सोमवार, 29 सितंबर 2025

ग़ज़ल : देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले

बह्र : 2122 2122 2122 212

देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले
झूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिले

बक रहे वाही-तबाही संत सारे लंठ बन
धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिले

रोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म उनका जल गया
और अँधेरा बेचने वालों को सरदारी मिले

कौन सी चौखट पे जाएँ सच बताने जब हमें
निर्वसन राजा मिला नंगे ही दरबारी मिले

ख़ूब मँहगाई बढ़ी तो आदमी सस्ता हुआ
चंद सिक्कों की खनक पर अब वफ़ादारी मिले

क़त्ल होने को यहाँ बस सत्य कहना है बहुत
हर गली-कूचे में दुबकी आज अय्यारी मिले

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