शनिवार, 19 मार्च 2016

ग़ज़ल : झूठ मिटता गया देखते देखते

२१२ २१२ २१२ २१२

झूठ मिटता गया देखते देखते
सच नुमायाँ हुआ देखते देखते

तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी
कैसा जादू हुआ देखते देखते

तार दाँतों में कल तक लगाती थी जो
बन गई अप्सरा देखते देखते

झुर्रियाँ मेरे चेहरे की बढने लगीं
ये मुआँ आईना देखते देखते

वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा
हो गया रतजगा देखते देखते

शे’र उनपर हुआ तो मैं माँ बन गया
बन गईं वो पिता देखते देखते

बुधवार, 16 मार्च 2016

ग़ज़ल : सूर्य से जो लड़ा नहीं करता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता
वक़्त उसको हरा नहीं करता

सड़ ही जाता है वो समर आख़िर
वक्त पर जो गिरा नहीं करता

जा के विस्फोट कीजिए उस पर
यूँ ही पर्वत हटा नहीं करता

लाख कोशिश करे दिमाग मगर
दिल किसी का बुरा नहीं करता

प्यार धरती का खींचता इसको
यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता

मंगलवार, 8 मार्च 2016

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम (ग़ज़ल)

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम
उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम

मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो
महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम

ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा
कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम

हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम

बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे
ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो तुम

चमक वही, वो गरजना, तुरंत ही बारिश
खफ़ा हुई तो ज्यूँ बदली में आ गई हो तुम

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का : ग़ज़ल

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का
जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब
जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि
अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब
ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को
वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का

मंगलवार, 1 मार्च 2016

ग़ज़ल : तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

सभी पैरहन हम भुला कर चले
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले
जो मज़लूम का हक पचा कर चले

गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले

अकेले कभी अब से होंगे न हम
वो हमको हमीं से मिला कर चले

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा
अगर चींटियों को बचा कर चले

तरस जाएगा एक बोसे को भी
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर चले

लगे अब्र भी देशद्रोही उन्हें
जो उनके वतन को हरा कर चले

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

नवगीत : काले काले घोड़े

पहुँच रहे मंजिल तक
झटपट
काले काले घोड़े

भगवा घोड़े खुरच रहे हैं
दीवारें मस्जिद की
हरे रंग के घोड़े खुरचें
दीवारें मंदिर की

जो सफ़ेद हैं
उन्हें सियासत
मार रही है कोड़े

गधे और खच्चर की हालत
मुझसे मत पूछो तुम
लटक रहा है बैल कुँएँ में
क्यों? खुद ही सोचो तुम

गाय बिचारी
दूध बेचकर
खाने भर को जोड़े

है दिन रात सुनाई देती
इनकी टाप सभी को
लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस अभी तक
ढूँढ़ न पाई इनको

घुड़सवार काले घोड़ों ने
राजमहल तक छोड़े

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

नवगीत : रुक गई बहती नदी

काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही

सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे

धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई

गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे

उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी

चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पर्वतों के बीच की
सीती रहो
मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी

बुधवार, 20 जनवरी 2016

ग़ज़ल : बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अच्छी बात वही जिसको मर्जी अपनाती है
बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है

मज़लूमों का ख़ून गिरा है, दाग न जाते हैं
चद्दर यूँ तो मुई सियासत रोज़ धुलाती है

रोने चिल्लाने की सब आवाज़ें दब जाएँ
ढोल प्रगति का राजनीति इसलिए बजाती है

फंदे से लटके तो राजा कहता है बुजदिल
हक माँगे तो, जनता बद’अमली फैलाती है

सारा ज्ञान मिलाकर भी इक शे’र नहीं होता
सुन, भेजे से नहीं, शाइरी दिल से आती है

रविवार, 17 जनवरी 2016

कविता : मेंढक और कुँआँ

हर मेंढक अपनी पसंद का कुँआँ खोजता है
मिल जाने पर उसे ही दुनिया समझने लगता है

मेढक मादा को आकर्षित करने के लिए
जोर जोर से टर्राता है
पर यह पूरा सच नहीं है
वो जोर जोर से टर्राकर
बाकी मेंढकों को अपनी ताकत का अहसास भी दिलाता है
और बाकी मेंढकों तक ये संदेश पहुँचाता है
कि उसके कुँएँ में उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले मेंढक ही आ सकते हैं

