शुक्रवार, 4 मार्च 2016

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का : ग़ज़ल

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का
जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब
जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि
अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब
ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को
वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का

मंगलवार, 1 मार्च 2016

ग़ज़ल : तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

सभी पैरहन हम भुला कर चले
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले
जो मज़लूम का हक पचा कर चले

गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले

अकेले कभी अब से होंगे न हम
वो हमको हमीं से मिला कर चले

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा
अगर चींटियों को बचा कर चले

तरस जाएगा एक बोसे को भी
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर चले

लगे अब्र भी देशद्रोही उन्हें
जो उनके वतन को हरा कर चले

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

नवगीत : काले काले घोड़े

पहुँच रहे मंजिल तक
झटपट
काले काले घोड़े

भगवा घोड़े खुरच रहे हैं
दीवारें मस्जिद की
हरे रंग के घोड़े खुरचें
दीवारें मंदिर की

जो सफ़ेद हैं
उन्हें सियासत
मार रही है कोड़े

गधे और खच्चर की हालत
मुझसे मत पूछो तुम
लटक रहा है बैल कुँएँ में
क्यों? खुद ही सोचो तुम

गाय बिचारी
दूध बेचकर
खाने भर को जोड़े

है दिन रात सुनाई देती
इनकी टाप सभी को
लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस अभी तक
ढूँढ़ न पाई इनको

घुड़सवार काले घोड़ों ने
राजमहल तक छोड़े

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

नवगीत : रुक गई बहती नदी

काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही

सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे

धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई

गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे

उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी

चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पर्वतों के बीच की
सीती रहो
मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी

बुधवार, 20 जनवरी 2016

ग़ज़ल : बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अच्छी बात वही जिसको मर्जी अपनाती है
बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है

मज़लूमों का ख़ून गिरा है, दाग न जाते हैं
चद्दर यूँ तो मुई सियासत रोज़ धुलाती है

रोने चिल्लाने की सब आवाज़ें दब जाएँ
ढोल प्रगति का राजनीति इसलिए बजाती है

फंदे से लटके तो राजा कहता है बुजदिल
हक माँगे तो, जनता बद’अमली फैलाती है

सारा ज्ञान मिलाकर भी इक शे’र नहीं होता
सुन, भेजे से नहीं, शाइरी दिल से आती है

रविवार, 17 जनवरी 2016

कविता : मेंढक और कुँआँ

हर मेंढक अपनी पसंद का कुँआँ खोजता है
मिल जाने पर उसे ही दुनिया समझने लगता है

मेढक मादा को आकर्षित करने के लिए
जोर जोर से टर्राता है
पर यह पूरा सच नहीं है
वो जोर जोर से टर्राकर
बाकी मेंढकों को अपनी ताकत का अहसास भी दिलाता है
और बाकी मेंढकों तक ये संदेश पहुँचाता है
कि उसके कुँएँ में उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले मेंढक ही आ सकते हैं

गिरते हुए जलस्तर के कारण
कुँओं का अस्तित्व संकट में है
और संकट में है कुँएँ के मेंढकों का भविष्य
इसलिए वो जोर शोर से टर्रा रहे हैं

मैं अक्सर यह सोचकर काँप जाता हूँ
कि यदि कुँएँ के इन मेंढकों को
ब्रह्मांड की विशालता
और अपने कुँएँ की क्षुद्रता का अहसास हो गया
तो वो सबके सब सामूहिक आत्महत्या कर लेंगे

जो वाद
प्रतिवाद नहीं सह पाता
मवाद बन जाता है

समय इंतज़ार कर रहा है
घाव के फूट कर बहने का

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

ग़ज़ल : ज़िन्दगी सुन, ज़िन्दगी भर रख मुझे गुमनाम तू

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

जो मुझे अच्छा लगे करने दे बस वो काम तू
ज़िन्दगी सुन, ज़िन्दगी भर रख मुझे गुमनाम तू

जीन मेरे खोजते थे सिर्फ़ तेरे जीन को
सुन हज़ारों वर्ष की भटकन का है विश्राम तू

तुझसे पहले कुछ नहीं था कुछ न होगा तेरे बाद
सृष्टि का आगाज़ तू है और है अंजाम तू

डूबता मैं रोज़ तुझमें रोज़ पाता कुछ नया
मैं ख़यालों का शराबी और मेरा जाम तू

क्या करूँ, कैसे उतारूँ, जान तेरा कर्ज़ मैं
नाम लिख मेरा हथेली पर, हुई गुमनाम तू

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

ये झूठ है अल्लाह ने इंसान बनाया
सच ये है के आदम ने ही भगवान बनाया

करनी है परश्तिश तो करो उनकी जिन्होंने
जीना यहाँ धरती पे है आसान बनाया

जैसे वो चुनावों में हैं जनता को बनाते
पंडों ने तुम्हें वैसे ही जजमान बनाया

मज़लूम कहीं घोंट न दें रब की ही गर्दन
मुल्ला ने यही सोच के शैतान बनाया

सब आपके हाथों में है ये भ्रम नहीं टूटे
यह सोच के हुक्काम ने मतदान बनाया

हर बार वो नौकर का इलेक्शन ही लड़े पर
हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

नवगीत : भौंक रहे कुत्ते

हर आने जाने वाले पर
भौंक रहे कुत्ते

निर्बल को दौड़ा लेने में
मज़ा मिले जब, तो
क्यों ये भौंक रहे हैं, इससे
क्या मतलब इनको

अब हल्की सी आहट पर भी
चौंक रहे कुत्ते

हर गाड़ी का पीछा करते
सदा बिना मतलब
कई मिसालें बनीं, न जाने
ये सुधरेंगे कब

राजनीति, गौ की चरबी में
छौंक रहे कुत्ते

गर्मी इनसे सहन न होती
फिर भी ये हरदम
करते हरे भरे पेड़ों से
बातें बहुत गरम

हाँफ-हाँफ नफ़रत की भट्ठी
धौंक रहे कुत्ते

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है
जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं
मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है

मार्क्सवाद की बातें कर के जो हथियाता है सत्ता
कुर्सी मिलते ही वो फौरन माल कूटने लगता है

जिसे लूटना हो कानूनन मज़लूमों को वो झटपट
ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है

बेघर होते जाते मुफ़लिस, तेरे घर बढ़ते जाते
देख यही तुझ पर मेरा विश्वास टूटने लगता है