गुरुवार, 12 जुलाई 2012

कविता : बारिश, किताब और गुलाब


तुम्हारी यादों की किताब बार बार नमकीन बारिश में भीगती है
भीगे हुए दो पन्ने एक हो जाते हैं
भीतर छपे शब्द नमी पाकर फैलते हैं और अपना अस्तित्व खो बैठते हैं

अस्तित्व दर्द का पर्यायवाची है

नमी के बगैर
एक दूसरे से सालों साल सटे हुए पन्ने भी जुड़ नहीं पाते

भीगकर चिपके हुए दो पन्नों को अलग करना सबसे बड़ा गुनाह है

हर फटी पुरानी किताब में एक सूखा गुलाब होता है

खुशकिस्मत होते हैं वो गुलाब जो किताबों की बाहों में सूखते हैं

क्यारियाँ न होतीं तो क्या गुलाब के पौधे न उगते

मंदिर, जयमाल, बगीचे, क्यारियाँ और भी न जाने कहाँ कहाँ सूख रहे हैं गुलाब
मगर गुलाब के बराबर मात्राओं वाला और तुकांत शब्द किताब है
गुलाब और किताब ग़ज़ल का काफ़िया भी बन सकते हैं
फिर भी हर किताब के नसीब में गुलाब नहीं होता

बारिश, किताब और गुलाब मिलकर वह मूलकण बनाते हैं
जो जीवन का निर्माण करने वाले बाकी मूलकणों में द्रव्यमान उत्पन्न करता है

बारिश, किताब और गुलाब के पहले भी जीवन था
पर क्या वाकई वो जीवन था?

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