शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आँवले का पेड़

एक आँवले का पेड़ था,
फलों से लदा हुआ,
ड़ालियाँ झुकी हुईं,
लोग आये, पेड़ की बहुत तारीफ की,
और प्यार से हाथ बढ़ाकर,
बड़े बड़े आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

अगले साल मौसम की मार पड़ी,
और उस पेड़ पर दो-चार आँवले ही लग पाये,
वो भी एकदम ऊपर की डालों पर,
लोग आये, पेड़ को गालियाँ दीं,
पत्थर मार कर आँवले तोड़े,
और खाकर चले गये,

मैंने पूछा, पेड़ तुम्हें बुरा नहीं लगा,
लोगों की बातों का;
पेड़ बोला, लोगों का क्या है,
लोग तो मौसम के साथ बदलते हैं।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

मधुमक्खी

वो मधुमक्खी,
जिसके छत्ते में पत्थर मारकर,
एक दिन मैंने उकसाया था,
बदले में उसने मुझे,
अपने डंकों से नहलाया था,
बचने की कोशिश तो बहुत की थी मैंने,
पर कौन बचा है आज तक ऐसे डंकों से,

फिर एक दिन अचानक,
छत्ते में कोई नहीं मिला मुझे,
सारा शहद सूख गया था,
छत्ता उजाड़ हो गया था,
वो छत्ता तो आज भी वहीं है,
पर जब कभी मैं उस राह से गुजरता हूँ,
तो मुझे आज भी महसूस होता है,
उसके डंकों का दर्द,
और याद आ जाती है मुझे,
वो मधुमक्खी।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

हेडमास्टर की कुर्सी

मेरे हेडमास्टर की कुर्सी,
पुरानी, मगर बेहद साफ,
घूल का एक कण भी नहीं था उसपर,
शुरू शुरू में तो मैं बहुत डरता था,
उस कुर्सी से,
फिर धीरे धीरे मुझे पता लगा,
कि लकड़ी की उस बूढ़ी कुर्सी में भी दिल है,
और मुझे उस कुर्सी से लगाव होने लगा,
आजकल वो कुर्सी हेडमास्टर साहब के घर में पड़ी हुई है,
उसका एक पाँव टूट गया है,
और आँखों से दिखाई भी नहीं पड़ता,
मोतियाबिन्द के आपरेशन के लिये पैसे नहीं हैं,
एक दिन मैं उस कुर्सी से मिलने चला गया था,
तो सब पता लगा मुझे;
सबसे छुपाकर बीस हजार रूपये देकर आया हूँ,
आपरेशन के लिये,
क्या करूँ, उस कुर्सी का महत्व,
सिर्फ मैं ही समझ सकता हूँ,
वो कुर्सी न होती,
तो मैं न जाने क्या होता।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

दादी

एक गाय है,
वो जब तक बछड़े पैदा करती थी,
दूध देती थी,
तब तक उसकी पूजा होती थी,
उसके गोबर से आँगन लीपा जाता था,
उसके दूध से भगवान को भोग लगाया जाता था,
लोग उसके चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे,

पर अब वह बूढ़ी हो गयी है,
उसे गोशाला के छोटे से,
गंदे से, कमरे में भेज दिया गया है,
कभी बछड़ों पर प्यार उमड़ता है,
और जोर से उन्हें पुकारती है,
तो डाँट दी जाती है,
बचा खुचा खाना उसके आगे डाल दिया जाता है,
वो खाकर चुपचाप पड़ी रहती है,
जवानी के दिन याद करते हुए,
मौत के इंतजार में।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

दर्द क्या है

दर्द क्या है?

शारीरिक दर्द क्या है?
शरीर के विभिन्न हिस्सों से निकलने वाली,
कम ऊर्जा की विद्युत धाराएँ,
जो तन्त्रिकाओं के रास्ते दिमाग तक पहुँचती हैं,
और दिमाग इन तरंगों का मिलान,
अपने पास पहले से उपस्थित सूचनाओं से करके,
हमें अहसास दिलाता है,
कि ये तो दर्द की विद्युत धाराएँ हैं।

मानसिक दर्द क्या है,
दिमाग के एक हिस्से से निकलने वाली विद्युत तरंगें,
जिस हिस्से में याददाश्त होती है,
और ये तरंगें जब दिमाग के,
दर्द महसूस करने वाले हिस्से में पहुँचती हैं,
तो फिर एक बार सूचनाओं का मिलान होता है,
और दर्द की अनुभूति होती है,
इस दर्द की कोई सीमा नहीं होती,
क्योंकि आदमी का दिमाग,
असीमित विद्युत उर्जा उत्पन्न कर सकता है।

