रविवार, 18 जुलाई 2010

रंगीन चमकीली चीजें

रंगीन चमकीली चीजें,
प्रकाश के उन रंगों को,
जो उनके जैसे नहीं होते,
सोख लेती हैं,
और उनकी ऊर्जा से अपने रंग बनाती हैं।
और हम समझते हैं कि ये उनके अपने रंग हैं,
जिन्हें हम रंगीन वस्तुएँ कहते हैं,
वे दरअसल दूसरे रंगों की हत्यारी होती हैं।

केवल आइना ही है,
जो किसी भी रंग की ऊर्जा का इस्तेमाल,
अपने लिए नहीं करता,
सारे रंगों को जस का तस वापस लौटा देता है,
इसीलिए तो आइना हमें सच दिखाता है,
बाकी सारी वस्तुएँ,
केवल रंगबिरंगा झूठ बोलती हैं,
जो वस्तु जितनी ज्यादा चमकीली होती है,
वो उतना ही बड़ा झूठ बोल रही होती है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

कवि की कल्पना

कवि की कल्पना,
चीनी को भी घोलती है,
नमक को भी घोलती है,
चीनी और नमक में फर्क नहीं करती,
पानी की तरह होती है,
कवि की कल्पना।

चीनी की अधिक मीठास को कम कर देती है,
नमक को कम नमकीन बना देती है,
नींबू की अत्याधिक खटास को भी कम कर देती है,
शर्बत और शिंकजी में बदलकर,
इन्हें पीने लायक बना देती है,
कवि की कल्पना।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

अबे कमल!

अबे कमल! सुन, क्यों खुद पर इतना इतराता है;
रंग, रूप तू कीचड़ के शोषण से पाता है।

कीचड़ का तू शोषण करता,
कीचड़ का खाता तू माँस;
बुझती कीचड़ के लोहू से
है तेरी रंगों की प्यास।
पर तू खिलने को कीचड़ के बाहर आता है;
तेरा कीचड़ से केवल मतलब का नाता है।

तू खुश रहता वहाँ जहाँ,
कीचड़ होता है पाँव दलित;
देवों के मस्तक पर चढ़कर
समझे कीचड़ को कुत्सित।
बेदर्दी से जब कीचड़ को कुचला जाता है,
कह क्या तुझको दर्द पंक का छू भी पाता है?

फेंक दिया जाता बाहर,
जब तू है मुरझाने लगता;
पड़ा धूल में और धूप में,
घुट घुट कर मरने लगता।
ऐसे में कीचड़ ही आकर गले लगाता है,
क्या तुझको निःस्वार्थ प्रेम भी पिघला पाता है?

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तूफ़ान

जो अपनी मिट्टी से जितनी गहराई से जुड़ा होता है,
उतनी ही आसानी से तूफ़ानों का मुकाबला कर लेता है,
क्योंकि तूफ़ान का वेग धरती पर शून्य होता है,
और उँचाई बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।

जो अपनी धरती से जुड़े बिना,
ऊँचा उठता है,
तूफ़ानों का मुकाबला नहीं कर पाता,
तूफ़ान उसे बड़ी आसानी से,
तोड़ कर बिखेर देता है।

तूफ़ान का मुकाबला करने के लिए,
जो जितना ऊपर उठे,
उसे अपनी मिट्टी से भी,
उतनी ही गहराई से जुड़ा होना चाहिए,
इससे मिट्टी का भी भला होता है,
और जुड़ने वाले का भी।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

पत्थर

हम पत्थर नहीं पूजते,
हम पूजते हैं उसकी जिजीविषा को,
उसकी सहनशक्ति को,
उसके अदम्य साहस को,
उसकी इच्छाशक्ति को,
हर मौसम में जो एक सा बना रहता है,
न पिघलता है, न जलता है, न जमता है,
न जाने कितनी बार इसको तोड़ा गया है,
घिसा गया है,
पर इसके मुँह से आह तक नहीं निकली,
सब कुछ सहा है इसने,
इसको कितना भी कोस लो,
बुरा नहीं मानता,
पलटकर वार नहीं करता,
पत्थर ही धरती पर,
ईश्वर के सबसे ज्यादा गुण रखता है,
इसीलिए तो हम इसे पूजते हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2010

