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रविवार, 19 जुलाई 2015

ग़ज़ल : ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२२

ख़ुदाई जब आए हुनर में उतर कर
ख़ुदा बोलता है बशर में उतर कर

भरोसा न हो मेरी हिम्मत पे जानम
तो ख़ुद देख दिल से जिगर में उतर कर

इसी से बना है ये ब्रह्मांड सारा
कभी देख लेना सिफ़र में उतर कर

महीनों से मदहोश है सारी जनता
नशा आ रहा है ख़बर में उतर कर

तेरी स्वच्छता की ये कीमत चुकाता
कभी देख तो ले गटर में उतर कर

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये
ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो
खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान
खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके
कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप
गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

ग़ज़ल : हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर
सीख लिया हमने भी चलना पानी पर

राह यही जाती रूहानी मंजिल तक
दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर

नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे
फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर

दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है
सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर

जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती
गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

ग़ज़ल : जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है
रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना
वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है

मंगलवार, 30 जून 2015

ग़ज़ल : सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

हर एक शक्ल पे देखो नकाब कितने हैं
सवाल एक है लेकिन जवाब कितने हैं

जले गर आग तो उसको सही दिशा भी मिले
गदर कई हैं मगर इंकिलाब कितने हैं

जो मेर्री रात को रोशन करे वही मेरा
जमीं पे यूँ तो रुचे माहताब कितने हैं

कुछ एक जुल्फ़ के पीछे कुछ एक आँखों के
तुम्हारे हुस्न से खाना ख़राब कितने हैं

किसी के प्यार की कीमत किसी की यारी की
न जाने आज भी बाकी हिसाब कितने हैं

सोमवार, 22 जून 2015

ग़ज़ल : ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

ये प्रेम का दरिया है इसमें सारे ही कमल मँझधार हुए
याँ तैरने वाले डूब गये और डूबने वाले पार हुए

फ़न की खातिर लाखों पापड़ बेले तब हम फ़नकार हुए
पर बिकने की इच्छा करते ही पल भर में बाज़ार हुए

इंसान अमीबा का वंशज है वैज्ञानिक सच कहते हैं
दिल जितने टुकड़ों में टूटा हम उतने ही दिलदार हुये

मजबूत संगठन के दम पर हर बार धर्म की जीत हुई
मानवता के सारे प्रयास, थे जुदा जुदा, बेकार हुये

जिन चट्टानों को अपनी सख़्ती पर था ज़्यादा नाज़ यहाँ
उन चट्टानों के वंशज ही सबसे ज़्यादा सुकुमार हुये

सौ बार गले सौ बार ढले सौ बार लगे हम यंत्रों में
पर जाने क्या अशुद्धि हम में थी, बागी हम हर बार हुये

जब तक सबका कहना माना सबने कहना ही मनवाया
जब से सबको इनकार किया तबसे हम ख़ुदमुख़्तार हुये

शनिवार, 13 जून 2015

ग़ज़ल : पैसा जिसे बनाता है

बह्र : २२ २२ २२ २

पैसा जिसे बनाता है
उसको समय मिटाता है

यहाँ वही बच पाता है
जिसको समय बचाता है

चढ़ना सीख न पाया जो
कच्चे आम गिराता है

रोता तो वो कभी नहीं
आँसू बहुत बहाता है

बच्चा है वो, छोड़ो भी
जो झुनझुना बजाता है

चतुर वही इस जग में, जो
सबको मूर्ख बनाता है

शनिवार, 16 मई 2015

ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ

बुधवार, 6 मई 2015

ग़ज़ल : गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है
गरीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती, पर
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

अमीरी का दिवाला भर निकलता है यहाँ लेकिन
गरीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा
गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए ‘सज्जन’
गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

द्वार किसी के बिना बुलाए क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो जाएँगे

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : हम इतने चालाक न थे

बह्र : २२ २२ २२ २
         
जीवन में कुछ बन पाते
हम इतने चालाक न थे

सच तो इक सा रहता है
मैं बोलूँ या तू बोले

हारेंगे मज़लूम सदा
ये जीते या वो जीते

पेट भरा था हम सबका
भूख समझ पाते कैसे

देख तुझे जीता हूँ मैं
मर जाता हूँ देख तुझे

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब

महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम
डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब

समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब

कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब

जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे
पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब

आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

बह्र : 221 2121 1221 212

रोटी की रेडियस, जो तिहाई हुई, तो है
पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है

ख़ुद का भी घर जला है तो अब चीखने लगे
ये आग आप ही की लगाई हुई तो है

बारिश के इंतजार में सदियाँ गुज़र गईं
महलों की नींव तक ये खुदाई हुई तो है

खाली भले है पेट मगर ये भी देखिए
छाती हवा से हम ने फुलाई हुई तो है

क्यूँ दर्द बढ़ रहा है मेरा, न्याय ने दवा
ज़ख़्मों के आस पास लगाई हुई तो है

वर्षों से इस ज़मीन में कुछ भी नहीं उगा
इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी
जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन
पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन
जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन
पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है
नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

शनिवार, 28 मार्च 2015

ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

शनिवार, 21 मार्च 2015

ग़ज़ल : और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद

शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद

कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद

जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद

एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद

बुधवार, 18 मार्च 2015

ग़ज़ल : सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२

पड़े चंदन के तरु पर घोसला रखना
तो जड़ के पास भूरा नेवला रखना

न जिससे प्रेम हो तुमको, सदा उससे
जरा सा ही सही पर फासला रखना

बचा लाया वतन को रंगभेदों से
ख़ुदा अपना हमेशा साँवला रखना

नचाना विश्व हो गर ताल पर इनकी
विचारों को हमेशा खोखला रखना

अगर पर्वत पे चढ़ना चाहते हो तुम
सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

सोमवार, 16 मार्च 2015

ग़ज़ल : वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हूँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ

गुरुवार, 12 मार्च 2015

ग़ज़ल : कब तुमने इंसान पढ़ा

बह्र : २२ २२ २२ २

शास्त्र  पढ़े विज्ञान पढ़ा
कब तुमने इंसान पढ़ा

बस उसका गुणगान पढ़ा
कब तुमने भगवान पढ़ा

गीता पढ़ी कुरान पढ़ा
कब तुमने ईमान पढ़ा

कब संतान पढ़ा तुमने
बस झूठा सम्मान पढ़ा

जिनके थे विश्वास अलग
उन सबको शैतान पढ़ा

जिसने सच बोला तुमसे
उसको ही हैवान पढ़ा

सूरज निगला जिस जिस ने
उस उस को हनुमान पढ़ा