मंगलवार, 9 जुलाई 2013

ग़ज़ल : जो सरल हो गये

बहर : २१२ २१२
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जो सरल हो गये
वो सफल हो गये

जिंदगी द्यूत थी
हम रमल हो गये

टालते टालते
वो अटल हो गये

देख कमजोर को
सब सबल हो गये

भैंस गुस्से में थी
हम अकल हो गये

जो गिरे कीच में
वो कमल हो गये

अपने दिल से हमीं
बेदखल हो गये

देखकर आइना
वो बगल हो गये

रविवार, 7 जुलाई 2013

कविता : परिभाषाएँ

बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत
जग को जंग, दगा को दंगा मद को मंद
मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश
बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए

केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी रेखा नहीं है
ये तो डैश है जो थोड़ा लंबा हो गया है

शब्दों और परिभाषाओं से
अच्छी तरह खेलना आता है तुम्हें
तभी तो पहुँच पाये हो तुम देश के सर्वोच्च पदों पर

मगर कब तक छुपाओगे
अपने कुकर्म परिभाषाओं के पीछे
एक न एक दिन तो जनता समझ ही जाएगी
कि कुछ भी बदलने के लिए सबसे पहले जरूरी है परिभाषाएँ बदलना

तब जब ये आयातित डाट और डैश जैसे चिह्न
हम निकाल फेंकेंगे अपनी भाषा से
तब जब बिंदु होगा लेखनी से न्यूनतम संभव
लंबाई, चौड़ाई और मोटाई वाला
रेखा होगी न्यूनतम संभव चौड़ाई और मोटाई वाली
तब कहाँ छुपोगे
ओ परिभाषाओं के पीछे छुपकर बैठने वालों

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

ग़ज़ल : और निधन गुनगुना हो गया

बहर : २१२ २१२ २१२
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जब श्वसन गुनगुना हो गया
तो मिलन गुनगुना हो गया

रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया

तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया

उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया

नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया

थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया

उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया

उसके हाथों से पलकें मुँदीं
और निधन गुनगुना हो गया




मंगलवार, 2 जुलाई 2013

ग़ज़ल : जीतने तक उड़ान जिंदा रख

बहर : २१२२ १२१२ २२
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बाजुओं की थकान जिंदा रख
जीतने तक उड़ान जिंदा रख

आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं
है जो खुद पे गुमान जिंदा रख

तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं
वो पुराना मकान जिंदा रख

बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ
तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख

नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ
एक ऐसी दुकान जिंदा रख

जान तुझमें ये डाल देंगे कभी
नाक, आँखें व कान जिंदा रख

गुरुवार, 27 जून 2013

कविता : हथियार

कुंद चाकू पर धार लगाकर
हम चाकू से छीन लेते हैं उसके हिस्से का लोहा
और लोहे का एक सीदा सादा टुकड़ा
हथियार बन जाता है

जमीन से पत्थर उठाकर
हम छीन लेते हैं पत्थर के हिस्से की जमीन
और इस तरह पत्थर का एक भोला भाला टुकड़ा
हथियार बन जाता है

लकड़ी का एक निर्दोष टुकड़ा
हथियार तब बनता है जब उसे छीला जाता है
और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की लकड़ी

बारूद हथियार तब बनता है
जब उसे किसी कड़ी वस्तु में कस कर लपेटा जाता है
और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की हवा

पर दुनिया का सबसे खतरनाक हथियार
इन तरीकों से नहीं बनता
वो बनता है उस पदार्थ को और न्यूट्रॉन देने से
जिसके पास पहले से ही मौजूद न्यूट्रॉनों को
रखने हेतु जगह कम पड़ रही है

हजारों वर्षों से धरती पर मौजूद हैं छोटे हथियार
इसलिए मुझे यकीन है
दुनिया जब भी खत्म होगी
कम से कम छोटे हथियारों से तो नहीं होगी

शुक्रवार, 7 जून 2013

क्षणिका : घर

पशु-पक्षियों के कैदखाने का नाम चिड़ियाघर
मछलियों के कैदखाने का नाम मछलीघर
बड़ा चालाक है इंसान
इंसानों के कैदखाने का नाम तो जेल रखा
बाकी सब के कैदखानों के नाम घर जैसे रखे

