहीं खोजा तुमने, एक कतरा सच्ची मोहोब्बत का।

   कभी तो गौर से ऐ दोस्त, मेरी आँखों में भी देखा होता ।।

२- आँखो तक आया प्यार, निकल कर बह न सका।

   तुम समझ न पाये यार, और मैं कह न सका।।

३- काँटे टूट गये छूकर हमको, फूलों ने लहूलुहान कर दिया।

   दुश्मन काँपते रहे डर से, दोस्तों ने परेशान कर दिया।।

४- ये राह ए इश्क है, जरा संभलना, यहाँ कदम कदम पर दर्द मिलते हैं।

   सूरत पे मत जाना दोस्तों, अक्सर, इस राह पर लोग बडे बेदर्द मिलते हैं।।

५- चलो मेरा उनको छेड़ना कुछ काम तो आया,

   बदनाम करने को ही सही,

   उनकी जुबाँ पे मेरा नाम तो आया।

 ६- मत छूना अपने होठों से, जल जायेंगे सब गीत मेरे।

   हैं छन्द मेरे प्रेयसि मधुमय, अंगारे हैं ये अधर तेरे।

७- कितनी भी ड़ालियाँ बदल ले, कितना भी मीठा बोल ले

   इस जमाने की सदा यही रीत है रही,

   तुझे सुन के सब चले जायेंगे कोयल, कोई तुझे पालेगा नहीं।

८- कितने भी गहरे भाव लिखें हम, कविता कहलायेंगे।

   तुम छू दो होंठों से शब्दों को, गीत वो बन जायेगें ।।

९- कभी किसी को टूटकर प्यार मत करना, वरना,

   हल्की सी ठोकर से तुमको पड़ जायेगा बिखरना ।

तब याद बहुत तू आती है

तब याद बहुत तू आती है।

 

जब किसी पुरानी पुस्तक में, कुछ खोज रहा होता हूँ मैं,

और यूँ ही तभी अचानक मुझको, उस पुस्तक के पन्नों में,

सूखी पंखुडि़याँ गुलाब के फूलों की रक्खी मिल जाती हैं;

तब याद बहुत तू आती है।

 

सावन के मस्त महीने में, जब हरियाली छा जाती है,

झूले पड़ जाने से जब पेड़ों की डाली लहराती है,

उन झूलों पर बैठी कोई लड़की कजरी जब गाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

वह नन्हा-मुन्हा कमरा जिसमें हम-तुम बैठा करते थे,

गुडड़े-गुडि़या, राजा-रानी, जब हम-तुम खेला करते थे,

उस कमरे को तुड़वाने की माँ जब भी बात चलाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

एमए, एमबीए, एमसीए और ये तो एमबीबीएस है,

ये लडकी वैसे अच्छी है, पर अब भी लगती बच्ची है,

ऐसा कहकर मम्मी मेरी, जब-जब भी मुझे चिढ़ाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

 

अक्सर गर्मी की छुट्टी में, जब गाँव चला मैं जाता हूँ,

और कटे हुए गेहूँ के खेतों मैं खुद को पाता हूँ,

रस्ते पर जाती जब कोई अल्हड़ लड़की दिख जाती है,

तब याद बहुत तू आती है।

भगवान बन गया मैं देखो

भगवान बन गया मैं देखो।

 

निदोर्षों की चीत्कारों से, हिलतीं मन्दिर की दीवारें,

कितनी अबलाओं की लज्जा, लुटती देखो मेरे द्वारे,

पर मुझको क्या मतलब इससे,

मेरे आँख कान सब पत्थर के,

इन्सान नहीं अब हूँ मैं तो,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

हिन्दू हों या मुस्लिम या सिख, डरते हैं मुझसे यार सभी,

मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में झुकते हैं कितनी बार सभी,

हैं काँप रहे सब ही थर-थर,

करते जय-जय मेरी डरकर,

जब चाहूँ खत्म करूँ इनको,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

इन्सानों का जीवन-तन-मन, ये इनके भावुक आकर्षण,

इनके रिश्ते, नाते, अस्मत और कहते ये जिसको किस्मत,

ये प्यार मोहोब्बत इनके रे,

सब खेल-खिलौने हैं मेरे,

जैसे चाहूँ तोडूँ इनको,

भगवान बन गया मैं देखो।

 

मेरी मर्जी अकाल ला दूँ, या बाढ़ जमीं पर फैला दूँ,

जब चाहूँ इन धमार्न्धों में, धामिर्क दंगे मैं करवा दूँ,

करवा दूँ मैं कुछ भी इनमें,

मेरी ही जय बोलेंगे ये,

इस कदर डरा रक्खा सबको,

भगवान बन गया मैं देखो।

कैसे आऊंगा मैं तेरी शादी में

कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?

 

तुझे किसी और की होते, कैसे देख पाऊँगा मैं?

तेरी शादी में;

 

दिल रो रहा होगा मेरा,

तो आँसू आँखों के कैसे रोक पाऊँगा मैं?

तेरी शादी में;

 

तू उन्हें देख शर्मा के मुस्कायेगी,

आग सी मेरे तन-मन में लग जायेगी,

खाक हो जाऊँगा मैं,

तेरी शादी में;

 

वरमाला जो तू पिया को पहनायेगी,

फंदा बन के गला मेरा दबायेगी,

घुट के मर जाऊँगा मैं,

तेरी शादी में;

 

संग पिया के जब तू होगी विदा,

भूल जाऊँगा मैं क्या है अच्छा-बुरा,

ड़रता हूँ कि कत्ल-ए-आम कर जाऊँगा मैं,

तेरी शादी में;

 

कैसे आऊँगा मैं तेरी शादी में?

