रविवार, 18 सितंबर 2011

ग़ज़ल : छाँव से सटकर खड़ी है धूप ‘सज्जन’

छाँव से सटकर खड़ी है धूप ‘सज्जन’
शत्रु पर सबसे बड़ी है धूप ‘सज्जन’

संगमरमर की सतह से लौट जाती
टीन के पीछे पड़ी है धूप ‘सज्जन’

गर्मियों में लग रही शोला बदन जो
सर्दियों में फुलझड़ी है धूप ‘सज्जन’

भूल से ना रेत पर बरसात कर दें
बादलों से जा लड़ी है धूप ‘सज्जन’

फिर किसी मजलूम की ये जान लेगी
आज कुछ ज्यादा कड़ी है धूप ‘सज्जन’

प्यार शबनम से इसे जबसे हुआ है
यूँ लगे मोती जड़ी है धूप ‘सज्जन’

खोल कर सब खिड़कियाँ आने इसे दो
इस शहर में दो घड़ी है धूप ‘सज्जन’

जिस्म में चुभकर बना देती विटामिन
ज्यों गुरूजी की छड़ी है घूप ‘सज्जन’

6 टिप्‍पणियां:

  1. अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना

    फर कसी मजलूम क ये जान लेगी आज कुछ यादा कड़ है धूप ‘सजन’

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  2. जबरदस्त ||
    जबरदस्त धूप ||
    अलबेले रूप ||
    बहुत-बहुत बधाई ||

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  3. वाह्………गज़ब का अन्दाज़ है गज़ल मे।

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  4. प्यार शबनम से इसे जबसे हुआ है
    यूँ लगे मोती जड़ी है धूप ‘सज्जन’

    जिस्म में चुभकर बना देती विटामिन
    ज्यों गुरूजी की छड़ी है घूप ‘सज्जन’

    वाह वाह! लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने.
    आखिरी शेर मैं तो कमाल का imagination है!

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  5. खोल कर सब खिड़कियाँ आने इसे दो
    इस शहर में दो घड़ी है धूप ‘सज्जन’

    बहुत बढ़िया गज़ल

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