शनिवार, 26 मई 2012

नवगीत (हास्य व्यंग्य) : ये टिपियाने की खुजली


ये टिपियाने की खुजली, ऐसे न मिटेगी, आ
मैं तेरी पीठ खुजाऊँ, तू मेरी पीठ खुजा

किसने भाषा को तोला, किसने भावों को नापा
कूड़ा कचरा जो पाया, झट इंटरनेट पर चाँपा
पढ़ने कुछ तो आएँगें
टिपियाकर भी जाएँगे
दुनिया को दुनियाभर के, दिनभर दुख दर्द सुना

पढ़ रोज सुबह का पेपर, फिर गढ़ इक छंद पुराना
बन छंद न भी पाए तो, बस इंटर खूब दबाना
पल में खेती कविता की
जोती, बोई औ’ काटी
कुछ खोज शब्द तुक वाले, फिर कुछ बेतुका मिला

कुछ माल विदेशी लाकर, देशी कपड़े पहना दे
बातों की बना जलेबी, सबको भर पेट खिला दे
कर सके न इतना खर्चा
तो कर मित्रों की चर्चा
या प्रगतिशील कह कर तू, पिछड़ों का संघ बना

रविवार, 20 मई 2012

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

भीड़ भरे
इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर 
यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे 
प्रश्नपत्र में 
यह रचना भी आई थी, पर
इसके हल से 
कभी न मिलते
मुझको वे मनचाहे नंबर

सुंदर, सरल
कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये 
मुक्तिबोध की
छोड़ गया पर भूल न पाया
आखिर इस
चौराहे पर 
आकर मैं इससे फिर टकराया

आई होती 
तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना

रविवार, 13 मई 2012

मातृ दिवस पर एक ग़ज़ल : सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है


उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
सुबह ही रोज सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है

कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है

पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है

नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है

बुधवार, 9 मई 2012

ग़ज़ल : जिस्म जबसे जुबाँ हो गए


जिस्म जबसे जुबाँ हो गए
लब न जाने कहाँ खो गए

कौन दे रोज तुलसी को जल
इसलिए कैकटस बो गए

ड्राई क्लीनिंग के इस दौर में
अश्क से हम हृदय धो गए

सूर्य खोजा किए रात भर
थक के हम भोर में सो गए

जो सभी पर हँसे ताउमर
अंत में खुद पे वो रो गए

रविवार, 6 मई 2012

विज्ञान के विद्यार्थी की प्रेम कविता - २


ज्या, कोज्या, स्पर्शज्या.....
कितने सारे वक्र एक एक करके जोड़ने पड़ते हैं

असंख्य समाकलन करने पड़ते हैं
सारे हिस्सों का सही क्षेत्रफल और आयतन निकालने के लिए

हवा के आवागमन के साथ
सारे गतिमान हिस्सों के सभी बिन्दुओं में परिवर्तन की दर
न जाने कितने फलनों के अवकलन से निकल पाती है

लाखों कैलोरी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है दिमाग को
तब कहीं जाकर ये तुम्हारा सजीव मॉडल बना पाता है
मेरे स्वप्न में

मेरे दिमाग को इस मेहनत का कुछ तो फल दो
थोड़ी देर तो मेरे स्वप्न में रहो

शुक्रवार, 4 मई 2012

कविता : अम्ल, पानी और मैं


दफ़्तर के काम में डूबा हुआ था मैं
अचानक किसी शब्द से चिपकी चली आई तुम्हारी याद

जैसे ढेर सारे ठंढे सांद्र अम्ल में गिर जाय एक बूँद पानी
और उत्पन्न हुई ढेर सारी ऊष्मा
पानी की तैरती बूँद को झट से उबाल दे
अम्ल छलक पड़े बाहर
कुछ मेरे कपड़ों पर
कुछ मेरे चेहरे पर

यूँ अचानक मत आया करो
मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है

मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
जैसे ढेर सारे पानी में खो जाता है बूँद बूँद अम्ल
पानी समेट लेता है अम्ल की हर बूँद अपने भीतर
और जज्ब कर लेता है सारी ऊष्मा

गुरुवार, 3 मई 2012

ग़ज़ल : ये उसके तिल से पूछो


दवा काबिल से पूछो
दुआ काहिल से पूछो

कहाँ अब है मेरा दिल?
मेरे कातिल से पूछो

मैं कैसा हूँ? कहाँ हूँ?
ये अपने दिल से पूछो

भटकता हूँ कहाँ मैं?
मेरी मंजिल से पूछो

मैं क्या उसके लिए हूँ?
ये उसके तिल से पूछो

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

ग़ज़ल : सच बोलो तो हकलाओ मत

खुद को खुद ही झुठलाओ मत
सच बोलो तो हकलाओ मत

भीड़ बहुत है मर जाएगा
अंधे को पथ बतलाओ मत

दिल बच्चा है जिद कर लेगा
दिखा खिलौने बहलाओ मत

ये दुनिया ठरकी कह देगी
चोट किसी की सहलाओ मत

फिर से लोग वहीं मारेंगे
घाव किसी को दिखलाओ मत

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

नई कविता : एड्स से मर रहे युवक का बयान

खट्टी मीठी यादें
समय का अचार और मुरब्बा हैं

हमें क्यों बेहूदा लगते हैं वो शब्द
जो हमारी भाषा के शब्दकोश में नहीं होते

प्रेम को महान बनाने के चक्कर में
उसे हिजड़ा बना दिया गया

हिजड़े सारी दुनिया को हिजड़ा बनाना चाहते हैं

मूर्तियाँ सोने का मुकुट पहनकर
भूखे इंसानों को सपने में रोटी दिखाती हैं

भूख से मरता हुआ इंसान कूड़े में फेंकी जूठन भी खाता है

सच अगर कड़वा है
तो उस पर शहद डालने की बजाय
खुद को उसके स्वाद का अभ्यस्त बनाना बेहतर है

अँधेरे कमरे में बंद आदमी
न जिंदा होता है न मुर्दा

क्या मेरे खून में दौड़ते हुए कीड़े
तुम्हारा प्यार भी खा जाएँगें

ईश्वर से चमत्कार की आशा करना
खुद को मीठा जहर देने की तरह है

शायद मेरे मर जाने से दुनिया ज्यादा बेहतर हो जाएगी

तुमने बनाए कुछ नियम और दूर खड़े हो गए
कैसे भगवान हो तुम!

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

ग़ज़ल : है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ

है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ
तेरी आँखों में भी सागर है अक्सर भूल जाता हूँ

ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी तिलिस्मी है
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ

हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी है
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ

तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ

न जीता हूँ न मरता हूँ तेरी आदत लगी ऐसी
दवा हो या जहर दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