गिरते हुए जलस्तर के कारण
कुँओं का अस्तित्व संकट में है
और संकट में है कुँएँ के मेंढकों का भविष्य
इसलिए वो जोर शोर से टर्रा रहे हैं

मैं अक्सर यह सोचकर काँप जाता हूँ
कि यदि कुँएँ के इन मेंढकों को
ब्रह्मांड की विशालता
और अपने कुँएँ की क्षुद्रता का अहसास हो गया
तो वो सबके सब सामूहिक आत्महत्या कर लेंगे

जो वाद
प्रतिवाद नहीं सह पाता
मवाद बन जाता है

समय इंतज़ार कर रहा है
घाव के फूट कर बहने का

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

ग़ज़ल : ज़िन्दगी सुन, ज़िन्दगी भर रख मुझे गुमनाम तू

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

जो मुझे अच्छा लगे करने दे बस वो काम तू
ज़िन्दगी सुन, ज़िन्दगी भर रख मुझे गुमनाम तू

जीन मेरे खोजते थे सिर्फ़ तेरे जीन को
सुन हज़ारों वर्ष की भटकन का है विश्राम तू

तुझसे पहले कुछ नहीं था कुछ न होगा तेरे बाद
सृष्टि का आगाज़ तू है और है अंजाम तू

डूबता मैं रोज़ तुझमें रोज़ पाता कुछ नया
मैं ख़यालों का शराबी और मेरा जाम तू

क्या करूँ, कैसे उतारूँ, जान तेरा कर्ज़ मैं
नाम लिख मेरा हथेली पर, हुई गुमनाम तू

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

ये झूठ है अल्लाह ने इंसान बनाया
सच ये है के आदम ने ही भगवान बनाया

करनी है परश्तिश तो करो उनकी जिन्होंने
जीना यहाँ धरती पे है आसान बनाया

जैसे वो चुनावों में हैं जनता को बनाते
पंडों ने तुम्हें वैसे ही जजमान बनाया

मज़लूम कहीं घोंट न दें रब की ही गर्दन
मुल्ला ने यही सोच के शैतान बनाया

सब आपके हाथों में है ये भ्रम नहीं टूटे
यह सोच के हुक्काम ने मतदान बनाया

हर बार वो नौकर का इलेक्शन ही लड़े पर
हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

नवगीत : भौंक रहे कुत्ते

हर आने जाने वाले पर
भौंक रहे कुत्ते

निर्बल को दौड़ा लेने में
मज़ा मिले जब, तो
क्यों ये भौंक रहे हैं, इससे
क्या मतलब इनको

अब हल्की सी आहट पर भी
चौंक रहे कुत्ते

हर गाड़ी का पीछा करते
सदा बिना मतलब
कई मिसालें बनीं, न जाने
ये सुधरेंगे कब

राजनीति, गौ की चरबी में
छौंक रहे कुत्ते

गर्मी इनसे सहन न होती
फिर भी ये हरदम
करते हरे भरे पेड़ों से
बातें बहुत गरम

हाँफ-हाँफ नफ़रत की भट्ठी
धौंक रहे कुत्ते

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

ग़ज़ल : जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है
जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं
मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है

मार्क्सवाद की बातें कर के जो हथियाता है सत्ता
कुर्सी मिलते ही वो फौरन माल कूटने लगता है

जिसे लूटना हो कानूनन मज़लूमों को वो झटपट
ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है

बेघर होते जाते मुफ़लिस, तेरे घर बढ़ते जाते
देख यही तुझ पर मेरा विश्वास टूटने लगता है

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

कविता : जीवन नमकीन पानी से बनता है

भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं
तर्क पौष्टिक भोजन से

भूखे प्यासे इंसान के पास
न भावनाएँ होती हैं न तर्क

कहते हैं जल ही जीवन है
क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है
तर्क से किताबें बनती हैं

पत्थर भी पानी पीता है
लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है
किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं

प्लास्टिक पानी नहीं पीता
इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता
हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर है

पानी शरीर से कभी अकेला नहीं निकलता
वो अपने साथ नमक भी ले जाता है

मैं पानी बहुत पीता हूँ
इसलिए मेरे शरीर में अक्सर नमक की कमी हो जाती है
नमक अकेला तो खाया नहीं जा सकता
इसलिए मैं काली चाय की चुस्की के साथ
चुटकी भर नमक खाता हूँ

