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शनिवार, 21 जनवरी 2012

नवगीत : सूरज रे जलते रहना

जब तक तेरे तन में ईंधन
सूरज रे जलते रहना

मान चुके जो अंत निकट है
उनका अंत निकट है सचमुच
जीवन रेख अमिट धरती की
आए गए हजारों हिम युग
आग अमर लेकर सीने में
लगातार चलते रहना

तेरा हर इक बूँद पसीना
छू धरती अंकुर बनता है
हो जाती है धरा सुहागिन
तेरा खून जहाँ गिरता है
बन सपना बेहतर भविष्य का
कण कण में पलते रहना

छँट जाएगा दुख का कुहरा
ठंढ गरीबी की जाएगी
बदकिस्मत लंबी रैना ये
छोटी होती ही जाएगी
बर्फ़-सियासी धीरे धीरे
किरणों से दलते रहना

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

नवगीत : आदमी अकेला है

यंत्रों के जंगल में
जिस्मों का मेला है
आदमी अकेला है

चूहों की भगदड़ में
स्वप्न गिरे
हुए चूर
समझौतों से डरकर
भागे आदर्श दूर

खाई की ओर चला
भेड़ों का रेला है

शोर बहा
गली-सड़क
मन की आवाज घुली
यंत्रों से तार जुड़े
रिश्तों की गाँठ खुली

सुंदर तन है सोना
सीरत अब धेला है

मुट्ठी भर तरु
सोचें
कहाँ गया नील गगन
खा लेगा
इनको भी
ईंटों का बढ़ता वन

व्याकुल है
मन-पंछी
कैसी ये बेला है

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

नवगीत : समाचार हैं

समाचार हैं
अद्भुत,
जीवन के

अब बर्बादी
करे मुनादी
संसाधन सीमित
सड़ जाने दो
किंतु करेगा
बंदर ही वितरित
नियम
अनूठे हैं
मानव-वन के

प्रेम-रोग अब
लाइलाज
किंचित भी नहीं रहा
नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका दर्द सहा
रंग बदलते
पल पल
तन मन के

नौकर धन की
निज इच्छा से
अब है बुद्धि बनी
कर्म राम के
लेकिन लंका
देखो हुई धनी
बदल रहे
आदर्श
लड़कपन के

शनिवार, 1 जनवरी 2011

गीत : साल जाता है पुराना

काँपता सा वर्ष नूतन
आ रहा, पग डगमगाएँ
साल जाता है
पुराना सौंप कर घायल दुआएँ

आरती है अधमरी सी
रोज बम की चोट खाकर
मंदिरों के गर्भगृह में
छुप गए भगवान जाकर
काम ने निज पाश डाला
सब युवा बजरंगियों पर
साहसों को
जकड़ बैठीं वृद्ध मंगल कामनाएँ

है प्रगति बंदी विदेशी
बैंक के लॉकर में जाकर
रोज लूटें लाज घोटाले
गरीबी की यहाँ पर
न्याय सोया है समितियों
की सुनहली ओढ़ चादर
दमन के हैं
खेल निर्मम क्रांति हम कैसे जगाएँ

लपट लहराकर उठेगी
बंदिनी इस आग से जब
जलेंगे सब दनुज निर्मम
स्वर्ण लंका गलेगी तब
पर न जाने राम का वह
राज्य फिर से आएगा कब
जब कहेगा
समय आओ वर्ष नूतन मिल मनाएँ

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

नवगीत : प्रेम हो गया आज नमकीन

प्रेम हो गया आज नमकीन

खर्च सोडियम करता रहता है
अपना आवेश
पाकर उसको झटक रही क्लोरीन
खुशी से केश
लेनदेन का यह आकर्षण
हुआ बड़ा रंगीन

कभी किया करते थे कार्बन
ऑक्सीजन साझा
प्रेम हुआ करता था मीठा तब
गुड़ से ज्यादा
ढ़ाई आखर प्रेम मिट गया
शब्द बचे हैं तीन

दुनिया के ज्यादातर अणु साझे
से बनते हैं
लेन देन के बंधन पानी तक
से मिटते हैं
जिस बंधन पर सृष्टि टिकी वो
लौटेगा इक दिन

सोमवार, 29 नवंबर 2010

विज्ञान के विद्यार्थी का प्रेम गीत

एक बहुत पुरानी रचना है आप भी आनंद लीजिए

अवकलन समाकलन
फलन हो या चलन-कलन
हरेक ही समीकरन
के हल में तू ही आ मिली

घुली थी अम्ल क्षार में
विलायकों के जार में
हर इक लवण के सार में
तु ही सदा घुली मिली

घनत्व के महत्व में
गुरुत्व के प्रभुत्व में
हर एक मूल तत्व में
तु ही सदा बसी मिली

थीं ताप में थीं भाप में
थीं व्यास में थीं चाप में
हो तौल या कि माप में
सदा तु ही मुझे मिली

तुझे ही मैंने था पढ़ा
तेरे सहारे ही बढ़ा
हुँ आज भी वहीं खड़ा
जहाँ मुझे थी तू मिली

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।

पाँव तुम्हारा चूम चूम कर
धान मुँआँ पकता है
छूकर तेरी कमर
बाजरा लहराता फिरता है
तेरे बालों से मक्का
रेशम चोरी करता है
तेरा अधर चूमने को,
गन्ना रस से भरता है;
सरपत पकड़ दुपट्टा तेरा खींचतान करता है।