औपचारिकतायें

मैं भी वही हूँ, तुम भी वही हो,

मित्र कहता हूँ मैं तुम्हें अब भी,

पर अब वो बात नहीं रही, जो कल थी,

कहीं कुछ,

या शायद बहुत कुछ टूट चुका है,

हमारे भीतर कोई,

एक दूसरे से रूठ चुका है,

तुम जो कहते हो,

अब भी करता हूँ मैं,

मनुहार करता था पहले,

अब नहीं करता मैं,

पर अब एक उदासीनता सी रहती है करने में,

वह खुशी नहीं जो पहले होती थी,

समाज की नजर में,

अपनी दोस्ती का, अपने रिश्ते का,

फर्ज निभा रहा हूँ,

या कहूँ कि बोझ उठा रहा हूँ,

अहित मैं तुम्हारा अब भी नहीं चाहता,

पर अब तुम्हारे हित में अपना हित नहीं महसूस करता,

तुम्हारी खुशी में मुझे खुशी नहीं मिलती,

दुख में दुख का अहसास नहीं होता,

केवल औपचारिकताएँ पूरी करता हूँ ।

कितनी ही बार...

कितनी ही बार..... बगीचों में,

फूलों की क्यारियों के बीच से गुजरते हुए,

उनसे उठती मादक खुशबुओं में,

मैंने महसूस की हैं..... तेरी साँसे।

 

कभी कोयल की कूक में, कभी झरनों की कल-कल में,

कभी झींगुरों की झन-झन में, कभी हवाओं की सन-सन में,

कभी पपीहे की पुकार में, कभी पायल की झनकार में,

मेरे कानों ने सुनी हैं.... तेरी बातें।

 

गंगा के तट पर बैठकर,

दूर आसमान में... कितनी ही सुहानी शामों को,

सिंदूरी रंगत के बनते बिगड़ते बादलों में,

कितनी ही बार मैंने देखा है.... तेरा शर्म से लाल चेहरा।

 

तपती हुई गमिर्यों में,

मैदानों से दूर पहाड़ों की ठंढ़क में,

वहाँ बिखरी फैली हिरयाली में,

मैनें अक्सर देखा है उड़ता हुआ.... तुम्हारा वो हरा दुपट्टा।

 

कितनी ही बार कहीं अकेले में बैठकर,

तुम्हारे बारे में ही सोचते हुए,

अपनी आँखों में मैंने पाये हैं..... तुम्हारे आँसू।

 

कितनी ही बार..... कितनी ही बार.....।

रविवार, 13 सितंबर 2009

रोज ही

एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।

कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।

लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

मैंनें ईश्वर को मन्दिर में

मैंने ईश्वर को मंदिर में, बिलख-बिलख रोते देखा है।

 

पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित, ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे,

धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध औ’ चरणामृत का पान कर रहे,

इक छोटे काले पत्थर को, ईश्वर पर हँसते देखा है।

 

मंदिर के बाहर वट-नीचे, गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर,

उस ईश्वर के एक अंश को, क्षुधा-प्यास से व्याकुल होकर,

लोगों की फेंकी जूठन भी, बिन-बिन कर खाते देखा है।

 

दीवारों पर कबसे बैठीं, निर्धन-निर्बल की चाहों को,

पूरी कर देने की उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को,

जय-जय की पागल ध्वनियों में दब, घुटकर मरते देखा है।

 

स्वर्ग-नर्क की जंजीरों से, पाप-पूण्य की तस्वीरों में,

बुरी तरह से कैद हो गये, भोले ईश्वर के हाथों में,

विश्व-प्रेम के सूर्ख-जलज को, मैंने कुम्हलाते देखा है।

 

मन्दिर के ही एक अंधेरे, सीलन भरे, किसी कोने में,

नफरत-स्वार्थ और पापों के, भालों से छलनी सीने में-

से बहकर प्रभु-अमिय-रक्त को मिट्टी में मिलते देखा है।

 

तड़प रहे ईश्वर की चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर,

और राख में धर्म-जाति की घृणा-स्वार्थ का ज़हर मिलाकर,

कथित धर्मगुरुओं को फिर से, धर्म ग्रन्थ लिखते देखा है।


रविवार, 6 सितंबर 2009

सरस्वती वन्दना

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह मोहन राग सुनाओ, तन-मन सब की सुधि भूलूँ,

इस दुनिया से ऊपर उठ, कुछ देर हवा में झूलूँ,

हम-तुम-वह, सब मिट जाए, क्षण भर को वह स्वर गाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

है सदा विजय की चाहत, माँ बहुत बुरी है यह लत,

जब कभी हार जाता हूँ, हफ्तों ना मिलती राहत,

कुछ हार सहन करने की, भी शक्ति मुझे दे जाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

वह शक्ति मुझे दो अम्बे, संघर्ष सत्य जब जानूँ,

मंत्र-वेद-विधि-गुरु-ईश्वर, तक से भी हार न मानूँ

मैं सत्य-मार्ग ना छोडूँ, वह ज्ञान-ज्योति दिखलाओ;

फिर वीणा मधुर बजाओ।

 

इस स्वार्थ-घृणामय जग में, कुछ अमर प्रेम स्वर भर दो,

फिर प्रेम-मल्हार सुनाकर, नभ प्रेम-मेघमय कर दो,

जग प्रेम-प्लवित हो जाए, वह प्रेम-धार बरसाओ।

फिर वीणा मधुर बजाओ।