नमक खट्टी और मीठी
दोनों यादों में घुल जाता है

नमक और पानी
भौतिक अवस्था और रासायनिक संरचना के आधार पर
बिल्कुल अलग अलग पदार्थ हैं
दोनों को बनाने वाले परमाणु अलग अलग हैं
फिर भी दोनों एक दूसरे में ऐसे घुल मिल जाते हैं
कि जीभ पर न रखें तो पता ही न चले
कि पानी में नमक घुला है

मिठास पर पलते हैं इंसानियत के दुश्मन
नमकीन पानी नष्ट कर देता है
इंसानियत के दुश्मनों को

ज़्यादा पानी और ज़्यादा नमक
शरीर बाहर निकाल देता है
पर मीठा शरीर के भीतर इकट्ठा होता रहता है
पहले चर्बी बनकर फिर ज़हर बनकर

पहली बार जीवन नमकीन पानी में बना था
इसलिए जीवन अब हमेशा नमकीन पानी से बनता है

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

ग़ज़ल : लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं
तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे
लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं

सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे
सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया
आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं

धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’
सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं

रविवार, 15 नवंबर 2015

नवगीत : पूँजी के बंदर

खिसिया जाते, बात बात पर
दिखलाते ख़ंजर
पूँजी के बंदर

अभिनेता ही नायक है अब
और वही खलनायक
जनता के सारे सेवक हैं
पूँजी के अभिभावक

चमकीले पर्दे पर लगता
नाला भी सागर

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें
वही खेल है मज़हब
बिक जाये जो, कालजयी है
उसका लेखक है रब

बिछड़ गये सूखी रोटी से
प्याज और अरहर

जीना है तो ताला मारो
कलम और जिह्वा पर
गली मुहल्ले साँड़ सूँघते
सब काग़ज़ सब अक्षर

पौध प्रेम की सूख गई है
नफ़रत से डरकर

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ग़ज़ल : इक बार मुस्कुरा दो

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

बरसे यहाँ उजाला, इक बार मुस्कुरा दो
दिल रोशनी का प्यासा, इक बार मुस्कुरा दो

बिन स्नेह और बाती, दिल का दिया है खाली
फिर भी ये जल उठेगा, इक बार मुस्कुरा दो

बिजली चमक उठेगी, पल भर को ही सही, पर
मिट जाएगा अँधेरा, इक बार मुस्कुरा दो

लाखों दिये सजे हैं, मन के महानगर में
ये जल उठेंगे जाना, इक बार मुस्कुरा दो

होंठों की आँच से अब, ‘सज्जन’ पिघल रहा है
हो जाएगा तुम्हारा, इक बार मुस्कुरा दो

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल : न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

वो सुबूत माँगते हैं, वो गवाह माँगते हैं
जो हैं सावधान उनका ये स्वभाव कुदरती है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

लघुकथा : तालाब की मछलियाँ

इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।

उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब मछलियों के पास चौथी तरफ भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मछुआरे को यकीन हो गया कि ज़्यादातर मछलियाँ भागकर चौथे कोने पर चली गई हैं तो वह तालाब के बाहर से चिकनी मिट्टी ला लाकर तालाब के चौथे किनारे को बाकी तालाब से अलग करती हुई मेंड़ बनाने लगा। मछलियाँ उसके इस अजीबोगरीब काम को हैरानी से देखने लगीं। उनमें से एक मछली जो बहुत बातूनी थी बोल पड़ी, “मछेरे, बरसात में तालाब का पानी बढ़ेगा तो तेरी मेंड़ बह जाएगी। क्यूँ बेकार का परिश्रम कर रहा है।”

मछेरा बोला, “मैंने अब तक खेतों में ही मेंड़ देखी है, मैं इस तालाब में मेंड़ बनाकर एक नया प्रयोग कर रहा हूँ।”

मछलियाँ मछेरे के पागलपन पर हँसने लगीं। मछेरा अपना काम करता रहा। जब खूब ऊँची मेंड़ बन गई तब उसने चौथे कोने का पानी तालाब में उलीचना शुरू किया। जब चौथे कोने में पानी काफ़ी कम हो गया तो मछलियों को साँस लेने में दिक्कत होने लगी। अब उन्हें मछेरे की चाल समझ में आई लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। मछेरा थक कर थोड़ी देर के लिए सुस्ताने बैठ गया। मछलियों ने उछल कर मेंड़ पार करने की कोशिश की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।