बारिश ने जबरन तेरा
यह कोमल गात छुआ है
उस पर मेरा गुस्सा
अब तक ठंढा नहीं हुआ है
तिस पर जाड़ा मेरा
दुश्मन बन आने वाला है
तुझको कंबल से ढक
घर में बिठलाने वाला है;
इतने दिन बिन देखे मर जाऊँगा ये लगता है।

कबसे सोच रहा था अबके
क्वार तुझे मैं ब्याहूँ
तेरे तन के फूलों में निज
मन की महक मिलाऊँ
नन्हीं नन्हीं कलियों से
घर, आँगन, बाग सजाऊँ
पर पत्थर-दिल पागल
आदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ

भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ

बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ

मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

इक कमल था

इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

लाख आईं तितलियाँ
ले पर रँगीले
कई आये भौंर
कर गुंजन सजीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा,
साथ उसने
पंक का ही था दिया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

कीच की सेवा
थी उसकी बंदगी
कीच की खुशियाँ
थीं उसकी जिंदगी
कीच के दुख दर्द में वह संग खड़ा
कीच के उत्थान की ही जंग लड़ा
कीच में ही
सकल जीवन कट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

एक दिन था
जब कमल मुरझा गया
कीच ने
बाँहों में तब उसको लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र
कीच सारा
कमल ही से पट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

बैकुंठवासी श्याम!

उतर आओ फिर धरा पर, छोड़ कर आराम
बैकुंठवासी श्याम!

अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खाते,
झूठ के दम पर युधिष्टिर अब यहाँ हैं राज्य पाते;
गर्भ में ही मार देते कंस नन्हीं देवियों को,
और अर्जुन से सखा अब कहाँ मिलते हैं किसी को;
प्रेम का बहुरूप धरके,
आगया है काम

देवता डरने लगे हैं देख मानव भक्ति भगवन,
कर्म कोई और करता फल भुगतता दूसरा जन;
योग सस्ता होके अब बाजार में बिकने लगा है,
ज्ञान सारा देह के सुख को बढ़ाने में लगा है;
नये युग को नई गीता,
चाहिए घनश्याम

कौरवों और पांडवों के स्वार्थरत गठबन्धनों से,
हस्तिनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त फिर से;
द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा हर इक गली में,
धरके लाखों रूप आना ही पड़ेगा इस सदी में;
बोझ कलियुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच थाम

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

अबे कमल!

अबे कमल! सुन, क्यों खुद पर इतना इतराता है;
रंग, रूप तू कीचड़ के शोषण से पाता है।

कीचड़ का तू शोषण करता,
कीचड़ का खाता तू माँस;
बुझती कीचड़ के लोहू से
है तेरी रंगों की प्यास।
पर तू खिलने को कीचड़ के बाहर आता है;
तेरा कीचड़ से केवल मतलब का नाता है।

तू खुश रहता वहाँ जहाँ,
कीचड़ होता है पाँव दलित;
देवों के मस्तक पर चढ़कर
समझे कीचड़ को कुत्सित।
बेदर्दी से जब कीचड़ को कुचला जाता है,
कह क्या तुझको दर्द पंक का छू भी पाता है?

फेंक दिया जाता बाहर,
जब तू है मुरझाने लगता;
पड़ा धूल में और धूप में,
घुट घुट कर मरने लगता।
ऐसे में कीचड़ ही आकर गले लगाता है,
क्या तुझको निःस्वार्थ प्रेम भी पिघला पाता है?

गुरुवार, 10 जून 2010

माली कैसे सह पाता है

माली कैसे सह पाता है,
अपने धन्धे का जंजाल;
तू ही बगिया का पालक है,
तू ही है कलियों का काल।

पत्थर की मूरत की खातिर
कली बिचारी जाँ से जाती,
डाली रोती रहती फिर भी
कभी तुझे ना लज्जा आती;
इन सबको इतने दुख देकर
होता तुझको नहीं मलाल?

कितना कोमल कली-हृदय है
तूने कभी नहीं सोचा,
बेदर्दी तूने कलिका को
भरी जवानी में नोंचा;
पौधे की तड़पन ना देखी,
ना देखा भँवरे का हाल।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

मेरा चाँद आज आधा है

मेरा चाँद आज आधा है ।

उखड़ा हुआ मुखड़ा, सूजी हुई आँखें,
आज इसकी आँखों में, नमी कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।

बात क्या हो गयी है, रात रो सी रही है,
जाने क्यों कष्ट इसे, आज कुछ ज्यादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।

घबरा मत चाँद मेरे, दुख की इन रातों में,
साथ तेरे रहूँगा मैं, मेरा तुझसे वादा है,
मेरा चाँद आज आधा है।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

फट गया दिल एक बादल का

फट गया दिल एक बादल का।

प्यार का मृदु स्वप्न लेकर,
छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से,
पूछता था यही सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर
लूँ अपना दिल हलका।

सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पर्वत चढ़ा चल,
जगत में निज नाम कर तू,
वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ तू,
प्यार तो है नाम बस छल का।

तभी उसको दिखी चोटी,
प्रीति उसके हृदय लौटी,
श्वेत हिम से वो ढकी थी,
प्रेम रस से भी छकी थी;
राह रोकी तभी गिरि ने,
कर प्रदर्शन बाहु के बल का।

लड़ा गिरि से बहुत बादल,
मगर वो जल से भरा था,
तिस पे उतने पहुँच ऊपर,
अधमरा सा हो चला था;
दर्द इतना बढ़ गया,
वह फाड़ दिल छलका।

गाँव कितने बह गये फिर,
कितने ही घर ढह गये फिर,
दोष देते लोग, भगवन!
क्यों किया यह मृत्यु नर्तन?
मैं समझ ना पा रहा,
यह दोष था किसका।