रविवार, 29 जुलाई 2012

ग़ज़ल : हमारे प्यार का सागर अगर गहरा नहीं होता


किनारे दूर तक फैला हुआ सहरा नहीं होता
हमारे प्यार का सागर अगर गहरा नहीं होता

महक उठतीं हवाएँ औ’ फ़िजा रंगीन हो जाती
जो काँटों का गुलाब-ए-इश्क पर पहरा नहीं होता

नदी खुद ही स्वयं को शुद्ध कर लेती अगर पानी
उन्हीं दो चार बाँधों के यहाँ ठहरा नहीं होता

कभी तो चीख सड़ते अन्न की इन तक पहुँच जाती
हमारे हाकिमों का दिल अगर बहरा नहीं होता

धमाकों में हुई पहचान बिखरे हाथ पैरों से
गरीबी का कभी कोई कहीं चहरा नहीं होता

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