मंगलवार, 28 मई 2013

सात हाइकु

(१)

जिन्हें है जल्दी
अग्रिम श्रद्धांजलि
जाएँगें जल्दी

()

कैसे कहूँ मैं?
कैंसर पाँव छुए
जीता रह तू

(३)

सैकड़ों बच्चे
चुक गई ममता
नर्स हैरान

(४)

तुम हो साथ
जीवन है कविता
बच्चे ग़ज़ल

(५)

सूर्य के बोल
धरती की आवाज़
वर्षा की धुन

()

अँधेरा घना
तेरे साथ स्वर्ग है
नर्क वरना

(७)

प्रेम की बातें
झूठे हैं ग्रंथ सभी
सच्ची हैं आँखें

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

ग़ज़ल : निकलने दे अगन ज्वालामुखी से



बहर : १२२२ १२२२ १२२
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ठहर, कल झील निकलेगी इसी से
निकलने दे अगन ज्वालामुखी से

सफाई कर मदद ले के किसी से
कहाँ भागेगा खुद की गंदगी से

मिली है आज सारा दिन मुहब्बत
सुबह तेरे लबों की बोहनी से

बस इतनी बात से मैं होम लिख दूँ
लगाई आग तुमने शुद्ध घी से

बताये कोयले को भी जो हीरा
बचाये रब ही ऐसे पारखी से

समय भी भर नहीं पाता है इनको
सँभलकर घाव देना लेखनी से

हकीकत का मुरब्बा बन चुका है
समझ बातों में लिपटी चाशनी से

उफनते दूध की तारीफ ‘सज्जन’
कभी मत कीजिए बासी कढ़ी से

गुरुवार, 28 मार्च 2013

कविता : क्रिया-प्रतिक्रिया


हर क्रिया के बराबर एवं विपरीत
एक प्रतिक्रिया होती है

कभी प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष दिखती है
कभी भीतर ही भीतर इकट्ठी होती रहती है
आन्तरिक प्रतिरोध ऊर्जा के रूप में

आन्तरिक ऊर्जा
जब किसी की सहन शक्ति से ज्यादा हो जाती है
तो वह एक विस्फोट के साथ टूट जाता है

सावधानी से एक बार फिर जाँच लीजिए
आप की किन किन क्रियाओं की
प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया नहीं हुई

सोमवार, 25 मार्च 2013

कविता : प्रेम अगर परमाणु बम नहीं तो कुछ भी नहीं


मेरे कानों की गुफाओं में गूँज रही है
परमानंद के समय की तुम्हारी सिसकियाँ

मेरी आँखों के पर्दों पर चल रही है
तुम्हारे दिगम्बर बदन की उत्तेजक फ़िल्म

मेरी नाक के कमरों में फैली हुई है
तुम्हारे जिस्म की मादक गंध

मेरे मुँह के स्पीकर से निकल रहे हैं
तुम्हारे लिए प्रतिबंधित शब्द

मेरी त्वचा की चद्दर से मिटते ही नहीं
तुम्हारे दाँतों के लाल निशान

तुम्हारा प्रेम परमाणु बम की तरह गिरता है मुझपर
जिसका विद्युत चुम्बकीय विकिरण
काट देता मेरी इंद्रियों का संबंध मेरे मस्तिष्क से
धीमा कर देता है
मेरे शरीर द्वारा अपनी स्वाभाविक अवस्था में लौटने का वेग

हर विस्फोट के बाद
थोड़ा और बदल जाती है मेरे डीएनए की संरचना
हर विस्फोट के बाद
मैं थोड़ा और नया हो जाता हूँ

प्रेम अगर परमाणु बम नहीं तो कुछ भी नहीं  

रविवार, 10 मार्च 2013

ग़ज़ल : तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा


बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा

गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा

बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग 
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा

अंधविश्वास अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

ग़ज़ल : सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं


सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं
छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं

उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं

उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से
अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं

ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं

जिनकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो सज्जन
प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते हैं