थोड़ी देर बाद जब पानी में घुली ऑक्सीजन काफ़ी कम हो गई और मछलियाँ तड़पने लगीं तब उनमें से एक ने कहा, “मछेरे हमें इस कष्ट से मुक्ति दिला दे। हम तड़प तड़प कर नहीं मरना चाहतीं। हमें पानी से बाहर निकाल कर ज़ल्दी से मार दे।”

मछेरा मुस्कुराते हुए उठा और बोला, “तालाब की मछलियाँ कितनी भी चालाक क्यों न हो जायँ उनका मछेरे से बचना असंभव है।”

सोमवार, 28 सितंबर 2015

ग़ज़ल : कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था
मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे
तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ
मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की
ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी
कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही
यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी
मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर
हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं

शनिवार, 12 सितंबर 2015

कविता : राजधानी में ब्लैक होल

देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ
हर आकाशगंगा के केन्द्र में
बैठा हुआ एक ब्लैक होल

किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा
अपने आसपास मौजूद तारों को
अपने इशारों पर नचाता हुआ

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है
फिर भी वो अपने चारों तरफ रचता है चमचमाता हुआ प्रभामंडल
उन तारों के प्रकाश को विकृत करके
जो उससे दूर, बहुत दूर होते हैं

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है
जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता
हमेशा बढ़ती है

ब्लैक होल
दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है
फिर भी ये बाहर से देखने पर
ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है
क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है

ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता
लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से
इसके भीतर की कोई भी जानकारी
बाहर नहीं आ सकती

लेकिन मैं निराश नहीं हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन
हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर
इसके भीतर भरी जानकारियाँ
बाहर ले ही आएँगें
भले ही ऐसा होने पर
व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय

अँधेरे में किया गया विश्वास भी
आख़िर अंधविश्वास ही होता है

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

ग़ज़ल : इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
ज्ञानार्थी कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

ग़ज़ल : मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है
मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे
मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से
कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है

लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक
इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है

सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक
ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन
ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

ग़ज़ल : उनकी आँखों में झील सा कुछ है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

उनकी आँखों में झील सा कुछ है
बाकी आँखों में चील सा कुछ है

सुन्न पड़ता है अंग अंग मेरा
उनके होंठों में ईल सा कुछ है

फैसले ख़ुद-ब-ख़ुद बदलते हैं
उनका चेहरा अपील सा कुछ है

हार जाते हैं लोग दिल अकसर
हुस्न उनका दलील सा कुछ है

ज्यूँ अँधेरा हुआ, हुईं रोशन
उनकी यादों में रील सा कुछ है

रविवार, 23 अगस्त 2015

ग़ज़ल : हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

बह्र : २२ २२ २२ २२
----------------
श्रोडिंगर ने सच बात कही
हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

इक दिन मिट जाएगी धरती
क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?

उस मछली ने दुनिया रच दी
जो ख़ुद जल से बाहर निकली

कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही
अपवित्र हो गए शब्द कई

जिस दिन रोबोट हुए चेतन
बन जाएँगें हम ईश्वर भी

मस्तिष्क मिला बहुतों को पर
उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली

मैं रब होता, दुनिया रचता
इस से अच्छी, इस से जल्दी

रविवार, 16 अगस्त 2015

कविता : बाज़ और कबूतर

संभव नहीं है ऐसी दुनिया
जिसमें ढेर सारे बाज़ हों और चंद कबूतर

बाज़ों को जिन्दा रहने के लिए
ज़रूरत पड़ती है ढेर सारे कबूतरों की

बाज ख़ुद बचे रहें
इसलिए वो कबूतरों को जिन्दा रखते हैं
उतने ही कबूतरों को
जितनों का विद्रोह कुचलने की क्षमता उनके पास हो

कभी कोई बाज़ किसी कबूतर को दाना पानी देता मिले
तो ये मत समझिएगा कि उस बाज़ का हृदय परिवर्तन हो गया है

क्षेपक:

यहाँ यह बता देना भी जरूरी है
कि कबूतरों को जिन्दा रहने के लिए बाज़ों की कोई ज़रूरत नहीं होती

