रविवार, 10 मार्च 2013

ग़ज़ल : तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा


बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा

गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा

बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग 
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा

अंधविश्वास अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति
    शुभकामनायें आदरणीय -
    हर हर बम बम -

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  2. बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग
    सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा ..

    बहुत खूब ... पूरी गज़ल लाजवाब शेरों से बुनी है धर्मेन्द्र जी ...

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