कृष्ण विवर

धर्मान्धता वह कृष्ण विवर है,
जिसमें बहुत सारा अन्धविश्वास का द्रव्य,
मस्तिष्क की थोड़ी सी जगह में इकट्ठा हो जाता है,
और परिणाम यह होता है,
कि प्रेम, दया, ममता की प्रकाश-किरणें भी,
इस कृष्ण विवर से बाहर नहीं निकल पातीं,
और जो भी इस कृष्ण विवर के सम्पर्क में आता है,
वह भी इसके भीतर खिंचकर,
कृष्ण विवर का एक हिस्सा बन जाता है,
इससे बचने का एक ही रास्ता है,
न तो इसके पास जाइये,
और न ही इसे अपने पास आने दीजिए।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है

आजकल ईमानदारी बढ़ती जा रही है,
क्योंकि जो बेईमानी सब करने लगते हैं,
करने वाले भी और पकड़ने वाले भी,
वो सिस्टम में आ जाती है,
उसमें पकड़े जाने का डर नहीं होता,
और धीरे धीरे हमारी आत्मा भी,
मानने लगती है,
कि वो बेईमानी नहीं है;
और अंतरात्मा की आवाज़ गलत नहीं होती,
ऐसा ज्ञानी लोग कह गये हैं;
तो भाइयों आजकल,
ईमानदारी का दायरा बड़ा होता जा रहा है,
क्योंकि ईमानदारी की नई परिभाषाएँ बन रही हैं,
और बेईमानी का घटता जा रहा है,
तो जल्दी ही,
वह घड़ी आएगी,
जब बेईमानी,
दुनिया से पूरी तरह,
समाप्त हो जाएगी।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

समय

काश! मैं तुम्हारे साथ प्रकाश की गति से चल सकता,
तो वह एक पल,
जब तुमने मेरी आँखों में झाँका था,
आज भी वहीं थमा होता।

काश! मेरे प्यार में,
कृष्ण विवर जैसा आकर्षण होता,
तो बहता समय आज भी वहीं ठहरा होता,
मैं तुम्हारी आँखों में खुद को देखता रहता,
और जब तक मेरी पलकें झपकतीं,
समय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता,
और हमारा अस्तित्व मिलकर,
आदि ऊर्जा में बदल जाता,
फिर से सृष्टि का निर्माण करने के लिए।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

सड़कें

पहाड़ों की सड़कें,
आगे बढ़ती हैं,
बलखा बलखा कर;
पहाड़ों की खूबसूरती का आनन्द लेती हैं,
मुड़ मुड़ कर;
रास्ते में खड़े पेड़ उन्हें सलाम करते हैं,
झुक झुक कर;
बीच बीच में कुछेक गड्ढे जरूर होते हैं उनमें;
पर वो जाकर खत्म होती हैं देश के उन कोनों में,
जहाँ के लोगों की वो जीवन रेखा हैं।

शहरों की सड़कें चमकदार होती हैं,
एक दम सपाट,
मगर पेड़ तो कहीं कहीं ही दिखते हैं उन्हें,
वो भी गर्व से सीना ताने,
सड़कों की तरफ तो देखते भी नहीं वो,
शहर की सड़कें मुड़ कर पीछे नहीं देखतीं,
बस आगे ही बढ़ती जाती हैं,
किसी बड़ी सड़क में मिलकर,
अपना अस्तित्व खो देने के लिए।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

भूकम्प

कौन कहता है जिन्दगी में भूकम्प कभी कभी आते हैं,
हर रात मैं सामना करता हूँ,
एक भूकम्प का,
हर रात तुम्हारी यादों के भूकम्प से,
मेरे तन-मन का कोना कोना हिल जाता है,
मेरा कोई न कोई हिस्सा रोज टूट जाता है,
विज्ञान कहता है,
भूकम्प में जो जितना अधिक दृढ़ होता है,
उतनी ही जल्दी टूट जाता है,
काश! कि मैंने भी थोड़ी सी हिम्मत,
थोड़ी सी दृढ़ता दिखाई होती,
तो अगर तुम न भी मिलतीं तो भी,
एक ही बार में टूटकर बिखर गया होता,
कम से कम ये रोज रोज का दर्द तो न झेलता,
शायद ये मेरे समझौतों की,
मेरे झुकने की सजा है,
कि मैं थोड़ा थोड़ा करके रोज टूट रहा हूँ,
और जाने कब तक मैं यूँ ही,
तिल तिल करके टूटता रहूँगा।