शनिवार, 8 अगस्त 2015

ग़ज़ल : दुश्मनी हो जाएगी यदि सच कहूँगा मैं

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

दुश्मनी हो जाएगी यदि सच कहूँगा मैं
झूठ बोलूँगा नहीं सो चुप रहूँगा मैं

आप चाहें या न चाहें आप के दिल में
जब तलक मरज़ी मेरी तब तक रहूँगा मैं

बात वो करते बहुत कहते नहीं कुछ भी
इस तरह की बेरुख़ी कब तक सहूँगा मैं

तेज़ बहती धार के विपरीत तैरूँगा
प्यार से बहने लगी तो सँग बहूँगा मैं

सिर्फ़ सुनते जाइये तारीफ़ मत कीजै
कीजिएगा इस जहाँ में जब न हूँगा मैं

शनिवार, 1 अगस्त 2015

लघुकथा : देशद्रोह

खुद को देशभक्त समझने वाले राम ने रहीम से कहा, “तुमने देशद्रोह किया है।”

रहीम ने पूछा, “देशद्रोह का मतलब?”

राम ने शब्दकोश खोला, देशद्रोह का अर्थ देखा और बोला, “देश या देशवासियों को क्षति पहुँचाने वाला कोई भी कार्य।”

बोलने के साथ ही राम के चेहरे का आक्रोश गायब हो गया और उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे किसी ने उसे बहुत बड़ा धोखा दिया हो। न चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया, “हे भगवान! इसके अनुसार तो हम सब....।”

रहीम के होंठों पर मुस्कान तैर गई।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

लघुकथा : पुरानी इमारत

ऊँची इमारतों की मरम्मत एवं पुनर्निर्माण की कक्षा में प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार बता रहे थे कि हर इमारत का एक जीवनकाल होता है। पुरानी और जर्जर इमारतों को समय पर गिरा कर उनकी जगह पर नई इमारतें खड़ी कर देनी चाहिए। अगर ऐसा न किया जाय तो पुरानी इमारतों के कमजोर हिस्से जब तब गिरकर उसमें रहने वाले लोगों की जान लेते रहते हैं। ऐसी इमारतों को गिराने का सबसे सुरक्षित, सरल और सबसे कम समय लेने वाला तरीका है कि उसकी बुनियाद से जुड़े खम्भों को विस्फोटक लगाकर उड़ा दिया जाय।

प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार प्रौद्योगिकी के अलावा दर्शन में भी रुचि रखते थे और छात्रों से मित्रवत व्यवहार करते थे। जब उन्होंने छात्रों से प्रश्न पूछने के लिए कहा तो एक छात्र ने उठकर थोड़ा मुस्कुराते हुए प्रश्न पूछा, “सर, जाति की ऊँची इमारत भी तो बहुत पुरानी हो चुकी है। अब ये केवल यदा कदा गिरकर लोगों की जान ही लेती है। इसे कैसे गिराया जाय।”

प्रोफ़ेसर हँसे और बोले, “इसे गिराने के प्रयास तो सैकड़ों वर्षों से होते रहे हैं मगर इसके खम्भे धर्म की बुनियाद पर खड़े हैं जिसमें विस्फोट सहने की अद्भुत क्षमता है। परमाणु बम का प्रयोग हम कर नहीं सकते क्योंकि वो एक पल में इतना विनाश कर देगा जितना जाति हजारों वर्षों में नहीं कर पाएगी।”

छात्र बोला, “तो सर क्या ये इमारत यूँ ही मासूमों की जान लेती रहेगी। इसे गिराने का कहीं कोई उपाय नहीं है।”

प्रोफ़ेसर बोले, “हम तो सदियों से विस्फोटक लगा लगा कर हार गए। अब तो एकमात्र उपाय मुझे तुम जैसे नौजवानों में ही नज़र आता है। भले ही इस इमारत की बुनियाद को विस्फोटक लगाकर उड़ाया नहीं जा सकता मगर इसमें प्रेम-रसायन डालकर इसे गलाया जा सकता है।”

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

लघुकथा : पारदर्शी तंत्र

“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। 

एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो बाहर नारा लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”।

अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।

कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज बाहर से देखा जा सकता था। जनता बहुत खुश थी कि अब दफ़्तर के किसी कर्मचारी की हिम्मत नहीं होगी रिश्वत लेने की।

दफ़्तर के कर्मचारी बहुत खुश थे। अब तो जाँच का भी कोई खतरा नहीं था क्योंकि दफ़्तर का सारा कामकाज बाहर बैठे जाँच अधिकारियों की आँखों के सामने ही हो रहा था। पारदर्शी दफ़्तर का शौचालय पारदर्शी नहीं था और उसे दुनिया का कोई संविधान कोई कानून कभी पारदर्शी नहीं बनवा सकता था।