आजकल मैं कोशिश कर रहा हूँ,
दिमाग में उपस्थित पूर्व सूचनाएँ नष्ट करने की,
और इसका एक आसान रास्ता है,
सूचनाओं के ऊपर दूसरी सूचनाएँ भर देना,
आजकल मैं खूब चलचित्र देख रहा हूँ,
खूब कविताएँ पढ़ रहा हूँ,
उपन्यासों की तो बस पूछिये ही मत,
और विज्ञान की उन समीकरणों को भी,
समझने की कोशिश कर रहा हूँ,
जिनसे मैं हमेशा ही,
डरता था।

जल्द ही मैं अपने दिमाग में,
इतनी सूचनाएँ भर दूँगा,
कि उसकी यादें या तो मिट जाएँगी,
या इतने गहरे दब जाएँगी कि दिमाग को,
ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगी,
और तब मैं मुक्ति पा सकूँगा,
इस बेरहम दर्द से।

प्रयोग

प्रयोग कभी अच्छा या बुरा नहीं होता,
अच्छा या बुरा प्रयोग का परिणाम होता है,
और परिणाम का पता तब तक नहीं लग सकता,
जब तक कि प्रयोग न किया जाय।

तो प्रयोग से मत डरिये,
बस इतना प्रयास कीजिए,
कि यदि परिणाम बुरा हो,
तो उसका असर कम से कम रहे,
और ऐसा प्रयोग फिर न होने पाये।

रविवार, 18 जुलाई 2010

रंगीन चमकीली चीजें

रंगीन चमकीली चीजें,
प्रकाश के उन रंगों को,
जो उनके जैसे नहीं होते,
सोख लेती हैं,
और उनकी ऊर्जा से अपने रंग बनाती हैं।
और हम समझते हैं कि ये उनके अपने रंग हैं,
जिन्हें हम रंगीन वस्तुएँ कहते हैं,
वे दरअसल दूसरे रंगों की हत्यारी होती हैं।

केवल आइना ही है,
जो किसी भी रंग की ऊर्जा का इस्तेमाल,
अपने लिए नहीं करता,
सारे रंगों को जस का तस वापस लौटा देता है,
इसीलिए तो आइना हमें सच दिखाता है,
बाकी सारी वस्तुएँ,
केवल रंगबिरंगा झूठ बोलती हैं,
जो वस्तु जितनी ज्यादा चमकीली होती है,
वो उतना ही बड़ा झूठ बोल रही होती है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

कवि की कल्पना

कवि की कल्पना,
चीनी को भी घोलती है,
नमक को भी घोलती है,
चीनी और नमक में फर्क नहीं करती,
पानी की तरह होती है,
कवि की कल्पना।

चीनी की अधिक मीठास को कम कर देती है,
नमक को कम नमकीन बना देती है,
नींबू की अत्याधिक खटास को भी कम कर देती है,
शर्बत और शिंकजी में बदलकर,
इन्हें पीने लायक बना देती है,
कवि की कल्पना।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

अबे कमल!

अबे कमल! सुन, क्यों खुद पर इतना इतराता है;
रंग, रूप तू कीचड़ के शोषण से पाता है।

कीचड़ का तू शोषण करता,
कीचड़ का खाता तू माँस;
बुझती कीचड़ के लोहू से
है तेरी रंगों की प्यास।
पर तू खिलने को कीचड़ के बाहर आता है;
तेरा कीचड़ से केवल मतलब का नाता है।

तू खुश रहता वहाँ जहाँ,
कीचड़ होता है पाँव दलित;
देवों के मस्तक पर चढ़कर
समझे कीचड़ को कुत्सित।
बेदर्दी से जब कीचड़ को कुचला जाता है,
कह क्या तुझको दर्द पंक का छू भी पाता है?

फेंक दिया जाता बाहर,
जब तू है मुरझाने लगता;
पड़ा धूल में और धूप में,
घुट घुट कर मरने लगता।
ऐसे में कीचड़ ही आकर गले लगाता है,
क्या तुझको निःस्वार्थ प्रेम भी पिघला पाता है?

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तूफ़ान

जो अपनी मिट्टी से जितनी गहराई से जुड़ा होता है,
उतनी ही आसानी से तूफ़ानों का मुकाबला कर लेता है,
क्योंकि तूफ़ान का वेग धरती पर शून्य होता है,
और उँचाई बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।

जो अपनी धरती से जुड़े बिना,
ऊँचा उठता है,
तूफ़ानों का मुकाबला नहीं कर पाता,
तूफ़ान उसे बड़ी आसानी से,
तोड़ कर बिखेर देता है।

तूफ़ान का मुकाबला करने के लिए,
जो जितना ऊपर उठे,
उसे अपनी मिट्टी से भी,
उतनी ही गहराई से जुड़ा होना चाहिए,
इससे मिट्टी का भी भला होता है,
और जुड़ने वाले का भी।