सोमवार, 6 जुलाई 2015

नवगीत : नाच रहा पंखा

देखो कैसे
एक धुरी पर
नाच रहा पंखा

दिनोरात
चलता रहता है
नींद चैन त्यागे
फिर भी अब तक
नहीं बढ़ सका
एक इंच आगे

फेंक रहा है
फर फर फर फर
छत की गर्म हवा

इस भीषण
गर्मी में करता
है केवल बातें
दिन तो छोड़ो
मुश्किल से अब
कटती हैं रातें

घर से बाहर
लू चलती है
जाएँ कहाँ  भला

लगा घूमने का
बचपन से ही
इसको चस्का
कोई आकर
चुपके से दे
बटन दबा इसका

व्यर्थ हो रही
बिजली की ये
है अंतिम इच्छा

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

ग़ज़ल : जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है

मंगलवार, 30 जून 2015

ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं

जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं

कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं

किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं

शुक्रवार, 26 जून 2015

नवगीत : बूँद बूँद बरसो

बूँद बूँद बरसो
मत धार धार बरसो

करते हो
यूँ तो तुम
बारिश कितनी सारी
सागर से
मिल जुलकर
हो जाती सब खारी

जितना सोखे धरती
उतना ही बरसो पर
कभी कभी मत बरसो
बार बार बरसो

गागर है
जीवन की
बूँद बूँद से भरती
बरसें गर
धाराएँ
टूट फूट कर बहती

जब तक मन करता हो
तब तक बरसो लेकिन
ढेर ढेर मत बरसो
सार सार बरसो

सोमवार, 22 जून 2015

ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए

फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये

मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये

जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये

सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये

जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये

गुरुवार, 18 जून 2015

नवगीत : पत्थर-दिल पूँजी

पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर

कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा

अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर

मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता

उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर

छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा

रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर

शनिवार, 13 जून 2015

ग़ज़ल : पैसा जिसे बनाता है

बह्र : २२ २२ २२ २

पैसा जिसे बनाता है
उसको समय मिटाता है

यहाँ वही बच पाता है
जिसको समय बचाता है

चढ़ना सीख न पाया जो
कच्चे आम गिराता है

रोता तो वो कभी नहीं
आँसू बहुत बहाता है

बच्चा है वो, छोड़ो भी
जो झुनझुना बजाता है

चतुर वही इस जग में, जो
सबको मूर्ख बनाता है

बुधवार, 20 मई 2015

नवगीत : श्री कनेर का मन

नीलकंठ को अर्पित करते
बीत गया बचपन
तब जाना
है बड़ा विषैला
श्री कनेर का मन

अंग-अंग होता जहरीला
जड़ से पत्तों तक
केवल कोयल, बुलबुल, मैना
के ये हितचिंतक

जो मीठा बोलें
ये बख़्शें उनका ही जीवन

आस पास जब सभी दुखी हैं
सूरज के वारों से
विषधर जी विष चूस रहे हैं
लू के अंगारों से

छाती फटती है खेतों की
इन पर है सावन

अगर न चढ़ते देवों पर तो
नागफनी से ये भी
तड़ीपार होते समाज से
बनते मरुथल सेवी

धर्म ओढ़कर बने हुए हैं
सदियों से पावन

सोमवार, 18 मई 2015

नवगीत : सबको शीश झुकाता है

बहुत बड़ा
परिवार मिला
पर सबका साथ निभाता है
इसीलिए तो
बाँस-काफ़िला
आसमान तक जाता है

एक वर्ष में
लगें फूल या
साठ वर्ष के बाद लगें
जब भी
फूल लगें इसमें
सारे कुटुम्ब के साथ लगें

सबसे तेज़ उगो तुम
यह वर
धरती माँ से पाता है

झुग्गी, मंडप
इस पर टिकते
बने बाँसुरी, लाठी भी
कागज़, ईंधन
शहतीरें भी
डोली भी है अर्थी भी

सबसे इसकी
यारी है
ये काम सभी के आता है

घास भले है
लेकिन
ज़्यादातर वृक्षों से ऊँचा है
दुबला पतला है
पर लोहे से लोहा
ले सकता है

सीना ताने
खड़ा हुआ पर
सबको शीश झुकाता है

शनिवार, 16 मई 2015

ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ

मंगलवार, 12 मई 2015

कविता : प्रेम (सात छोटी कविताएँ)

(१)

तुम्हारा शरीर
रेशम से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है

मेरा प्यार उस सिरे की तलाश है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण

(२)

तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ होता है

फिर तुम्हारे प्यार की माइक्रोवेव
इतनी तेजी से गर्म करती है मेरा ख़ून
कि मेरा अस्तित्व कार की विंडस्क्रीन की तरह
एक पल में टूटकर बिखर जाता है

(३)

तुम्हारे प्यार की बारिश
मेरे आसपास के वातावरण में ही नहीं
मेरे फेफड़ों में भी नमी की मात्रा बढ़ा देती है

हरा रंग बगीचे में ही नहीं
मेरी आँखों में भी उग आता है

कविताएँ कागज़ पर ही नहीं
मेरी त्वचा पर भी उभरने लगती हैं

बूदों की चोट तुम्हारे मुक्कों जैसी है
मेरा तन मन भीतर तक गुदगुदा उठता है

(४)

तुम्हारा प्यार
विकिरण की तरह समा जाता है मुझमें
और बदल देता है मेरी आत्मा की संरचना

आत्मा को कैंसर नहीं होता

(५)

प्यार में
मेरे शरीर का हार्मोन
तुम्हारे शरीर में बनता है
और तुम्हारे शरीर का हार्मोन
मेरे शरीर में

इस तरह न तुम स्त्री रह जाती हो
न मैं पुरुष
हम दोनों प्रेमी बन जाते हैं

(६)

पहली बारिश में
हवा अपनी अशुद्धियों को भी मिला देती है

प्रेम की पहली बारिश में मत भीगना
उसे दिल की खिड़की खोलकर देखना
जी भर जाने तक
आँख भर आने तक

(७)
प्रेम अगर शराब नहीं है
तो गंगाजल भी नहीं है

प्रेम इन दोनों का सही अनुपात है
जो पीनेवाले की सहनशीलता पर निर्भर है

बुधवार, 6 मई 2015

ग़ज़ल : गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है
गरीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती, पर
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

अमीरी का दिवाला भर निकलता है यहाँ लेकिन
गरीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा
गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए ‘सज्जन’
गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

द्वार किसी के बिना बुलाए क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो जाएँगे

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : हम इतने चालाक न थे

बह्र : २२ २२ २२ २
         
जीवन में कुछ बन पाते
हम इतने चालाक न थे

सच तो इक सा रहता है
मैं बोलूँ या तू बोले

हारेंगे मज़लूम सदा
ये जीते या वो जीते

पेट भरा था हम सबका
भूख समझ पाते कैसे

देख तुझे जीता हूँ मैं
मर जाता हूँ देख तुझे